आतंकी यासीन मलिक को सजा पर आप आमतौर पर मौन हैं तो ज्ञानवापी, शाही मस्जिद या अन्य मामलों में खूब मुखर हैं। अब तक आपने सड़क तक पर नमाज पढ़ी है, वंदेमातरम, लाउडस्पीकर, शाहीन बाग, हिजाब आदि मुद्दों पर अपने मन की ही की है। आपको अनुकूल लगता है तो 1991 के प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की दुहाई दे रहे हैं जबकि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) पर खूब हंगामा काटते रहे हैं। क्या आपको लगता नहीं है कि अभी तो 8 से 10 प्रतिशत हिंदु ही आपकी चाल-ढाल की प्रतिक्रिया में सड़कों पर हनुमान चालीसा पढ़ने और मंदिरों का विध्वंस कर बनाए गए मस्जिदों को हटाने की मांग तीव्रता से कर रहे हैं, कहीं ये आंकड़ा 25-30 प्रतिशत तक पहुंच गया तब क्या होगा?
जी, आपकी ही बात कर रहा। आप अर्थात् मुस्लिम भाई। वोट बैंक की खातिर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले धार्मिक संगठनों-दलों और नेताओं, या टीआरपी बटोरने वाली मीडिया के चक्कर में पड़ने की बजाय उचित-अनुचित के बारे में स्व-विवेक से निर्णय करें। क्या आपको लगता नहीं कि किसी मस्जिद का नाम ज्ञानवापी कैसे हो सकता है? क्या कुरान में कहीं लिखा है कि नमाज अता करने के लिए मस्जिद अनिवार्य है? क्या औरंगजेब जैसे मुगल आक्रांताओं का समर्थन उचित है?
न-न, मैं डरा नहीं रहा। मैं तो उस आसन्न खतरे की आहट सुन रहा जिसे आप कट्टरपने, उन्माद या अंधविरोध में नहीं सुन पा रहे। न तो ये 1947 वाला भारत है, न ही तुष्टिकरण को पालने-पोसने वाला शासन या राष्ट्र नियंता। आप ये भी आरोप नहीं लगा सकते कि मुफ्त राशन, प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्जवला योजना, किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत योजना आदि-इत्यादि के लाभार्थी के रूप में आपके साथ कोई भेदभाव किया जा रहा। तो फिर, आप बहकावे-उन्माद में क्यों आ रहे हैं? भाईचारा की पहल आप क्यों नहीं कर सकते, गंभीरता से सोचिए। य़े आपकी कमजोरी नहीं, एक ऐसी पहल सिद्ध हो सकती है कि आगे के ढेर सारे विवादों की चिंगारी को समय रहते शांत कर दे।
बोले तो, यासीन मलिक को पूर्व रक्षा मंत्री की बेटी का अपहरण, उसके बदले 5 आतंकियों की रिहाई, एयरफ़ोर्स अफसरों की हत्या, कश्मीरी हिन्दुओं का पलायन, नरसंहार जैसे आरोप लगने के बाद भी भारतीय मीडिया के एक खेमे ने उसे कश्मीर का रॉबिनहुड बना दिया था। साल 2008 में एक मीडिया समूह ने यासीन मलिक को अपने टीवी चैनल के शो में खास मेहमान के रूप में शामिल किया था।
इस मीडिया हाउस ने इस आतंकी को देश की जनता के सामने ‘युवा चेहरे’ के रूप में पेश किया था। कतिपय अन्य भारतीय पत्रकारों ने भी यासीन को समय-समय पर महिमामंडित किया। विदेशी मीडिया भी कहां पीछे रहने वाली थी। यासीन ने विदेशी मीडिया के सामने कश्मीर के हिन्दू जज नीलकंठ गंजू की सरेआम हत्या करने की बात को स्वीकार किया था। गंजू को जेकेएलएफ आतंकियों ने इसलिए मारा था क्योंकि उन्होंने आतंकी मकबूल भट्ट को सजा-ए-मौत दी थी। इसी इंटरव्यू में यासीन ने चार एयरफ़ोर्स अधिकारियों की हत्या की बात में ठहाके लगाए थे और हत्या के आरोपों को स्वीकार किया था।
यासीन मलिक जैसे आतंकी अलगाववादी नेता को कांग्रेस सरकार में पाकिस्तान के साथ बातचीत का ब्रांड एंबेसडर बनाया गया। 2006 में यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने जेकेएलएफ चीफ यासीन मलिक की पीएम आवास में अगवानी की। यासीन मलिक के साथ पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की मुस्कुराने वाली तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहे हैं। यही नहीं, यासीन के साथ वामपंथी लेखक अरुंधति राय की तस्वीर भी खूब वायरल हो रही है। इस तस्वीर का इस्तेमाल अप्रत्यक्ष रूप से ‘द कश्मीर फाइल्स’ में भी किया गया है.
