साँच कहै ता: चुनावी लोकतंत्रः न भाषा का स्तर बचा न मर्यादा का लिहाज!

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सन् 1952 में हुए पहले आम चुनाव से लेकर अब तक में स्थितियों में तीनसौसाठ डिग्री का परिवर्तन आ गया। पहले प्रतिद्वंदी प्रत्याशी से भी याराना होता था। हिट बिलो द बेल्ट की प्रचारू भाषा की कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था। कई उदाहरण तो ऐसे भी हैं जब सबल प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंदी की मदद भी करते थे। आज के हाल यह हैं कि चुनाव के प्रत्याशी एक दूसरे से इतने डरे रहते हैं कि कहीं एक दूसरे की हत्या न करवा दें।

प्रत्याशियों की सभाएं निजी गनमैन और बांउसरों के सुरक्षा घेरे में होती हैं। चुनावी गैंगवार तो यूपी-बिहार में सत्तर के दशक में ही शुरू हो गया था। स्थिति की गंभीरता को इसी से समझा जा सकता है कि यूपी-बिहार-बंगाल के कई जनप्रतिनिधि ऐसे मिल जाएंगे जिनपर प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी की हत्या या हत्या की साजिश के मुकदमे चल रहे हैं। पिछले के पिछले चुनाव में अपने प्रदेश के एक प्रत्याशी की हत्या मतदान के दिन ही कर दी गई थी।

 

कुल मिलाकर चुनाव चाहे पंची-पार्षदी का हो या विधानसभा-लोकसभा का गैंगवार की तरह होने लगा है। एक कविमित्र ने दशक भर पहले लिखा था -जीत हार कैसे होती है,लूटमार जैसे होती है। चुनाव आयोग की सख्ती और ईवीएम वोटिंग के बाद भी चुनाव लूटने की होड़ मची रहती है। पहले यह सब व्यक्तिगत स्तरपर होता था अब इसने पार्टीगत व नियोजित रूप ले लिया है।

 

सन् 52 के चुनाव में लड़ने वाले जुजबी लोग ही बचे हैं। जो हैं वे उन दिनों की याद करते हैं। मैंने सन् चौरासी से लेकर पिछले चुनाव तक लगभग सभी स्तरों के चुनावों की रिपोर्टिंग की है। कई किस्से अभी याद हैं। यह जरूरी है कि राजनीति और पत्रकारिता से जुड़ी नई पीढी भी राजनीतिक मूल्यों के गिरते ग्राफ से परिचित हो।

 

मध्यप्रदेश की राजनीति में श्रीनिवास तिवारी का बड़ा नाम है। इन्होंने पहला चुनाव सन् 52 में लड़ा था। ये सात बार विधायक रहे। इस दरम्यान मंत्री और दस साल तक मध्यप्रदेश की विधानसभा के अध्यक्ष रहे। इनके पहले चुनाव की कथा आज भी याद है जिसे मैंने अखबार में चुनाव कवरेज के दौरान छापी थी।

 

तिवारीजी जब पहला चुनाव लड़े तब इनकी उम्र कोई 24 साल की रही होगी। यहां डा.लोहिया का बोलबाला था, तिवारीजी सोशलिस्ट पार्टी के युवातुर्क थे। उन्हें मनगँवा विधानसभा क्षेत्र से लाल यादवेंद्र सिंह के खिलाफ उतारा गया थे। ये बड़े वकील तो थे ही विन्ध्यप्रदेश काँग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। प्रदेश की अंतरिम सरकार के प्रभावशाली मंत्री भी थे। लाल साहब विन्ध्यप्रदेश सरकार के पहले निर्वीचित मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार थे। चुनाव में संसाधनों के मामले में लालसाहब जिन्हें यहां आदर से भैय्यासाहब कहा जाता था तिवारीजी से कई गुना सक्षम थे। इनके पास मोटर थी, सभिओं के लिए लाउडस्पीकर भी। इधर तिवारी के पास साईकिल थी जिसमें तीन लोग बैठकर चुनाव प्रचार के लिए निकलते थे।

 

