फिर तेन्दूपत्ता आसमान में (Then Tendu Leaves In The Sky)

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फिर तेन्दूपत्ता आसमान में (Then Tendu Leaves In The Sky);
मध्यप्रदेश की सत्ता की सौंध में तेन्दूपत्ता जब चाहे तब फड़फड़ाने लगता है। विधानसभा चुनाव के डेढ़ साल पहले फिर फड़फड़ा उठा है। यह पत्ता बीड़ी में बदलकर वोटरों जिगर भर को ही नहीं सुलगाता अपितु चुनावी राजनीति भी इससे सुलगती है।
वजह साफ है प्रदेश के 22 फीसद वोटर जिन्हें आप अनुसूचित जनजाति कहा करते हैं उनका चूल्हा इन्हीं पत्तों की वजह से सुलगता है। और यदि चुनाव सामने हों तो इस तेंदूपत्ता के ताप को कौन राजनीतिक दल अपने जिगर में महसूस करने से बचना चाहेगा।
-तेन्दूपत्ते के फड़ में अमित शाह का दाँव
 भीड़ जुटाऊ राजनीतिक जलसे के लिए मशहूर भोपाल के जंबूरी मैदान में 22 अप्रैल को अमित शाह आ रहे हैं। भाजपा के दावे के अनुसार 1 लाख से ज्यादा तेंदूपत्ता संग्राहक यहाँ जुटेंगे। शेष 34 लाख संग्राहक अपने-अपने जिले ब्लॉक में नेट/वीडियो के जरिए इस कार्यक्रम में जीवंत शामिल होकर महसूस करेंगे कि उनकी जेब में किस तरह बोनस के नब्बे करोड़ रुपए डाले जा रहे हैं।
योजना यह है कि सात संभागों के 20 जिले और उनके 89 आदिवासी ब्लाक्स के 15 हजार गाँवों में बसे 1 करोड़ 53 लाख जनजातीय नागरिकों तक सरकार की इस दयालुता को पहुँचाया जाए। मामला चुनावी लोकतंत्र के चाणक्य अमित शाह से जुड़ा है सो समझ सकते हैं कि किसी भी तरह के झोल की गुंजाइश जीरो परसेंट।
एनडीए 0.2 में अमित शाह गृहमंत्री भर ही नहीं हैं, वे सहकारिता मंत्री भी हैं जो गुजरात के सहकार से निकलकर दिल्ली पहुंचे हैं। तेन्दूपत्ता का संग्रहण भी वनवासियों की सहकारी समितियां करती हैं सो यह सहकार अगली सरकार को कितना बोनस दे सकता है यह गुणाभाग भी इस आयोजन के साथ जुड़ा है। वरना गणित के हिसाब से एक संग्राहक को दिया जाने वाला बोनस का हिस्सा 257 रूपये 14 पैसे तो वन परिक्षेत्राधिका फड़मुंशी भी श्रमिकों की जेब में डाल सकता था।
भला 2 हजार प्रति व्यक्ति के ऊपर खर्च करके जंबूरी मैंदान की भीड़ में एक लाख सिर गिनाने की क्या जरूरत पड़ती। सो इस तेंदूपत्ता की सियासत को शुरू से समझने की जरूरत है।
खरसिया से उठा था तेंदूपत्ता का तूफान
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इस वाकए से हमारी पीढ़ी के पत्रकार वाकिफ होंगे जिन्होंने सन् 2000 के पहले भी अखबारनवीसी की है। तेंदूपत्ता किसी नेता के किस्मत की इबारत बदल सकता है, उसे सियासत की भँवर से महफूजियत के साथ निकाल सकता है इसे तीन बार मुख्यमंत्री रहे देश के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह से बेहतर भला और कौन जानता होगा।
 बात 1988 की है। मध्यप्रदेश की राजनीतिक उठापठक के चलते मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उठाकर सीधे दिल्ली बैठा दिया गया। उनकी जगह भेजे गए अर्जुन सिंह। मुख्यमंत्री की शपथ लेने के छह महीनों के भीतर चुनाव जीतकर आने की मजबूरी के चलते एक विधानसभा सीट चुनी गई खरसिया। अब छत्तीसगढ़ के जिले रायगढ़ का छोटा सा नगर तब कांग्रेस का अजेय दुर्ग था। छह बार लगातार विधायक रहे लक्ष्मीनारायण पटेल से इस्तीफा लिया गया ताकि कुँवर साहब आसानी से जीत सकें। लेकिन भाजपा ने जशपुर के राजकुँवर दिलीप सिंह देव को उतारकर मुकाबले को कुरुक्षेत्रीय बना दिया।
