Janmashtami : 6 या 7 सितंबर, कब मनाएं जन्माष्टमी ?
शास्त्रोक्त प्रमाणित हल बताया ज्योतिषाचार्य प. अशोक शर्मा ने
*जानें कि कौन होते हैं वैष्णव* *संभागीय ब्यूरो चीफ व लेखक चंद्रकांत अग्रवाल की एक खोजपरक रपट*
जन्माष्टमी पर एक बार फिर पशोपेश, असमंजस, दुविधा की स्थिति बन गई है। देश भर में कोई विद्वान व धर्मगुरु 6 को तो कोई 7 सितंबर को मनाने की अपनी अलग अलग राय,अलग अलग आधार पर दे रहे हैं। तब मीडियावाला ने अपनी विद्वता के लिए कई सम्मानों से विभूषित हो चुके,प्रदेश के सुविख्यात ज्योतिषाचार्य पंडित अशोक शर्मा से इस संबंध में खुलकर हर पहलू पर बात करना प्रासांगिक समझा। पंडित अशोक शर्मा ने बताया कि हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि 6 सितंबर को दोपहर 03.37 बजे आरंभ होगी और 7 सितंबर शाम 04.14 बजे इसका समापन होगा। चूंकि श्रीकृष्ण का जन्म वृषभ राशि के चंद्र व रोहिणी नक्षत्र में रात्रि 12 बजे हुआ था,जो दोनों 6 सितंबर की रात 12 बजे रहेंगे इसलिए कई विद्वान व जानकार,गृहस्थ 6 सितंबर को जन्माष्टमी मनाना उचित मान रहे हैं। जबकि देश भर में वैष्णव लोग 7 सितंबर को जन्माष्टमी का त्योहार मनाएंगे। ज्योतिषियों की मानें तो इस वर्ष जन्माष्टमी पर रोहिणी नक्षत्र का संयोग भी बन रहा है। रोहिणी नक्षत्र 6 सितंबर को सुबह 09.20 बजे से 7 सितंबर को सुबह 10.25 बजे तक रहेगा। जन्माष्टमी पर 4 शुभ योग भी बन रहे हैं। सर्वार्थ सिद्धि योग- जन्माष्टमी पर पूरे दिन रहेगा। रवि योग- 6 सितंबर को सुबह 06 बजकर 01 मिनट से सुबह 09 बजकर 20 मिनट तक। बुधादित्य योग- जन्माष्टमी पर पूरे दिन रहेगा। रोहिणी नक्षत्र- 6 सितंबर को सुबह 09 बजकर 20 मिनट से 7 सितंबर को सुबह 10 बजकर 25 मिनट तक रहेगा। वहीं जन्माष्टमी पर 30 साल बाद इस बार एक बड़ा ही शुभ संयोग बनने जा रहा है। ज्योतिष गणना के अनुसार, जन्माष्टमी पर पूरे 30 साल बाद सर्वार्थ सिद्धि योग, रोहिणी नक्षत्र और वृषभ राशि में चंद्रमा का संयोग रहेगा। इस खास संयोग के होने से जन्माष्टमी का महत्व और अधिक बढ़ गया है। पंडित अशोक शर्मा का कहना है कि जन्माष्टमी के संबंध में निर्णय सिंधु ग्रंथ में कहा गया है कि भले ही जन्माष्टमी के दिन मतलब भाद्र पद कृष्ण की अष्टमी तिथि यदि सप्तमी युक्त हो और चंद्रमा वृषभ में और रोहिणी नक्षत्र में हो तब भी नवमी युक्त अष्टमी को ही जन्माष्टमी मानना चाहिए। निर्णय सिंधु के साथ ही ब्रह्म वैवर्त पुराण व धर्म सिंधु ग्रंथ के अनुसार भी नवमी युक्त अष्टमी को ही ग्राह्य किया गया है अर्थात मानने को कहा गया है। इसीलिए वैष्णव लोग 7 सितंबर को जन्माष्टमी मनाएंगे। पंडित शर्मा कहते हैं कि निर्णय सिंधु का यही नियम एकादशी के संदर्भ में भी लागू होता है कि हमेशा दशमी युक्त एकादशी को छोड़कर द्वादशी युक्त एकादशी ही करना चाहिए। इसलिए निर्णय सिंधु ने दो टूक निर्णय दिया है और इसीलिए सभी लोग और मथुरा वृंदावन में भी 7 सितंबर को जन्माष्टमी मनाई जाएगी। ज्ञात रहे कि वैष्णव मतानुसार वैष्णव सूर्योदय के समय की तिथि को महत्त्व देते हैं । ‘उदयव्यापिनी अष्टम्यमलम्बिनां वैष्णवानाम्’ अर्थात् सूर्योदय में यदि अष्टमी है, तो रात्रि में अष्टमी न होने पर भी सूर्योदय के अनुसार उसे अष्टमी तिथि के रूप में ही ग्राह्य करते हैं और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व को मनाते हैं ।