तिवारीजी ने बताया एक बार चुनाव प्रचार के दरम्यान भैय्यासाहब की मोटर निकली। वे मुझे देखकर रुक गए। बोले- तुम साईकिल से कितना प्रचार कर पाओगे चलो मेरे साथ मोटर में बैठो, गाँव के पहले उतर जाना, मेरे बाद उसी मंच माईक से सभा कर लेना। फिर तो पूरे चुनाव में भी ऐसा ही चला। जब चुनाव परिणाम आया तो 24 साल के श्रीनिवास तिवारी ने विन्ध्यप्रदेश के भावी मुख्यमंत्री को पराजित कर दिया। जानते हैं जीत की पहली बधाई देने वाले कौन थे.? वही लाल यादवेंद्र सिंह जो इस पराजय से मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए।यह था आजादी के बाद हुए पहले चुनाव का आदर्श जिसे लेकर हम लोकतंत्र की पवित्र चुनावी यात्रा में चले थे।

 

पक्ष-प्रतिपक्ष की राजनीति का यह आदर्श यकायक नहीं खत्म हुआ। बदलाव आहिस्ते से आया। एक और किस्सा बताना जरूरी है। राजमणि पटेल भी मध्यप्रदेश की काँग्रेस राजनीति का बड़ा नाम है। ये चार बार विधायक रहे। मोतीलाल वोरा और दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। श्री पटेल अभी भी सक्रिय हैं व पार्टी के प्रमुख नेताओं की अग्रिम जमात में हैं। पटेल जी की चुनावी राजनीति की दिलचस्प शुरुआत हुई। ये भी पहले सोशलिस्टी थे, यमुनाशास्त्री और चंद्रप्रताप तिवारी जैसे दिग्गजों के शिष्य।

 

मध्यप्रदेश की संविद सरकार के गिरने के बाद चंद्रप्रताप जी प्रसोपा छोड़कर कांग्रेस में चले गए। यहां वरिष्ठता के हिसाब से कैबिनेट मंत्री बने। तिवारीजी प्रकाशचंद्र सेठी के अत्यंत करीबी व उनके ट्रबलशूटर रहे। 72 का चुनाव आया। जातीय गणित के हिसाब से रीवा जिले में एक सीट पिछड़े वर्ग से देनी तय हुई। पटेल बताते हैं कि चंद्रप्रताप जी ने पिछड़ा प्रत्याशी खोजने का जिम्मा मुझे सौंपा। उस समय हाल यह था कि समूचे विन्ध्य के पिछड़े समाजवाद में पगे थे, जो नेता थे वे काँग्रेस में आने को तैय्यार ही नहीं। तिवारीजी ने जब बार-बार पूछा तो मैंने कह दिया- कोई ढ़ूढे नहीं मिल रहा मुझे ही लड़ा दीजिए।

 

पटेल बताते हैं कि मैं चकित रह गया जब सचमुच ही मुझे टिकट मिल गई वह भी समाजवादी दिग्गज यमुनाशास्त्री के खिलाफ सिरमौर से। शास्त्रीजी मेरे आदर्श थे और उन्हीं के खिलाफ लड़ने को कहा जा रहा था। मैंने यह समस्या शास्त्रीजी के ही समक्ष रख दी। शास्त्री ने मुस्कुराते हुए कहा चुनाव लड़ो राजमणि। चुनाव हुआ शायद देश का यह पहला अजूबा चुनाव होगा जब किसी प्रत्याशी ने पूरे चुनाव में प्रतिद्वंदी प्रत्याशी श्री शास्त्री की सिर्फ प्रशंसा की और वह चुनाव जीत गया। मैंने जीतने के बाद पहला आशीर्वाद शास्त्रीजी से ही लिया। पूरे देश में ऐसे न जाने कितने दृष्टांन्त भरे पड़े होंगे। इंदौर में सुमित्रा ताई और सेठी जी का भी कुछ ऐसा ही प्रसंग है।

 

उपर के दृष्टांतों के बरक्स आज की स्थिति का आकलन करें तो लगता है वक्त ने देश की संसदीय लोकतंत्र की नियति को कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। एक दिन वह भी स्थिति बनेगी जिसका बयान ब्रेख्त साहब अपनी कविता में कर गए…

 

,,अखबार का हाकर सड़क पर चिल्ला रहा था/

कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है/

अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा

और कोई रास्ता नहीं बचा है/

एक रास्ता और है कि

सरकार इस जनता को भंग कर दे

और अपने लिए नई जनता चुन ले ”