बोरे-बासी की चर्चा चौतरफा है। मजदूर दिवस के दिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बोरे-बासी का भोजन कर छत्तीसगढ़ियों के समर्थन का आह्वान किया। इस बासी भोजन का मजदूर दिवस से क्या लेना-देना है यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन इसी बहाने बघेल ने मीडिया में खूब सुर्खियां बटोरीं। शायद राजनीति का कल्ट भी यही है कि बहाना कुछ भी हो चर्चाओं में बने रहो। आजकल नेताओं की न्यूज स्किल के सामने बड़े-बड़े पत्रकार फेल हैं। मुख्यमंत्री बघेल की दिमाग के पीछे मेरे दो पत्रकार मित्र हैं इसलिए मैं समझ सकता हूँ कि कल बस्तर की लाल चीटियों की चटनी भी सर्खियाँ बटोर सकती है और बघेल इसे दुनिया की सबसे स्वादिष्ट आदिवासी डिस घोषित कर सकते हैं।
पिछले दो तीन दिन से गूगल में ‘बोरे-बासी’ की खोज गूगल में ट्रेन्ड कर रही है। गरीब छत्तीसगढ़ियों की भूख की मजबूरी से उपजी इस ‘डिश’ के बारे में मैं पहले से थोड़ा बहुत जानता था। शाम को बचे हुए पके चावल(भात) को फेंकने या मवेशियों को देने की बजाय इसे साफ पीनी में डुबोकर रख दिया जाता है। सुबह इसी को प्याज और मिर्च के साथ खाकर छत्तीसगढ़िए श्रमिक काम पर निकलते हैं। रातभर भीगे रहने से भात का फर्मेंटेशन हो जाता है और वह खटास के साथ मादक और स्वादिष्ट बन जाता है। इस खासियत को समझते हुए खाते पीते लोगों ने इसे चावल के व्यंजन का रूप दे दिया। अब पके हुए चावल को उसी दिन ठंडे पानी में कुछ घंटे के लिए भिगो दिया जाता है तो वह ‘बोरे’ कहलाता है। और बियारी(डिनर) से बचे पानी में डुबोए भात को ‘बासी’ कहते हैं।
अब डाक्टरों, डायटीशियनों ने इसके पोषक तत्वों की मीमांसा कर दी। कैलोरी की गणित से लेकर फाइबर और नाना प्रकार मिनिरल्स, विटामिन्स भी खोज निकाले तथा सुपरफूड का नाम दे दिया। हम विन्ध्य के लोग रोटी-दाल वाले हैं। बचपन में जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो अम्मा सुबह के नाश्ते में घी से चुपर कर बासी रोटी राई के नमक वाले मसाले के साथ देती थी। उस मसाले को केनामन कहा जाता था। बड़े घरों के बच्चे यही बासी रोटी शक्कर मिश्री वाले दूध या मख्खन में डुबोकर खाते थे। बरेदियों(मवेशी चराने वाले हरवाहों के बच्चे) के हिस्से सूखी बासी रोटी आती। किसानिन ज्यादा दरियादिल निकलतीं तो रोटी को अलसी के तेल से चुपर देती और साथ में नमक की एक दो डली दे देतीं। बरेदी इसे और वैल्यूएड कर देते, खरकौनी (मवेशियों के चरने फिरने की जगह) के समीप नदी-नाले-चोंहड़े से मछलियां पकड़ते और कंडे की आग में उसे भूँजकर उसका भर्ता बनाकर चाव से खाते। बरेदी हम बच्चों से ज्यादा हिस्ट-पुस्ट रहते। कबड्डी वगैरह खेलों में हम बच्चों की टीम के सुपर स्टार खिलाड़ी यही लोग रहते।