तेन्दूपत्ता के सबसे बड़े कारोबारियों में से एक लख्खीराम अग्रवाल भाजपा के घोषित भामाशाह थे। वे इस चुनाव में दिलीप सिंह देव के थैलीदार बने। मुख्यमंत्री पद से हटाए गए मोतीलाल वोरा तमतमाए थे ही उन्हें शुक्ल बन्धुओं(श्यामा-विद्या चरण) का साथ मिला। तेंदूपत्ता के सभी बड़े कारोबारी लख्खीराम की छतरी के नीचे। कांग्रेस का बड़ा और प्रभावी धड़ा अर्जुन सिंह के खिलाफ। अर्जुन सिंह चक्रव्यूह में घिरे अभिमन्यु की भूमिका में थे पर थे तो अर्जुन सिंह ही।
एक रात अपने करीबी नौकरशाहों और विचारक मित्रों के साथ बारह घंटे साधना की। पौं फटते ही उन्हें एक बाण उनकी तूणीर पर आ चुका था। उस दिन की पहली सभा में लक्ष्य देखकर सरसंधान किया और आवेग के साथ छोड़ दिया। वह तीर था मध्यप्रदेश में नई तेंदूपत्ता नीति का। इसके बाद तड़ातड़ हमले किए कि वनवासी दलितों और गरीबों को बीड़ीपत्ता ठेकेदारों के शोषण से बचाएंगे। सरकार और श्रमिकों के बीच कोई बिचौलिया नहीं होगा। श्रमिकों की वनोपज सहकारी समितियां बनेंगी और सीधे सरकार खरीदेगी। मुनाफे का बोनस हम सीधे उनकी जेब में डालेंगे।
दूसरे दिन रायपुर-भोपाल-दिल्ली के अखबारों में सुर्खियों पर था- ‘एक पत्ता आसमान में, सारी सियासत तूफान में। बाद में ‘एक पत्ता आसमान में’ तेन्दूपत्ता नीति के विज्ञापनों की पंच लाइन बनी। खरसिया की गणित ध्वस्त हो गई। अर्जुन सिंह न सिर्फ भारी मतों से जीते वरन् छत्तीसगढ़ में शुक्ल बन्धुओं और मोतीलाल वोरा की जमीन पर अपने वर्चस्व की मेख ठोंककर भोपाल लौटे। लेकिन यही पत्ता नब्बे के चुनाव में फिर खरपतवार में शामिल हो गया जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई।
यहाँ सत्ता का रस्ता बियावानों से गुजरता है
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तेंदूपत्ता तो मध्यप्रदेश की सियासत का प्रतीक मात्र है। शिवराजसिंह चौहान और भाजपा भले ही आठों याम पिछड़ा-पिछड़ा भजती हो पर हकीकत यह है कि यहा सत्ता का रस्ता जंगल के बियावानों से होकर गुजरता है। यकीन न हो तो 2018 के चुनावी आँकड़ों पर गौर करिए।
प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैंं, 33 सीटें ऐसी हैं जहाँ अनुसूचित जनजाति के वोट निर्णायक संख्या में हैं। यानी कि 80 सीटों को अपने हक में करना है तो बिरसा-बिरसा, टन्ट्या-ट्न्ट्या का जप करना होगा और बिना रघुनाथ शाह-शंकरशाह की जय बोले महाकौशल में प्रवेश वर्जित होगा। खैर 2018 के चुनाव में भाजपा को इन 47 सीटों में से मात्र 16 सीटें मिलीं। कांग्रेस के हक में 31 सीटें गईं जिसमें एक जयस की भी शामिल है।
 यदि आदिवासी पट्टी में भाजपा 2013 का प्रदर्शन दोहराती तो कमलनाथ सरकार बनने की कभी नौबत न आती। क्योंकि 2013 के चुनाव में भाजपा ने 31 सीटें जीतीं थी यानी कि 15 सीटें ज्यादा। अब यदि ये 15 सीटें यथावत रहतीं तो 2018 में भाजपा के सिंहासन को हिलाने की कूव्वत किसमें होती।
 अब जो मुश्किल है वो यह कि जयस ने अनुसूचित जनजाति के प्रभाव की सभी 80 सीटों में चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। या हो सकता है कि कांग्रेस से गठबंधन हो जाए। भाजपा की पेशानी पर बल इसलिए भी है कि इसकी काट उसे सूझ नहीं रही है इसलिए इस मिशन में अपने सबसे बड़े चुनावी योद्धा अमित शाह को दाँव पर लगा दिया है।
