‘भादव बरस रहा है-धुआँधार बरस रहा है’

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           भादव बरस रहा है,धुआँधार बरस रहा है

                                             डॉ. सुमन चौरे

बड़ा सुहावना प्रभात है। दरवाज़ा खोलकर आँगन में पहुँची। अभी-अभी गिरी बौछार की बूँदें दूर्वा पर बैठी थीं। ऊपर से वृक्ष झरा रहा था, सिंदूरी डंडी के छोटे-छोटे सफ़ेद फूल, उन्हें पारिजात कहूँ या हर सिंगार। देखते ही देखते वृक्ष रीतने लगा। पूरा घर आँगन सुवासित हो उठा। परिचित सुवास से जाग उठीं बचपन की मेरी वे यादें। इन नन्हे-नन्हे फूलों को बीनते-चुनते नन्हे-नन्हे हाथ, हमारे भाई-बहनों के हाथ।

भादव बरस रहा है। झमाझम बरस रहा है। धड़ा-धड़ बरस रहा है। पगरा कर बरस रहा है। धुआँधार बरस रहा है। लहर-लहर लहराती लाजवन्ती नदी अब बेकाबू हो गई है। विकराल हो गई है। उसकी लहरें इतनी ऊँची उठ रही हैं कि लगता है वे छू लेंगी आसमान को या कि बादल ही समा रहे हैं लहर-लहर में। बादल और लहरों के घमासान में बिजली और भी डरपाती है। नदी ने तोड़ दिये हैं अपने तट। उस पार का तट पहुँच गया है दूर जंगल में। जलमग्न हो गया है जंगल। इस पार का तट तोड़कर नदी लहर-लहर गली-गली में चलकर आ गई है। ठाकुरजी का मंदिर ऊँचाई पर है। सीढ़ियों को स्पर्श कर रही हैं लहरें। लहरों की कामना है, चाहत है कि वे बालमुकुन्दजी के चरणों को स्पर्श कर प्रणाम करें। यह विश्वरूप भगवान् श्रीकृष्णजी का प्रागट्य मास है, आनन्द और भक्ति का मास है।

भादव के बरसन की रीत है, माँ जैसे, माता जैसे भोजन परस कर अपनी संतान को तृप्त करती है, उसकी क्षुधा शांत करती है, ऐसे ही भादव भी भूखी धरती की क्षुधा को शांत करता है, तृप्त करता है। एक निमाड़ी लोक कहावत भी है – ‘भादव को वरसणू, नऽ मायऽ को परसणू’, अर्थात् भादव का बरसना और माय का बरसना ममता से माता के द्वारा पेट भर भोजन कराना

भक्ति का मास है भादव मास। मूसलाधार वर्षा। पंजे-पंजे तक कीचड़। कभी-कभी घुटने-घुटने तक जल। गलियों में ज़मीन ठीक से नहीं दिखाई देती है, फिर भी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शनों के लिए मंदिरों में अटाटूट भीड़ होती है। कृष्ण जन्माष्टमी अर्थात् भादव के कृष्ण पक्ष की काली अंधेरी रात। घटा-टोप आसमान से दिल दहला देने वाली कड़कती बिजली। हाथ में कंदील और वर्षा से बचने के लिए सन के बोरे ओढ़े लोग भागे चलते थे कृष्ण मंदिरों की ओर। यही आनन्द है लोक जीवन का, यही आस्था है लोक मन की। आधी रात में हथेली से दधी-माखन का प्रसाद चाटते चाटते एक मंदिर से दूसरे मंदिर की ओर भागते, निकलते लोग। प्रसाद की धनिया की पंजरी मुँह में डालकर कोई किसी से बोल भी नहीं सकता था। ‘हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की’ बोलते हुए वे एक से दूसरे मंदिर की ओर दौड़ पड़ते थे।