बासी रोटी, अलसी के तेल और नमक के डर्रे(राकसाल्ट) की महिमा तब समझ में आई जब नागपुर के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डाक्टर विजेता ने मुझे नाश्ते में नियमित बासी रोटी दूध खाने की सलाह दी। बताया कि डायबिटिक और ब्लड-प्रेशर के मरीजों के लिए इससे बेहतर कोई डाइट नहीं। इसके साथ ही रिफाइन नमक की जगह राक साल्ट(डर्रा नमक) और अलसी के चूर्ण(अब कैप्सूल में भी उपलब्ध) को फाँकने की सलाह दी। साथ ही यह हिदायत भी कि आरओ वाटर की जगह नदी, कुएं का पानी पिए और वह न मिले तो म्युनिसिपल की सप्लाई का ही पानी पिए..लेकिन इसे मिट्टी के घड़े में ठंडा करें न कि फ्रिज में..। मैं चकरा गया पहली बार सीधे समझ में आया कि दुनियाभर ही गोल नहीं सभ्यताएं भी गोल होती हैं..मैरीगोराउंड के झूले की तरह अपनी मचिया घूमफिरकर फिर वहीं आती है। खानपान के मामले भी यही क्रम।
भूख ने आदमी को कर्मठ बनाया और स्वाद ने सभ्य। अदलते-बदलते हुए समाज को समझना है तो खानपान की खट्टी-मीठी परंपरा का लुफ्त उठाते रहिए। पिछले दिनों एक निमंत्रण में गया। भोजन का पंडाल और उसमें सजे और आँखों के सामने बन रहे व्यंजनों ने चकित कर दिया। उन व्यंजनों के स्टाल्स ज्यादा भीड़ खींच रहे थे जो किसी जमाने में गरीबों की पहचान के साथ जुड़े थे।
ज्वार-बाजरे की रोटी भुने हुए भँटे,आलू-टमाटर का भुर्ता और लहसुन की चटनी। ऐसे ही देसी व्यंजनों का एक कोना था जहां खबक्कड़ों की भीड़ टूटी पड़ रही थी। सरसों की साग और मक्के की रोटी तो दशकों से अभिजात्ययी थाली का हिस्सा बनी हुई थी।
चिल्ला, चौंसेला अमावट की चटनी के साथ दलभरी पूरी तो थी ही हमारी इंदरहर कब नबाबी शहर भोपाल पहुंच गई पता ही नहीं चला। वैसे इ़दरहर पिछले दस साल से सीएम हाउस के आयोजनों के मीनू में है। बस उत्साही कैटरर ने इदरहर को इंद्राहार बता कर सजा रखा था। हां एक स्टाल में कोडो राइस सजा दिख गया। मैं तत्काल ही समझ गया कि हो न हो ये अपनी कोदई ही होगी। कैडोराइस की बात से अपने विन्ध्य में एक चर्चित किस्सा याद आ गया।
कुछ लोग इसे चंद्रप्रताप तिवारीजी से जुड़ा बताते हैं तो कई लोग रामानंद सिंह जी से। दोनों अपने यहां के समाजवादी दिग्गज रहे हैं। ये दोनों दबंग मंत्री के तौरपर भी याद किए जाते ह़ैं। ये किस्सा गप्प भी हो सकता है पर कहीं न कहीं सुनने को जरूर मिलता है।
किस्सा कुछ यूं है कि एक बार ये मंत्री रहते हुए मुंबई गये। फाइव स्टार होटल में व्यवस्था थी। भोजन के मीनू मेंं राइस के ऊपर कैडोराइस लिखा मिल गया। सो ये कैसा राइस है जानने की जिग्यासा के चलते आर्डर दे दिया जब वेटर ने सजे डोगे म़ें इसे परोसा तो मंत्री जी उछल पड़े- “ससुरी इया कोदइ इंहौ पीछा नहीं छोड़िस”.. तो ये था कैडोराइस का किस्सा जो सत्तर के दशक का था।
मुझे याद है कि साठ-सत्तर के दशक तक गाँव में सामान्य परिवार में कोदौ भोजन का प्रमुख हिस्सा था। चावल मेहमानों के आने पर बनता था। वो भी ऐसा कि रसोई से उठी भीनी महक ही बता देती थी कि जिलेदार बन रहा कि दुबराज, लोनगी, नेवारी है कि सोनखरची। पचास किस्म की धान को तो म़ै़ ही जानता था। अब लुप्तप्राय हैं। प्रकृति विज्ञानी पद्मश्री आचार्य बाबूलाल दाहियाजी इनके संरक्षण म़ें वैश्विक स्तरीय काम कर रहे हैं। उनके पास धान की डेढ़ सौ से ज्यादा देसी प्रजातियां संरक्षित हैं।
कोदौ का किस्सा दाहियाजी से जाना। दाहियाजी की खेतशाला सतना के पिथौराबाद गांव में है, जिसे उन्होंने जैविक खेती में रुचि रखने वालों का तीर्थ बना दिया। यह उनका बडप्पन है कि लोक अन्नों को बचाने के मामले म़ें मुझे अपना प्रेरक मानते हैं। इसकी भी एक कहानी है।