अब, पाकिस्तान की यासीन मलिक को सजा के फैसले के खिलाफ बयानबाजी तो समझ में आती है। यासीन को सजा के एलान से भड़की बीवी मुशाल का गुस्सा कि आखिरी सांस तक कश्मीर की लड़ाई जारी रहेगी, ये बात भी समझ आती है। हालांकि, ये भड़काऊ बयान खुद को बाल-बच्चों सहित पाकिस्तान में सुरक्षित रख कर देने की बातपर हंसी भी आती है। ऐसे ही पाक क्रिकेटर आफरीदी का बौराना समझ आ रहा है, भारत में वोट बैंक की राजनीति करने वाले दलों और बड़बोले नेताओं की खामोशी भी समझ आ रही है लेकिन भारतीय मुस्लिमों की आमतौर पर चुप्पी से क्या ये नहीं लगता कि वे देश के साथ नहीं मजहब के साथ खड़े हैं।
ज्ञानवापी पर 1936 का फैसलाः ज्ञानवापी परिसर को लेकर सबसे पहला मुकदमा 1936 में दीन मोहम्मद बनाम राज्य सचिव का था। तब दीन मोहम्मद ने निचली अदालत में याचिका दायर कर ज्ञानवापी मस्जिद और उसके आसपास की जमीनों पर अपना अधिकार बताया था। अदालत ने इसे मस्जिद की जमीन मानने से इनकार कर दिया था। इसके बाद दीन मोहम्मद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की। 1937 में हाईकोर्ट ने मस्जिद के ढांचे को छोड़कर बाकी सभी जमीनों पर वाराणसी के व्यास परिवार का हक जताया और उनके पक्ष में फैसला दिया। सुनवाई में इसे नजरअंदाज करना शायद मुश्किल हो।
उधर, भाजपा नेता और सुप्रसिद्ध वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में एक नई याचिका दायर की है। याचिका में कहा गया है कि 1991 का कानून किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप को निर्धारित करने से नहीं रोकता। इसके अतिरिक्त इस्लामिक सिद्धान्तों के आधार पर भी देखे तो मन्दिर तोड़कर बनाई गई कोई भी मस्जिद वैध नहीं हो सकती। याचिका के मुताबिक एक बार मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो जाने पर जब तक कि विसर्जन की प्रकिया द्वारा मूर्तियों को वहां से हटाया न जाए तब तक उसका वह स्वरूप मौजूद माना जाता है।
झूठ बोले कौआ काटेः मुसलमानों के एक प्रमुख संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुसलमानों की इबादतगाहों को कथित रूप से निशाना बनाए जाने पर केन्द्र की मोदी और प्रदेश की योगी सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने की तो मांग की है, लेकिन वह इतिहास पढ़ने और मुसलमानों को यह बताने को तैयार नहीं है कि जिन विवादित धार्मिक स्थलों को वह मुसलमानों के पवित्र इबादतगाह बता रहे हैं, दरअसल उसे मुगल शासकों ने हिन्दुओं के प्रमुख मंदिरों को तोड़कर इबादतगाह में बदला था, जो पूरी तरह से गैर-इस्लामी कदम था।
यही नहीं, बोर्ड ने ज्ञानवापी मस्जिद मामले में मस्जिद इंतजामिया कमेटी और उसके वकीलों को विधिक सहायता मुहैया कराने का फैसला किया है। बोर्ड के नुमांइदे बता रहे हैं कि वर्ष 1991 में संसद में सबकी सहमति से बनाए गए पूजा स्थल अधिनियम की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं तो इस हिसाब से तो सीएए/ एनआरसी, तत्काल तीन तलाक पर बनाए गए कानून का भी विरोध नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह कानून भी तो संसद में ही बने हैं।
दरअसल, 1973 में तत्कालीन इंदिरा गांधी ने सेक्युलर भारत में मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए स्वयं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना की थी। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए इंदिरा गाँधी के विशेष नियम भी बनाया। इस संस्था का आज तक कभी ऑडिट नहीं हुआ है, इसे विशेष छूट मिली हुई है। बोर्ड के पास अरब देशों से कितना पैसा आता है, उस पैसे का वह क्या करता है, किसी को कुछ नहीं पता। यह बोर्ड कभी इस बात को लेकर चिंतित नहीं होता है कि उसकी कौम कैसे आगे तरक्की करे, बच्चे पढ़ें-लिखें, मुस्लिम महिलाओं को उनका अधिकार मिले, बच्चियां स्कूल जाएं, मदरसों में सुधार हो?
औऱ ये भी गजबः मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा शहर की गली-चौराहों पर भीख मांगकर गुजारा करने वाला एक भिखारी इन दिनों चर्चा में बना हुआ है, क्योंकि उसने 4 साल तक एक-एक रुपया जोड़कर 90 हजार का एक खास तोहफा अपनी पत्नी को देकर खुश कर दिया है। भीख मांगते वक्त ट्राइसाइकिल को धक्का लगाने में पत्नी को परेशानी होती थी। इसलिए उसने अपनी जमांपूंजी से एक मोपेड खरीदी और उसे गिफ्ट कर दिया। जिससे उसे कोई परेशानी नहीं हो। यह कहानी छिंदवाड़ा में भीख मांगने वाले दिव्यांग संतोष साहू की है। जिसने इसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट भी किया, जो काफी वायरल हो रहा है।
बता दें कि भिखारी संतोष मूल रुप से अमरवाड़ा के रहने वाले हैं। पति-पत्नी भले ही आर्थिक रूप से कमजोर हैं। संतोष दोनों पैरों से दिव्यांग है। इसलिए वह छिंदवाड़ा बस स्टैंड पर रोजाना भीख मांगता है। साथ में उसकी पत्नी भी भीख मांगती है। दोनों इसी तरह अपना गुजारा करते हं। वह रोजाना करीब 300 से 400 रुपए कमा लेते हैं। बता दें कि संतोष पहले भी बार कोड से भीख लेकर सुर्खियां बटोर चुका है।