कलाकाष्ठामुहूर्तापि यदा कृष्णाष्टमीतिथिः ।
नवम्यां सैव ग्राह्या स्यात्सप्तमीसंयुता नहि ॥
(पद्मपुराण, निर्णय सिंधु परिच्छेद २ )
वैष्णवों के इतिहास व उसकी चार शाखाओं की बात मैं इस रपट के अंत में पृथक से करूंगा क्योंकि मैं खुद एक पुष्टिमार्गीय वैष्णव हूं। फिलहाल पुनः पंडित अशोक शर्मा के मत की बात करें तो वे कहते हैं कि उत्सवों में लोक परम्परा में कोई वाद विवाद नहीं होना चाहिए। अतः यह भी कहते हैं कि अलग अलग ग्रंथों के अलग मत व विद्वानों द्वारा उनकी अलग अलग व्याख्या किए जाने से हम दोनों दिन जन्माष्टमी मना सकते हैं। ब्रज में तो इस बार तीन दिन तक जन्माष्टमी मनाए जाने की खबर है,6,7 व 8 सितंबर को। *ब्रज में 3 दिन मनेगा इस बार श्रीकृष्ण जन्मोत्सव*
भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव पर ब्रज में आस्था की अविरल धारा बहती है। इस बार ब्रज में जन्मोत्सव तीन दिन मनाया जाएगा। प्राचीन मंदिर ठाकुर श्रीकेशव देव में जन्मोत्सव छह सितंबर को मनाया जाएगा। जिस दिन अष्टमी लगती है, उसी दिन यहां जन्मोत्सव मनाया जाता है। श्री कृष्ण जन्मस्थान और अन्य मंदिरों में सात सितंबर को आयोजन होगा। सूर्य उदय में अष्टमी होने पर जन्मोत्सव मनाया जाएगा। नंदगांव में आठ सितंबर को जन्मोत्सव का आनंद होगा। यहां गोपद गणना (खुर गिनती) से यह आयोजन होता है। रक्षाबंधन के आठवें दिन कन्हैया का जन्मोत्सव मनाया जाता है। जन्माष्टमी के दिन श्रीकृष्ण को पंचामृत का भोग जरूर लगाना चाहिए. आप उसमें तुलसी दल भी डाल सकते हैं. आप मेवा, माखन और मिसरी का , भोग भी लगा सकते हैं. कहीं-कहीं, धनिये की पंजीरी भी अर्पित की जाती है। पूर्ण सात्विक भोजन जिसमें तमाम तरह के व्यंजन हों, इस दिन श्री कृष्ण को अर्पित किए जाते हैं। जन्माष्टमी के दिन प्रातःकाल स्नान करके व्रत या पूजा का संकल्प लें. व्रत रखने वाले दिन भर जलाहार या फलाहार ग्रहण करें और सात्विक रहें. मध्यरात्रि को भगवान कृष्ण की धातु की प्रतिमा को किसी पात्र में रखें। उस प्रतिमा को पहले दूध, दही, शहद, शर्करा और अंत में घी से स्नान कराएं. इसी को पंचामृत स्नान कहते हैं। प्रायः विशिष्ट नियमों के तहत एकादशी,होली,दीपावली,जन्माष्टमी आदि सभी प्रमुख पर्व मनाने वाले वैष्णव सम्प्रदाय के विषय में भी इस रपट में बताना जरूरी व प्रासंगिक लग रहा है मुझे। ताकि पाठकों को हर पर्व पर होने वाली दुविधा न हो। क्योंकि प्रायः यह सवाल उठता रहता है कि कौन होते हैं वैष्णव? तो महात्मा गांधी के प्रिय भजन की बात करें तो वह तो आध्यात्मिक बात संदेश देता है कि *वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे* पर यदि पंथ, संप्रदाय स्तर की बात करें तो इसकी भी चार शाखाएं मानी जाती हैं। प्रधान शाखा जिसका प्रचार उत्तर और दक्षिण के एक बड़े भू-भाग में पाया जाता है,रामानुजाचार्य द्वारा स्थापित विशिष्टाद्वैत नामक कही जाती है। इसके अतिरिक्त तीन अन्य वैष्णव शाखाएं और हैं , जिनके भी करोड़ों फालोअर विश्व भर में हैं। ये हैं, मध्वाचारी, निम्बार्क और पुष्टिमार्गी या शुद्धाद्वैत।