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भादव बरस रहा है। भादव आया गया है। अब नन्हे से गणपति आ जायँगे घर घर। झूले में झूलने लगेगा वह गोपाल, वह परब्रह्म परमेश्वर। मुदित हो उठता है मन मेरा। मेरे मन को बहुत ही भाता है भादव का महीना। निमाड़ में इस मास में भक्ति के कई रूपों के दर्शन मिलते हैं। इसी मास के शुक्ल पक्ष में आता है शिव-पार्वती का महाव्रत हरितालिका तीज। शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वतीजी द्वारा किया गया तप और उस तप से अभीष्ट की कामना पूर्ति। यही व्रत महिलाओं द्वारा किया जाता है। चौबीस घण्टे निर्जला रहकर किया जाता है शिव-पार्वती का यह आराधना व्रत। गीत, भजन, आरती आदि सब कुछ पूरी रात्रि चलते हैं। पूरा वातावरण भक्ति मय बना रहता है।

भादव मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को निमाड़ में ‘‘पोळा अम्मोस’’ कहते हैं। इस दिन सम्पूर्ण निमाड़ में खेतीहर किसान अपने-अपने बैलों को स्नान करवाकर उनका श्रृंगार करते हैं। बैलों की पूजन कर उन्हें पूरण पोळई खिलाई जाती है। यह बैलों के प्रति एक कृतज्ञता का भाव है। खेत के भीतर का काम बैलों की मदद से पूरा होता था, अब फसल पकने तक बैलों का खेत के भीतर कोई काम शेष नहीं रह जाता।

दोपहर के बाद एक बड़ा मनोरंजक आयोजक भी किया जाता है। ‘पोळा तोड़ने का गाँव की एक निश्चित गली में इस पार से उस पार तक एक मजबूत रस्सी बाँध दी जाती है। गाँव के किसान अपने-अपने सजे हुए बैलों की जोड़ियों को दौड़ाकर लाते हैं। बड़ा ही आनन्द दायी वातावरण होता है। भारी भरकम भीड़ में बैल एक दूसरे से टकराते हुए आगे निकलते हैं। किस रंग के बैल ने वह रस्सा तोड़ा, उसकी मुनादी पटेल करते हैं। ‘‘पोळा टूट गया’’। फिर उस विजयी बैल को गुड़ खिलाया जाता है और उसके स्वामी को गुड़ और एक नारियल भेंट किया जाता है।

यहाँ एक परीक्षण भी है, और एक मान्यता भी है, यदि कालो बैल ने पोळा तोड़ा तो, उस वर्ष उड़द अधिक पकेगा। सफेद बैल ने तोड़ा तो कपास और जुवार अधिक पकेगा। भूरे ने तोड़ा तो गेहूँ-तूवर पकेगा। इस आयोजन के बाद पूरे गाँव में खुशी की लहर फैल जाती है। पटेल द्वारा सबको गुड़ बाँटा जाता है।

भादव मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को श्री गणेशजी के जन्म की तिथि के रूप में मनाई जाती है। यूँ तो आजकल यह पर्व सार्वजनिक रूप से दस दिनों तक गणेश प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कर भव्य समारोह के रूप में मनाया जाता है। यह परम्परा लोकमान्य बाळ गंगाधरजी तिलक ने प्रारम्भ की थी। दूसरी ओर मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में महिलाएँ गणेश चतुर्थी से सिद्ध गणेश व्रत प्रारंभ करती हैं। यह इक्कीस दिनों तक चलता है। सिद्ध गणेश व्रत को महिलाएँ घर में अकेले भी करती हैं और परिवार सहित भी करती हैं।

