Jhooth Bole Kauwa Kaate: महाराष्ट्र में नए ‘नाथ’ के उगने की शपथ

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यह एकनाथ शिंदे के महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने की शपथ नहीं है, यह मातोश्री मुक्त शिवसेना की शपथ है। यह उदयपुर की निंदनीय घटना के आलोक में हिंदुत्व के मुद्दे पर जीरो टालरेंस की शपथ है। यह परिवारवाद की राजनीति को नेस्तनाबूद करने की शपथ है। साथ ही यह महाराष्ट्र और मराठा राजनीति से शरद पवार के अस्त और एक नए ‘नाथ’ के उगने की शपथ है। नौ दिन तक चले शह-मात के इस खेल में मोदी-शाह-नड्डा की तिकड़ी ने इस शपथ से कई निशाने साध लिए।

44 साल पहले शरद पवार ने जिन परिस्थितियों में कांग्रेस-यू और कांग्रेस-आई को तोड़ा और फिर जैसा समर्थन उन्हें जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर की ओर से मिला था, ठीक उसी तर्ज पर महाराष्ट्र में इतिहास दोहराया गया। तब पवार ने सीएम वसंतदादा पाटिल का तख्ता पलटा था। एकनाथ शिंदे ने शिवसेना तोड़ी, महाविकास अघाड़ी सरकार में सेंध लगाई और भाजपा के समर्थन से वह शरद पवार की तरह ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए।

दरअसल, मुख्यमंत्री बनने के लिए उद्धव ठाकरे ने अपने उन भरोसेमंद साथियों को भी हाशिए पर छोड़ दिया जिनके साथ उनके कई दशकों से संबंध थे। जबकि, शिवसेना के विधायकों ने भाजपा के साथ मिल कर एनसीपी और कांग्रेस उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की थी। बताया जाता है कि कई ऐसे मंत्रालय जो कांग्रेस और एनसीपी नेताओं के पास थे, उन मंत्रालयों में शिवसेना के विधायकों की मांगो को अनसुना किया जा रहा था। इस बात की जानकारी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को थी, लेकिन वह भी नजरअंदाज करते थे। शिवसेना विधायकों ने पार्टी मीटिंग में कई बार इस बात का जिक्र किया कि महाविकास अघाड़ी सरकार में शामिल एनसीपी और कांग्रेस के मंत्री उनके क्षेत्र में विकास कार्यों को प्रभावित करते है। विधायकों ने फंड नहीं मिलने का मामला भी उठाया था, लेकिन मुख्यमंत्री के पास विधायकों से मिलने का वक्त नहीं होता था।

दूसरी ओर, अपनी समस्याएं लेकर मुख्यमंत्री के पास आने वाले शिवसेना विधायक सीएम के नहीं मिलने के कारण एकनाथ शिंदे के पास जाते थे और उनसे अपनी नाराजगी साझा करते थे। स्पष्ट है कि शिंदे अधिकांश शिवसेना विधायकों के विश्वासपात्र बन चुके थे। वैसे तो, एकनाथ शिंदे भी नाराज चल रहे थे, क्योंकि उनके शहरी विकास मंत्रालय के कामकाज में आदित्य ठाकरे और उनके करीबी दोस्त लगातार हस्तक्षेप कर रहे थे। शिवसेना में सजंय राउत के बढ़ते कद और बगावत के दौरान उनके भड़काऊ बयानों ने आग में घी का काम किया। बागियों का समर्थन भी बढ़ता ही गया।

शिवसेना से बगावत की नौ दिनों तक चली खींचतान के दौरान उद्धव ने पहले तो बागी विधायकों को धमकाया, फिर घरवापसी के लिए उनसे मिन्नतें की और अंत में अपने इस्तीफे का ऐलान करते हुए विक्टिम कार्ड खेला कि मेरे अपनों ने ही मेरी पीठ में छुरा घोंपा है। उन्होंने कहा, ‘मैं संख्या बल के खेल में शामिल नहीं होना चाहता हूं। जिन लोगों को सेना प्रमुख (बालासाहेब ठाकरे) लेकर आए थे, वे इस बात की खुशी मना रहे हैं कि उन्होंने उनके बेटे को नीचे गिरा दिया। यह मेरी गलती है कि मैंने उन पर भरोसा किया। मैं नहीं चाहता कि मेरे शिवसैनिकों का खून सड़कों पर बहाया जाए। इसलिए मैं मुख्यमंत्री पद और विधान परिषद की सदस्यता से भी इस्तीफा दे रहा हूं।’ उन्होंने कहा, ‘जिन लोगों को खाई में धकेले जाने की शंका थी, वे ही आखिरी वक्त तक मेरे साथ खड़े रहे, जबकि मेरे अपने मेरा साथ छोड़कर चले गए। मैं कांग्रेस और एनसीपी के नेताओं को उनके सहयोग और समर्थन के लिए धन्यवाद देता हूं।