मैं सतना के एक अखबार का संपादक बना तो नवाचार की दृष्टि से लोक संस्कृति को मुख्य विषय बनाया। महान समाजवादी विचारक जगदीश जोशी कहा करते थे कि यदि हम लोक की धरोहरों को नहीं बचा पाए तो विकास के मामले म़े भले ही अमेरिका बन जाए़ पर जिंदगी दरिद्र की दरिद्र ही रह जाएगी। हमारी असली अमीरी लोकस़पदा से ही है।
लोक के विविध कलारूपों के क्षेत्र म़े सरकारी स्तर पर काम हुए लेकिन लोकवृक्षों, लोकअन्नों पर काम नहीं हुआ। लोकवृक्षों में महुआ मुखिया है तो लोकअन्नों म़े कोदौ किसी महरानी से कम नहीं।
दाहियाजी ने लोकअन्नों पर काम शुरू किया। कोदौ से जुडी कहानियों, कहावतों गीत किस्से तो साझा ही किए खुद खेत म़े घुस गए। आज दाहियाजी की खेतशाला में धान, ज्वार, बाजरा, कौदौ, कुटकी, काकुन जैसे विश्वामित्री अन्नों की शताधिक प्रजातियां ह़ै।
विश्वामित्री अन्न..। हां इन्हें विश्वामित्री अन्न ही कहते हैं जो इस भारत देश को भीषणतम अकालों से बचाता आया है। कोदो के बारे म़े तो मान्यता है कि सूखी जमीन पर इसे गाड़ दीजिए दस साल तक जस का तस रहा आएगा। सत्तर के दशक के पहले तक गाँव म़े कौदौ की पैदावार ही बडे़ आदमी होने का पैमाना था। और दूसरे अन्न भी ऐसे है जैसे अपनी परवरिश के लिए किसानों को तंग नहीं करते। बंजर जमीन, कम पानी बिना खाद के पैदा होते हैं। इनमें कीटनाशकों का जहर नहीं मिला होता।
कथा है कि इन्हीं अन्नों की खोज की वजह से गाधि पुत्र विश्व भर के मित्र कहलाए। वहीं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र। इन्होंने ब्रह्मा के समानांतर एक अलग शृष्टि रच दी। राजा त्रिशंकु के लिया नया स्वर्ग बना दिया। इनके सृ्ष्टि की प्रजा खाए क्या इसके लिए देव अन्नों के मुकाबले लोक अन्न पैदा कर दिए।
लोकमान्य के गीता रहस्य में एक प्रसंग है कि एक बार भीषण अकाल म़ें विश्वामित्र को कई दिनों तक भूखा रहना पड़ा। जीवन बचाने के लिए कुत्ते का मांस खाना पड़ा। किसी इस पापकरम के लिए इन्हें टोका तो उसे फटकारते हुए कहा कि यदि जिंदा रहे तो इस अकाल से सबसे पहले निपटेंगे। फिर उन्होंने अकालजयी अन्नों की रचना की।
ये अन्न जिन्हें गरीबों का मोटिया अन्न कहा जाता था आज अमीरों की जरूरत बन गए। कम कैलोरी के अन्नों में चिकित्सक इन्हें ही सुझाते हैं। कुछ दिनों पहले पढा था कह़ी गुजरात के अमीरों के जीवन का सहारा बने गरीबों के मोटिया अन्न। ये ब्लडप्रेशर, डायबिटीज के औषधीय पथ्य ह़ैं। बाबा रामदेव की कंपनी मोटिया अन्न के दलिया, आटे का अरबों का व्यवसाय कर रही है। अमीरों की पार्टियों के मीनू में ये इसीलिए आए।
दुनिया घूमती है चलकर फिर उसी ओर जाना पड़ेगा। हमारी कृषि नीति म़े ये अकालजयी और पौष्टिक अन्न क्यों नहीं। हमें जीटी, बीटी, जीएम, डंकल बीजों का गुलाम क्यों बना दिया गया। इसका विवेचन फिर कभी अभी तो इतना निवेदन कि अपनी रसोई में पहले जैसा फिर इनका स्वागत करिए और पुरखों को धन्यवाद दीजिए कि भले ही हमने उन्हें भुला दिया है वे हमारे पोषण की पहले ही चिंता कर गये हैं।