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सिद्ध गणेश व्रत में महिलाएँ श्री गणेशजी की धातु की मूर्ति को पाट पर स्थापित कर उसके आसपास काली मिट्टी बिछा देती हैं। इस पूजा में इक्कीस दिनों तक प्रत्येक महिला प्रति दिन इक्कीस गेहूँ, इक्कीस चावल, इक्कीस फूल और इक्कीस दूर्वा श्री गणेशजी पर चढ़ाती हैं। वे पूजा के बाद आरती कर, गुड़ की गड़ी का प्रसाद लगाती हैं। श्री गणेशजी के नाम पर जो गेहूँ चढ़ाये जाते हैं, उन्हें काली  मिट्टी पर डाले जाते हैं। ये गेहूँ दो चार रोज में अंकुरित हो जाते हैं। और इक्कीस दिनों में तो पाट पर बड़े-बड़े जवारे लहराने लगते हैं। व्रत के इक्कीसवें दिन इक्कीस लड्डुओं (मोदक) का भोग लगाकर एक जोड़ा जिमाया जाता है। बाद में जवारों को समूह में भजन गाते-बजाते विसर्जन करने के लिए किसी नदी, जलाशय पर ले जाते हैं। यह व्रत लगातार इक्कीस वर्षों तक किया जाता है। उद्यापन समारोह पर इक्कीस जोड़े जिमाये जाते हैं। सिद्ध गणेशजी के पूजन के पश्चात् इक्कीस दिनों तक प्रतिदिन गणपतिजी की वार्ता कही जाती है।

सिद्ध गणेशजी की वार्ता में संदेश भी है और शिक्षा भी है। पूर्ण श्रद्धा, आस्था और निर्मल व भोले भाव से भगवान् की भक्ति करो, तो भगवान् तुरंत प्रकट होकर साक्षात् दर्शन देते हैं।

निमाड़ी वार्ता इस प्रकार है: नाना-सा गणपति महाराज आया, रुण झुण की गाड़ी लाया, घुँघरमाळा बैल्या लाया…..। अर्थात् छोटे से गणपति महाराज आए। सजी हुई गाड़ी लाए। घुँघरमाल पहने सजे हुए बैल लाए हैं। वे ऐसी साज सवारी से गाँव में आए। गणपति भगवान् ने हाथ में सीप भर दूध लिया, चिमटी भर शक्कर ली और नुक भर चोखा (चावल) लिए और नाना-सा बच्चा का रूप धरा और गाँव के बड़े सेठ के घर गए। उन्होंने सेठानी से आग्रह किया- ‘‘सेठाणी बईण, मेरे लिए इस सामान से खीर बना दो।’’

सेठाणी बोली, ‘‘ओ छोरा, हँसी ठट्ठा करता है। इस सीप भर दूध को अंगार पर कैसे रखेंगे। मेरे घर तो बड़े-बड़े चूल्हे हैं। आगे जा और कोई दूसरे से बनवा ले।’’

बालक के ही रूप में गणपति भगवान् गाँव के पटेल घर गए और पटलेन से कहा, ‘‘पटलेन बईण, यह सामान ले, और मेरे लिए खीर बना दे।’’

पटलेन बोली, ‘‘ओ छोरा, हँसी मसखरी करने के लिए तुझे मैं ही मिली। सीप भर दूध को अँगार पर धरूँ, मेरेे पास समय कहाँ है, देखता नहीं पहले ही मेरे पास पटिलाई का कितना काम है, चल आगे बढ़…।’’

बालक रूप नाना-सा गणपति सीप भर दूध लेकर अब पंडितजी के घर गए। वहाँ जाकर उन्होंने पंडिताइन से कहा, ‘‘पंडिताइन बईण, ये सामान है। इससे मेरी खीर बना दे।’’

पंडिताइन बोली, ‘‘हाव रे छोरा, देखता नहीं, भादव महीना, पूजा पाठ का महीना, मेरे को कहाँ फुर्सत धरी तेरी खीर बनाने की। खाना हो, तो मेरे घर लड्डू हैं, खा ले।’’ गणपति भगवान् ने कहा, ‘‘मुझे तो मेरे इतने दूध, चावल और शक्कर की ही खीर खाना है।’’ पंडिताइन ने साफ़ मना कर दिया।

