कांग्रेस को ‘नीरो’ की पहचान करना जरूरी है…

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कांग्रेस को ‘नीरो’ की पहचान करना जरूरी है…

भारत में 1885 में गठन के बाद से कांग्रेस सबसे ज्यादा मुसीबत में अगर है तो वह अभी है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसभारत के प्रमुख राजनैतिक दलों में से एक हैं। कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश राज में 28 दिसंबर 1885 को हुई थी।इसके संस्थापकों में ए॰ ओ॰ ह्यूम  (थियिसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य), दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा शामिल थे। आजादी का विकट‌ संघर्ष करने में प्रमुख भूमिका कांग्रेस की ही थी। करोड़ों सदस्यों के साथ अंग्रेजों को देश से खदेड़ दिया और भारत को आजादी दिलाई। 19वीं सदी में गठित कांग्रेस में मोहनदास करमचंद गांधी और जवाहरलाल नेहरू की एंट्री बीसवीं सदी में हुई थी। पर आज देश में कांग्रेस को गांधी-नेहरू के नाम से जाना जाता है। और कहा जाता है कि गांधी ने तो आजादी मिलने के बाद कहा था कि अब कांग्रेस पार्टी को खत्म कर नए नाम से राजनैतिक दल बनाया जाना चाहिए। पर महात्मा की नहीं चली और अब परिवारवाद में जकड़ी कांग्रेस विकट दौर से गुजर रही है। बड़े-बड़े नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम रहे हैं। मध्यप्रदेश में सुरेश पचौरी का अपने समर्थकों सहित भाजपा में जाना कांग्रेस के इस विकट दौर की कहानी ही बयां कर रहा है। इससे पहले 2020 में चलती सरकार को गिराकर दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में शामिल हुए थे। तब से अब तक नदी में बहुत पानी बह चुका है। कांग्रेस का नेतृत्व अगर यह मानकर खुश है कि ईडी, सीबीआई के दबाव में नेता कांग्रेस छोड़ रहे हैं तो इसे सही नहीं माना जा सकता। यदि यह जानकर खुश है कि प्रलोभन के प्रभाव में कांग्रेस के दिग्गज पार्टी से विदाई ले रहे हैं, तब भी सोच सही नहीं है। समस्या पर नजर इनायत करें तो कहीं न कहीं नेतृत्व की सोच में ही खोट नजर आ रहा है। एक कहावत है कि “जब रोम जल रहा था, तो नीरो सुख और चैन की बाँसुरी बजा रहा था।” यह कहावत रोमन सम्राट नीरो के बारे में मशहूर है। नीरो पर रोम में आग लगवाने का आरोप भी लगाया जाता है और कहा जाता है कि उसने जानबूझकर ऐसा किया। अब यह देखने वाली बात है कि यहां कांग्रेस में नीरो की भूमिका में कौन है, जिसकी सेहत पर रोम के जलने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। बल्कि ऐसा लग रहा है कि आग से खाक रोम को नए सिरे से बसाएंगे जो कि ज्यादा सुंदर और व्यवस्थित होगा। तो एक राजनैतिक दल के लिहाज से यह सोच सही नहीं ठहराई जा सकती।

स्थितियां भी ऐसीं बन रही हैं कि हर बार कांग्रेस नेता लकीर पीटकर ही संतुष्ट हो जाते हैं। कांग्रेस में वरिष्ठतम नेताओं में शामिल सुरेश पचौरी और अन्य नेताओं के भाजपा में जाने पर भी ऐसा ही हुआ। कांग्रेस के दिग्गज दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया कि ‘सुरेश, भला 50 साल का रिश्ता भी कोई यूं तोड़ता है.. आपको तो संघर्ष के दिनों में संबल बनकर साथ खड़ा होना था। क्या धर्म यह नहीं सिखाता कि अपनों के सुख-दुख में साथ रहें? राम मंदिर में आस्था उचित है लेकिन राम की मर्यादा को क्यों भूल गए? सच का साथ देने के लिए संघर्ष के पथ पर निःस्वार्थ चलने की सीख ही राम के प्रति सच्ची आस्था होती। बाक़ी सब स्वार्थ है। जिस नेहरू गांधी परिवार की बदौलत आपने समाज में नाम और सम्मान कमाया, उसे बेगाना कर गए। वह भी उनके लिए जिनके खिलाफ हम सब ने सारी लड़ाई लड़ी। अब बीजेपी कह रही है कि आप उनके ही थे और घर वापस लौट रहे हैं। ख़ैर आप जो भी करें.. मगर राम के नाम पर न करें। यह राम की सीख तो नहीं है।

तो सवाल यह है कि राम की सीख क्या है कि आस्था को आहत होता देखते रहो। कांग्रेस अब तक जिस ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ शब्द की लकीर पर दौड़कर बाजी मारने को लालायित है, अब 21वीं सदी में वह शब्द अपने मायने खो चुका है। अब जिस शब्द के मायने हैं, वह शब्द ‘देशभक्ति’ के नाम से जाना जाता है। और अब अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, मुस्लिम-हिंदू और इस तरह की अन्य शब्दावलियों को सिरे से नकार कर सिर्फ देशभक्ति और जनसेवा जैसे शब्दों को अपने शब्दकोष में स्थायी जगह देना समय की मांग है। यह बात राजनैतिक दलों पर लागू होती है, तो देश के हर नागरिक पर भी पूरी तरह लागू होती है वरना रोम जलता रहेगा और नीरो बांसुरी बजाता रहेगा। पर फिर इस बात की गारंटी कतई नहीं है कि नया रोम बस भी पाएगा या नहीं। बसेगा भी तो वह पहले से बेहतर होगा या बदतर। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस के लिए यह विकट दौर है…नीरो बनकर कौन-कौन कांग्रेस में ही आग लगा रहा है, उनको चिन्हित कर आग के हवाले करने में ही भलाई है… वरना 138 साल पुरानी कांग्रेस अपने अतीत को याद कर आंसू बहाने को मजबूर हो जाएगी।