झूठ बोले कौआ काटेः

देवेंद्र फडणवीस 2014 से 2019 तक राज्य में पांच साल तक सरकार चला चुके हैं। उनके पास लम्बा राजनीतिक अनुभव है, लेकिन इसके बावजूद वह इस सरकार में डिप्टी सीएम की भूमिका निभाएंगे। तो क्या मुख्यमंत्री पद का ये बलिदान 106 विधायकों वाली भाजपा ने यूं ही दे दिया। दरअसल, भाजपा ने ये बताने की कोशिश की है कि उसे सत्ता और मुख्यमंत्री पद का कोई लोभ नहीं है। इस फैसले से लोगों के बीच ये संदेश भी गया है कि शिवसेना में बगावत उसकी अंदरूनी राजनीति का नतीजा है। अगर देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बन जाते तो ये संदेश जाता कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने
के लिए शिवसेना को तोड़ा है। एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने सीधे परिवारवाद पर प्रहार किया है। यही नहीं शिंदे के मुख्यमंत्री बनने से उद्धव ठाकरे का शिवसेना पर दावा और कमजोर हो जाएगा। शिंदे ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वो शिवसेना में हैं और ये सरकार शिवसेना और भाजपा की होगी। अर्थात्, सरकार के बाद अब शिवसेना भी मातोश्री की छत्रछाया से निकल जाने का संकट खड़ा हो गया है। अब उद्धव ठाकरे न तो सरकार में हैं और ना ही विपक्ष में हैं, सिद्धांतों से समझौता उनको अंततः महंगा पड़ा।

पालघर में दो साधुओं की हत्या का मामला, औरंगजेब के मजार का मामला, मस्जिदों पर लाउडस्पीकर का मामला, नवनीत राणा दंपति के साथ हनुमान चालीसा को लेकर विवाद में राजद्रोह का मुकदमा, औरंगाबाद का नाम बदलकर संभाजी नगर रखने को लेकर विवाद, हिंदू विरोधी छवि वाले परमबीर सिंह को कमिश्नर बनाना, हिंदुत्व के मुद्दे पर मुखर बॉलीवुड की अभिनेत्री कंगना रानौत के ऑफिस पर बीएमसी के बुलडोजर वगैरह की घटनाओं के चलते हर बार शिवसेना हिंदुत्व की दौड़ में पिछड़ गई।

यही नहीं, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद शिवसेना ने इसका बेमन से स्वागत किया। वीर सावरकर पर कांग्रेस के हमलों का जवाब देने में भी शिवसेना ढीली रहा। बागियों ने हिंदुत्व के मुद्दे पर ही शिवसेना से बगावत की। बागियों का आरोप लगाया कि कांग्रेस और एनसीपी, शिवसेना को खत्म करना चाहती है। जिस मराठी मानुष और हिंदुत्व के मुद्दे पर शिवसेना का जन्म हुआ था। अब वो शिवसेना की पहचान नहीं रही। तो, अब शिंदे सरकार का नेतृत्व करते हुए शिवसेना और समर्थकों को साधेंगे। यही है मातोश्री मुक्त शिवसेना की शुरुआत। संदेश स्पष्ट है कि बाला साहेब ठाकरे की सोच और पार्टी किसी परिवार की जागीर नहीं है, बाला साहेब एक विचार हैं और भाजपा उसका पूरा सम्मान सम्मान करती है। उदयपुर के कन्हैया हत्याकांड ने भी इतना बड़ा फैसला लेने में परोक्ष भूमिका निभायी हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

इसके साथ ही कथित तौर पर संजय राउत के कंधे से बंदूक चलाने वाले मराठा क्षत्रप और राजनीति के चाणक्य शरद पवार का मराठा-सूर्य भी अस्त हो जाए तो भी आश्चर्य नहीं, क्योंकि एकनाथ शिंदे स्वयं एक मराठा हैं। महाराष्ट्र में 31 फीसदी मराठा वोटर हैं। भाजपा काफी वक्त से किसी मराठा नेता की तलाश में थी। देवेंद्र फडणवीस को सीएम बनाया जाता तो शिवसेना कह सकती थी कि मराठा के ऊपर एक ब्राह्मण को तवज्जो दी गई। संजय राउत जैसे लोग दावा कर रहे थे कि भाजपा किसी हाल में एकनाथ शिंदे को सीएम नहीं बनाएगी। ऐसे में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाते ही भाजपा ने शिवसेना के विरोध की सारी सियासत की हवा निकाल दी।

और ये भी गजबः

80 के दशक में शिवसेना के साथ जुड़ने से पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ऑटो रिक्शा चलाते थे। इसके अलावा घर चलाने के लिए शराब कारखाने में भी नौकरी कर चुके हैं। शिंदे के चुनावी हलफनामे से पता चलता है कि उनके पास 2.50 लाख रुपये की एक रिवॉल्वर है तो 2.25 लाख रुपये की एक पिस्टल भी उनकी संपत्ति का हिस्सा है। शिंदे महाराष्ट्र के सतारा जिले के पहाड़ी जवाली तालुका के रहने वाले हैं। उन्होंने ठाणे में रहकर 11वीं कक्षा तक पढ़ाई की और फिर ऑटो रिक्शा चलाने लगे। 80 के दशक में एकनाथ शिंदे शिवसेना के साथ जुड़ गए और शिवसैनिक के तौर पर अपने सियासी सफर की शुरुआत की। एकनाथ शिंदे 1997 में ठाणे महानगर पालिका से पार्षद चुने गए और 2001 में नगर निगम में विपक्ष के नेता बने। वहीं दूसरी बार पार्षद चुने जाने के बाद शिंदे ने विधायक का चुनाव लड़ा और जीत गए। एकनाथ शिंदे ठाणे की कोपरी-पंचपखाड़ी सीट से 2004 में पहली बार विधायक चुने गए. इसके बाद वे 2009, 2014 और 2019 में भी विधानसभा सदस्य निर्वाचित हुए। ठाणे इलाके में शिवसेना के दिग्गज नेता आनंद दीघे का 2000 में निधन हो गया। इसके बाद शिंदे आगे बढ़े और उनकी गिनती ठाणे जिले में शिवसेना के सबसे प्रभावशाली नेताओं में होने लगी।