गाँव बाहर एक ग़रीब महिला रहती थी। गाँव के सब लोग उसको ‘लौन्द्या बाई’ कहते थे। थोड़ी बहुत मेहनत-मज़दूरी करती थी और रूखा-सूखा खाकर जैसे-तैसे जीवन बसर कर रही थी। आखि़र में चलते चलते नाना-सा गणपति गाँव बाहर लौंद्या बाई के घर पहुँचे। उन्होंने कहा, ‘‘लौन्द्या बाई, मेरे पास ये सामान है, इससे मेरी खीर बना दे।’’

लौन्द्या बाई ने नन्हे-से छोरे के हाथ से सीप ली  और बोली, ‘‘ला छोरा, ला, मेरा चूल्हा कई दिनों से नहीं जला। खीर तो मैंने कभी बनाई ही नहीं।’’

अब लौन्द्या बाई ने अपने चूल्हे में दो-चार छोटी-छोटी लकड़ियाँ जलाईं और दूध वाली सीप को आग पर रखी। जैसे ही लौंद्या बाई ने सीप आग पर रखी, दूध उफनाने लगा। अब लौन्द्या बाई ने उसमें चिमटी भर शक्कर और नुक भर चावल डाले। जब सब उफना कर बाहर गिरने लगे, तो उसने अपने घर का एक छोटा-सा बर्तन उठाया और उसमें खीर डाल दी। देखते ही देखते वह बर्तन भी उफनाने लगा। फिर उसने एक बड़ा बर्तन चूल्हे पर रखा। अब बड़ा बर्तन भी उफनाने लगा। इसे देखकर बाल रूप गणपति भगवान् ने कहा, ‘‘जा बईण, गाँव में खीर खाने का निवता (निमंत्रण) दे आ।’’ लौंद्या बाई बोली, ‘‘छोरा, मैं तो माँग-मूँग के रूखी-सूखी खाती हूँ। मेरे घर खीर खाने की बात सुनकर सब मेरी हँसी मज़ाक उड़ायँगे।’’ गणपति भगवान् ने कहा, ‘‘जा तो सही।’’

बिचारी लौंद्या बाई गई गाँव में और सब घर बुलावा दिया और कहा, ‘‘चलो जल्दी, मेरे घर खीर उफना रही है, सब खाने चलो।’’

लोग एक दूसरे से मिलकर हँसी मज़ाक कर कहने लगे – ‘‘चलो, लौंद्या बाई ने खीर खाने बुलाया है।’’ कोई बोला, ‘‘माँगकर तो खुद रोटी खाती है और आज गाँव निवता कर रही है।’’ कोई बोला, ‘‘चलो तो भाई, खीर होयगी तो खायँगे, नहीं तो हँसी ठट्ठा कर आ जायँगे।’’

देखते ही देखते लौंद्या बाई के घर पूरा गाँव जीम गया। फिर भी खीर उफनाती रही। खीर परसते-परसते लौंद्या बाई का शरीर रूपवान और कांतिवान हो गया। सच में, रूप टपक रहा था उसका। अंग के फटे-पुराने कपड़े जरी गोटे वाले हो गए। देखते ही देखते दो डांडे की झोपड़ी महल हो गई। जिन महिलाओं ने खीर बनवाने उनके घर गये बच्चे को भगा दिया था, वे अब पछता रहीं थीं और कहने लगीं, ‘‘हमारी बुद्धि जाने क्यों खराब हुई, हम इसकी खीर बना देते तो ऐसी धन-सम्पदा हमारे घर आ जाती।’’

सब लोग खूब पेट भर-भर खीर खा कर गए, फिर भी खीर खतम नहीं हो रही थी। लौंद्या बाई ने सोचा – ‘‘जो छोरा सीप भर दूध लाया था, वह भूखा होगा, तो उसको तो खीर खिलाऊँ।’’ वह उस छोरे को देखने के लिए बाहर जाने लगी। उसे छोरा नहीं दिखा। उसने अपने शरीर पर हाथ फेरा, तो देखा, सब नये वस्त्र हैं और आभूषणों से शरीर लदा है। वह दौड़कर उस छोरे को ढूँढ़ने गई। वह छोरा होय तो मिले। वो तो साक्षात् गणपतिजी थे। निर्मल और भोले भाव से लौंद्या बाई ने बड़े प्रेम से उस छोरे के लिए खीर बनाई, तो वह उस पर प्रसन्न हो गए।