*मध्वाचारी सम्प्रदाय* – इसके संस्थापक माध्वाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के तूलव नामक स्थान में सन् 1239 में हुआ था। उन्होंने छोटी अवस्था में ही वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करके संन्यास की दीक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने रामानुज तथा शंकर प्रभृति धर्माचार्यों के सिद्धान्तों का मनन किया, पर दोनों में से उन्हें कोई ठीक न जान पड़ा। तब उन्होंने संन्यास त्याग दिया और अपना एक नवीन सम्प्रदाय स्थापित किया जिसे ब्रह्मा सम्प्रदाय या पूर्ण यज्ञ के नाम से भी पुकारते हैं। इसमें विष्णु को जगत का नियन्ता बतलाया गया है। समस्त सृष्टि उन्हीं से उत्पन्न हुई है ओर वे ही जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मों का फल देते हैं। परमात्मा तथा जीवात्मा दोनों अनादि हैं, किन्तु दोनों एक नहीं है। इन दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि परमात्मा स्वतंत्र और जीवात्मा परतन्त्र है। विष्णु निर्दोष और सद्गुणों स्वरूप है। जीव उनकी समता नहीं कर सकता। जीवात्मा, परमात्मा में लय नहीं होता किन्तु विष्णु के प्रति प्रेम होने से उनकी भक्ति द्वारा वह पुनर्जन्म से छूटकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है।माध्वाचार्य ने प्रारम्भ में तीन शालिग्राम मूर्तियाँ प्राप्त कर उनको सुब्रहागण, उडीपी और मध्यतल नामक मठों में स्थापित किया। बाद में एक कृष्ण मूर्ति भी उडीपी में प्रतिष्ठित की। उन्होंने उडीपी में कई वर्ष तक निवास करके सूत्र भाष्य, ऋग भाष्य, दशोपनिषद भाष्य, भारत तात्पर्य निर्णय, भागवत तात्पर्य, गीता तात्पर्य, कृष्णामत महार्गाव आदि 37 ग्रन्थों की रचना की। इस सम्प्रदाय के त्यागी आचार्य दण्डी संन्यासियों की भाँति गेरुआ वस्त्र पहनते हैं दण्ड कमण्डल रखते हैं, सिर मुँड़ाते हैं और यज्ञोपवीत छोड़ देते है। मध्याचारियों के उपासना के तीन अंग होते हैं। अंगन, नामकरण और भजन। वे लोग शंख, चक्र आदि की गर्म मुद्राओं से अपना शरीर दाग देते हैं। यही अंकन कहलाता है। अपनी संतानों का नाम विष्णु पर्यायवाची शब्दों पर रखना नामकरण कहा जाता है। भजन का अर्थ कायिक, वाचिक और मानसिक विविध भजनों का अनुष्ठान करना होता है।
*निम्बार्क सम्प्रदाय* इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक भास्कराचार्य नामक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। इनका जन्म निजाम हैदराबाद राज्य के बेदर नामक स्थान के निकट 1036 शकाब्द में हुआ था। उनके पिता महेश्वर भट्ट भी 3 वेदों के ज्ञाता और बाल्यावस्था से ही महान बुद्धिमान और प्रतिभाशाली थे। पिता के निकट ज्योतिष तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन करके उनका पाँडित्य अगाध हो गया। उन्होंने छोटी अवस्था में ही सिद्धान्त शिरोमणि तथा लीलावती आदि ग्रन्थों की रचना की जो आज तक प्रसिद्ध है। उन दिनों दक्षिण भारत में जैन धर्म की प्रबलता थी। भास्कराचार्य ने उनका खण्डन कर वैष्णव सम्प्रदाय का प्रचार किया। उन्होंने देवालयों में राधाकृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित करके उनकी पूजा का उपदेश किया। संन्यास ग्रहण करने के बाद वे वृन्दावन में आकर रहने लगे और उत्तर भारत में भी अपने सम्प्रदाय का प्रचार किया। उन्होंने संस्कृत में कई धर्म ग्रन्थ लिखे तथा कहते हैं कि वेदों का भाष्य भी किया। पर इस समय उनका लिखा एक भी ग्रन्थ प्राप्त नहीं है। उनके अनुयायियों का कहना है कि जिस समय औरंगजेब ने मथुरा को नष्ट किया था, उसी अवसर पर