विगत वर्ष अमित शाह ने जबलपुर में अमर बलिदानी रघुनाथ शाह-शंकरशाह पर केन्द्रित बड़े समारोह में आए थे। इसके बाद से वह सिलसिला गोंड रानी कमलापति और भील नायक टन्ट्या मामा के महिमामंडन तक चलता चला आया। झारखण्ड के वनवासी नायक बिरसा मुंडा की जयंती पर उन्होंने भगवान की भाँति पूजने के सरकारी आयोजन हर साल होने लगे। दरअसल वनवासियों के बीच ईसाई मिशनरियों का जबरदस्त प्रभाव बना हुआ है।
संघ ने वनवासियों के बीच जितना जोरदारी से काम बढ़ाया, मिशनरीज चौगुने फंड, संसाधनों और प्रपोगंड़ा के साथ सामने आ गई। जयस के 80 फीसद युवा नेता ईसाई मिशनरियों की स्कूलों से पढ़कर निकले हैं और उनमें से कई उच्चपदों पर हैं। जयस के कांग्रेस समर्थित विधायक डा.हीरा लाल अलावा स्वयं एम्स में सहायक प्राध्यापक रहे हैं। जयस के एजेन्डे में भी धर्म है लेकिन वह हिन्दुत्व के खिलाफ।
पढ़े लिखे अजजा के युवा आक्रामक तरीके से वैसे ही गाँव-गाँव जाकर अपने वर्ग के लोगों को संगठित कर रहे हैं जैसे कि 80 के दशक में काशीराम ने बामसेफ और डीएस4 के बैनर पर किया था। एक तरह से भाजपा अजजा वर्ग की सुरक्षित सीटें और वोटों पर अब कोई भी दाँव खेल सकती है, इस मिशन की बागडोर अमित शाह को थमाने का मतलब अब सभी को समझ में  आ जाना चाहिए।
आदिवासियों के मामले में अप्रभावी रहे हैं शिवराज
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शिवराज सिंह चौहान जबसे मुख्यमंत्री बने तब से अब तक पिछड़े वर्ग का ही कार्ड खेलते जा रहे हैं। उनका यह एक सूत्रीय फार्मूला अजजा वर्ग में प्रभाव जमाने के आड़े आता है। मध्यप्रदेश में जहाँ भी इस वर्ग की ज्यादा आबादी है वहाँ सबसे ज्यादा असामी और दमदार पिछड़े वर्ग के लोग ही हैं।
 वजह यह वर्ग खेती, पशुपालन, वन और कृषि से जुड़े उद्यमों में अपना वर्चस्व रखता है। और यही  वनवासियों का प्रमुख शोषक भी है। सीबीआर के रिकॉर्ड उठाकर देख लें, 80 फीसद से ज्यादा संघर्ष और व्यक्तिगत अदावतें पिछडे बनाम अजजा के बीच ही हुई हैं। वनवासी वर्ग चुप भले रहे पर समझता सबकुछ है और जो कोरकसर रहती है उसे जयस के पढ़े लिखे युवा समझा देते हैं।
ऐसा नहीं है कि शिवराज ने इस वर्ग को भाजपा के पाले में लाने की कोई कसर छोड़ी हो। 2017 में तेंदूपत्ता संग्राहकों के लिए बोनस के साथ ही आकर्षक घोषणाओं की बौछार सी कर दी। चरणपादुका योजना भी उसमें एक थी। चरणपादुका को उन्होंने भगवान राम से जोड़ा। जगह-जगह की सभाओं में शबरी के प्रसंग भी सुनाए। इस नाम से योजना भी शुरू की।
चरणपादुका योजना में तेंदूपत्ता संग्राहक महिला-पुरुषों को स्वयं जूते चप्पल पहनाए, धोतियाँ और पानी की कुप्पियाँ बाँटी। पर सरकार के भ्रष्ट और सड़े सिस्टम ने इसपर पलीता लगा दिया। बल्लभभवन-विन्ध्या-सतपुड़ा में बैठे अफसरों ने सामग्री खरीदी पर भ्रष्टाचार किया।
घटिया प्लास्टिक के जूते खरीदे गए उनपर किसी आधिकारिक एक्सपर्ट ने यह कह दिया कि प्लास्टिक के ये जूते कैंसर का कारक भी हो सकते हैं। खैरात बाँटने की यह योजना पलट गई और उल्टा असर दिखा गई। यह कहना सही न होगा कि इसका ज्यादा असर 2018 के चुनाव में अजजा वर्ग की आरक्षित सीटों में हार पर पड़ा होगा लेकिन इस वर्ग के भाजपा से सतत् छिटकने के गूढ कारण तो हैं ही। संभव है कि भोपाल की जंबूरी से अमित शाह वैसा ही कुछ सरसंधान करें जैसा कि 88 के निजी राजनीतिक समर में अर्जुन सिंह ने किया था।