वार्ता खतम। सभी महिलाएँ जो हाथ में चावल के दाने रखकर वार्ता सुन रही थीं, वे अपने हाथ के चावल तुलसी क्यारे में डालकर कहती हैं-‘‘गणपति भगवान्, जैसे आप लौंद्या बाई पर तुष्टमान (प्रसन्न) हुए, वैसे ही हम पर भी होना।’’ और अन्त में कहती हैं -‘‘हाओ माँयऽ, कभी कोई खऽ छोटो नी समझणूँ। अर्थात् कभी किसी को छोटा मत समझो।

निमाड़ में भादव मास लोक व्रत और लोक कथाओं का मास ही माना जाता है। सिद्ध गणेश प्रारंभ हुआ। दूसरा दिन ऋषि पंचमी का होता है। इस दिन महिलाएँ मिलकर पाँच ऋषियों की पूजा करती हैं। इसमें पलाश के एक पत्ते पर चंदन से पाँच पुतलियाँ ऋषियों के प्रतीक स्वरूप बनाकर उनकी पूजा करती हैं और वार्ता (लोककथा) कहती हैं। अगले दिन महिलाएँ षष्ठी को को हल छठ के रूप में मनाकर व्रत करती हैं। इस दिन पलाश के पत्ते पर चंदन से हल और पुरुष का पुतला बनाकर उनकी पूजा कर हल-छठ की वार्ता कहती हैं। यह व्रत संतान की रक्षा के लिए किया जाता है। महिलाएँ सप्तमी के दिन शीतला माता का पूजन कर रात का बना हुआ ठंडा भोजन करती हैं। शीतला सप्तमी की वार्ता भी कही जाती है। अष्टमी के दिन भी महिलाएँ पाट पर मिट्टी से ‘कुकड़ी माकड़ी’ (मुर्गी और मकड़ी) की पुतलियाँ बनाकर उनकी पूजा करती हैं। यह व्रत ओंकार बहन बनाकर, बहनें मिलकर पूजा करती हैं, साथ ही वार्ता भी कहती हैं।

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निमाड़ में भादव शुक्ल ग्यारस के दिन भगवान् श्रीकृष्ण की जलवाय पूजन का उत्सव मनाया जाता है। इस दिन डोल निकाले जाते हैं। इसे डोल ग्यारस कहा जाता है। डोल में बैठाकर भगवान् को नगर भ्रमण कराया जाता है। उनके चरण धोकर पुनः मंदिर में ले जाते हैं। और अन्त में आती है चतुर्दशी जिसको अनन्त चौदस कहते हैं। इस दिन निमाड़ का हर पुरुष हाथ में पीला अनन्त, गठा हुआ पीला डोरा, बाँधता है और धर्मराजजी की वार्ता सुनता है।

इस प्रकार निमाड़ में भादव मास का पूरा शुक्ल पक्ष लोक-कथा और लोकव्रत-पर्व के रूप में ही मनाया जाता है। ऊपर बादलों की तड़ा-तड़ी, झड़ा-झड़ी और धरती पर लोक-पर्व का उत्साह।

वैसे निमाड़ में वर्ष की सभी पूर्णिमाओं का अपना एक विशेष महत्त्व होता है। भादव पूर्णिमा के दिन लोग स्नान दान के साथ पूर्णिमा का श्राद्ध करते हैं। इसी दिन से महालय आरंभ हो जाता है, सोलह श्राद्ध शुरू हो जाते हैं।

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  डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृति विद् एवं लोक साहित्यकार

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