वे सब जला डाले गये। भास्कराचार्य के अनुयायी उनको सूर्य का अवतार मानते हैं। भक्त माल में उनके सम्बन्ध में एक अलौकिक कथा लिखी है। कहते हैं कि एक दिन कोई जैन साधु उनके पास आये और जैन धर्म के सिद्धान्तों पर बातचीत करने लगे। विचार करते करते जब शाम को गई तो भास्कराचार्य उठे और अपने आश्रम से कुछ खाद्य सामग्री उस अभ्यागत के लिए ले आये। पर जैन धर्म वाले रात्रि में भोजन नहीं करते- इससे उस अभ्यागत ने सूर्यास्त होता देख भोजन करने से इनकार कर दिया। इस पर भास्कराचार्य ने सूर्य भगवान से कुछ देर ठहरने की प्रार्थना की। कहते हैं कि जब तक वह अतिथि भोजन करता रहा तब तक सूर्य का प्रकाश सामने ही लगे हुए एक नीम के पेड़ पर दिखाई पड़ता रहा। उसी दिन से भास्कराचार्य, निम्बार्क अथवा निम्बादित्य कहलाये और उनका सम्प्रदाय भी उसी नाम से प्रसिद्ध हुआ। आजकल इस सम्प्रदाय के अनुयायियों की संख्या अधिक नहीं है तो भी भारत के पश्चिम तथा दक्षिण प्रांतों के सिवाय वे मथुरा के आस-पास तथा बंगाल में पाये जाते हैं। इनकी प्रधान गद्दी मथुरा के पास ध्रुव क्षेत्र में है।
*शुद्धादैत अथवा बल्लभ सम्प्रदाय* के संस्थापक महात्मा बल्लभाचार्य अन्य वैष्णव आचार्यों की तरह दक्षिण भारत के निवासी थे। पर जब उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट कुटुम्ब सहित तीर्थाटन करते हुए बनारस पहुँचे तो वहाँ हिन्दू मुसलमानों से झगड़ा हो गया। अपनी रक्षा के लिए लक्ष्मण भट्ट सपरिवार चम्पारन चले गये और वहीं संवत् 1535 के बैशाख में वल्लभचार्य का जन्म हुआ। पाँच वर्ष की आयु में ही उनका उपनयन संस्कार कर दिया गया और वे नारायण भट्ट नामक विद्वान पण्डित के पास विद्याध्ययन के लिए भेज दिये गये। वहाँ उन्होंने वेद, न्याय और पुराण आदि ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त की। ग्यारह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया। पर वे इससे विचलित नहीं हुए और काशी जाकर विद्याध्ययन करने लगे। इसके बाद वे अपनी माता से आज्ञा माँग कर तीर्थाटन को निकल पड़े। जिस समय वे दक्षिण भारत के विजयनगर राज्य में पहुँचे तो वहाँ रामानुज, मध्वाचार्य, निम्बार्क और विष्णुस्वामी- इन चारों वैष्णव सम्प्रदाय के विद्वानों का स्मार्त मत के पण्डितों से बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हो रहा था। बल्लभचार्य भी वैष्णव पण्डितों में मिल गये और स्मार्तों को पराजित करने में उन्होंने बहुत बड़ा सहयोग दिया। उसी अवसर पर उनको वैष्णव धर्माचार्य नियुक्त किया गया और विष्णुस्वामी के मठ को जो बहुत समय से उच्छिन्न हो गया था, फिर से प्रतिष्ठित करने का अधिकार दिया गया। बल्लभचार्य ने विष्णुस्वामी के परम्परागत धर्म सिद्धान्त में अपने भी कुछ सिद्धान्त सम्मिलित करके पुष्टिमार्ग या शुद्धाद्वैत संप्रदाय की स्थापना की और उसकी गद्दी गोकुल (मथुरा) में रखी। इससे पूर्व जन साधारण में उनके परिस्थितियों का नाम गोकुलिया गोसाई प्रसिद्ध हो गया। बल्लभचार्य ने रामानुज, मध्यवार्य आदि अन्य वैष्णव धर्माचार्यों के मत को स्वीकार न करके अद्वैत मत का समर्थन किया। उन्होंने बतलाया कि यह सृष्टि दो प्रकार की है। जीवात्मक और जड़। हम विश्व में जो कुछ देखते हैं व चैतन्य है अथवा जड़ या इन दोनों का सम्मिश्रण। इन तीनों के द्वारा संसार में अनेक दृश्य दिखलाई देते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि कोई वस्तु नष्ट हो जाती है। ब्रह्माण्ड में जो परमाणु हैं उनका नाश कभी नहीं होता। जिसे लोग नाश होना समझते हैं वह वास्तव में रूपांतर होता है। बल्लभाचार्य ने अपने सिद्धान्त के समर्थन के लिए वेद और उपनिषद् के प्रमाण दिये और वास्तव में उनका सिद्धान्त बहुत ऊंचे दर्जे का और ज्ञानमय है। पर व्यवहार में उनका सम्प्रदाय बड़ा रसिक और मनोरंजक है। उन्होंने देखा कि धर्म के कठिन नियमों का पालन करते-करते लोग उनसे ऊब गये हैं और धर्म के नाम पर कष्ट उठाना नहीं चाहते। ऐसे संसारी और विषयासक्त लोगों की रुचि धर्म की तरफ लाने के लिए ही सम्भवतः उन्होंने अपने सम्प्रदाय के नियम बहुत सरल और आकर्षक रखे। उन्होंने लोगों को राधाकृष्ण की क्रीड़ा और प्रेमपूर्ण भक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने कृष्ण का जो रूप महाभारत तथा भागवत में वर्णन किया गया है उसे प्रधानता न देकर ब्रह्म वैवर्त पुराण में वर्णित कृष्ण के रूप की उपासना बतलाई। उस पुराण में श्रीकृष्ण को पूर्ण ईश्वरत्व मानकर बताया है कि वे ही मायातीत, गुणातीत, निमय और सत्य हैं। वे पूर्ण जीवन सम्पन्न नाना रत्न विभूषित, पीताम्बरधारी और मुरलीधर रूप में सर्वदा गोलोक में निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त उस पुराण में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का भी अद्भुत और अलौकिक वर्णन किया गया है। बल्लभचार्य जी ने श्रीकृष्ण के इसी रूप की पूजा पूरी आत्मीयता, समर्पण व प्रेम के साथ करने का उपदेश दिया। बल्लभचार्य जी ने यह भी कहा है कि शरीर को अनावश्यक कष्ट देने से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती, किन्तु इस जीवन के आनन्दों को भोगते हुए ही उन आनन्दों में ही श्री कृष्ण को सहभागी बना मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए। इससे हम पाप कर्मों से भी बचे रहेंगे। माना जाता है कि उनको पूजन,भजन में श्रीकृष्ण का साक्षात सानिध्य प्राप्त होता था। उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ भी काफी बुद्धिमान और विद्वान थे और उन्होंने अपने सम्प्रदाय का प्रसार बढ़ाकर लोगों को भक्ति का उपदेश देने के लिए अपने मन्दिरों में बाल कृष्ण और राधाकृष्ण की लीला दिखानी आरम्भ की, मन्दिरों की सुन्दरता को खूब बढ़ाया और उनमें गायन-वादन की व्यवस्था की। उनके मन्दिरों में उत्सव भी बहुत होते थे और प्रसाद बहुत अधिक तथा बढ़िया चढ़ाया जाता था। इन सब बातों से साधारण मनुष्य उनके सम्प्रदाय की तरफ काफी आकर्षित हुए और गुजरात, राजपूताना, मथुरा आदि में उनके बहुत से शिष्य हो गये। इस सम्प्रदाय के आचार्य और शिष्य सभी गृहस्थ होते हैं और भौतिक रूप से गुरु को ईश्वर स्वरूप मानकर उन्हीं की सेवा करने को मोक्ष का साधन मानते हैं। ये लोग परस्पर ‘जय श्रीकृष्ण’ ‘जय गोपाल’ आदि कहकर नमस्कार करते हैं। आचार्य लोग अपने शिष्यों को- ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ या ‘श्रीकृष्ण : शरणं मम’ इन मंत्रों का जाप निरंतर करने का उपदेश देते हैं और शिष्यगण प्रतिदिन माला पर इनका जप करते रहते हैं। इस तरह सब कुछ त्याग की कोई आवश्यकता नहीं बताते हुए संसार के सभी कर्म श्रीकृष्ण को समर्पण करते जाओ बस, मोक्ष प्राप्त हो जायेगा,यही संदेश देते हैं।