न्याय और कानून: पवित्र व्यवस्था के लिए चुनाव का हिसाब रखना जरुरी

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राजनीतिक पार्टियों एवं उम्मीदवारों को चुनाव में खर्च की गई राशि का हिसाब रखना जरुरी है, ताकि निर्धारित लक्ष्मण रेखा को पार न किया जा सके। यह अकाट्य रूप से प्रमाणित होना आवश्यक है कि चुनाव में निर्धारित खर्च की सीमा को पार नहीं किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह भी माना है कि एक से अधिक स्थानों से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को कानून में प्रावधान न होने से रोका जाना संभव नहीं है।

मुंबई उच्च न्यायालय के समक्ष चुनाव आयोग द्वारा ऐसे नियम बनाए गए हैं, जिनके द्वारा राजनीतिक दलों के लिए उनकी आय और व्यय का हिसाब रखना आवश्यक है। चुनाव आयोग की यह भी जवाबदारी है कि वह यह देखे कि चुनाव में राजनीतिक दल एवं उम्मीदवार के द्वारा वास्तव में कितनी राशि चुनाव पर खर्च की गई है। इस संबंध में दसवीं लोकसभा के लिए महाराष्ट्र के उम्मीदवार दत्ताजी मेघे प्रकरण महत्वपूर्ण है। इस प्रकरण में प्रस्तुत अपील को निरस्त करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्राप्त चंदे और कूपनों की बिक्री का हिसाब रखना निर्वाचन प्रक्रिया की पवित्रता को बनाए रखने के दृष्टिकोण से राजनीतिक दलों के लिए आवश्यक है।

सर्वोच्च न्यायालय ने विधायिका तथा चुनाव आयोग को अपने इस फैसले में निर्देशित किया था कि वह ऐसे नियम बनाए जिसके द्वारा राजनीतिक दलों के लिए उनकी आय और व्यय का हिसाब रखना आवश्यक हो जाए। न्यायालय की राय में ऐसा होने पर ही वह यह तय कर सकेगी कि चुनाव में राजनीतिक दल के माध्यम से वास्तव में कितना धन खर्च हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निर्वाचन प्रक्रिया की शुद्धता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाना अत्यंत आवश्यक है। कोई भी चुनाव याचिका केवल जीतने अथवा हारने वाले उम्मीदवारों का आपसी मामला ही नहीं होता है। इसमें आम जनता की भी दिलचस्पी होती है। कोई भी चुनाव प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग है।

उच्चतम न्यायालय अपने पूर्व के कई फैसलों में यह कह चुका है कि भ्रष्ट आचरण का अभियोग चूंकि ऐसा अर्ध-आपराधिक आरोप होता है जिसके कारण न केवल निर्वाचित उम्मीदवार का चुनाव निरस्त हो सकता है बल्कि उसे आगे के चुनावों में हिस्सा लेने से अपात्र भी घोषित किया जा सकता है। इसलिए ऐसे आरोप ठोस तथ्यों पर आधारित होने चाहिए। इन्हें प्रमाणित करने की जवाबदारी याचिका प्रस्तुत करने वाले की होती है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123 (6) के अनुसार भ्रष्ट आचरण को प्रमाणित करने की मुख्य जवाबदारी याचिकाकर्ता की ही होती है। लेकिन सुनवाई के दौरान निर्वाचित उम्मीदवारों का भी यह कर्तव्य होता है कि वह शपथ पूर्वक उन आरोपों से इंकार करते हुए भ्रष्ट आचरण के आरोपों को असत्य होने को साबित करें।

भ्रष्ट आचरण को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (6) के प्रावधानों के तहत याचिकाकर्ता को यह स्पष्ट तथा अकाट्य रूप से प्रमाणित करना चाहिए कि चुनाव प्रचार तथा विज्ञापनों पर हुआ व्यय उसके द्वारा किया गया था अथवा उसकी रजामंदी से किसी राजनीतिक दल या किन्हीं व्यक्तियों/संस्थाओं द्वारा किया गया है। निर्वाचन के तुरन्त बाद संबंधित व्यक्तियों व संस्थाओं के प्रति आभार व्यक्त करने वाला विज्ञापन धारा 77 तथा 123 के प्रावधानों के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण में नहीं आता है। धारा 77 की व्याख्या यहां इसलिए लागू नहीं होती है, क्योंकि यह धन्यवाद विज्ञापन के पूर्व प्रकाशित करवाया जाना संभव नहीं है।

इस संबंध में सुखद पहलू यह भी है कि चुनाव व्यय एवं राजनीतिक पार्टियों द्वारा रखे जाने वाले हिसाब के संबंध में प्रस्तुत प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय निरंतर अपनी चिंता व्यक्त करती रही है तथा आवश्यक निर्देश चुनाव आयोग को देती रही है जिनके कारण चुनाव आयोग भी नियमों में निरंतर सुधार एवं संशोधन करता रहा है। इस कारण स्वाभाविक रूप से राजनीतिक पार्टियों तथा उम्मीदवारों पर कुछ नियंत्रण संभव हो सकता है। यह बात दूसरी है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार इस सिद्धांत का कठोरता से पालन करती है कि सरकार का काम नियम बनाना है तथा जनता का काम उसके रास्ता खोजना है। चुनावों में मोटे तौर पर इसी सिद्धांत का पालन किया जाता है। चुनाव में कई उम्मीदवार एक से अधिक स्थानों से चुनाव लड़ते हैं। बाद में दोनों स्थानों से जीतने पर एक स्थान से त्यागपत्र देते हैं। इस कारण त्यागपत्र देने वाले स्थान से फिर चुनाव करवाना मजबूरी होती है। यह जनता के धन व समय का अपव्यय है। एक अर्से से यह प्रश्न भारतीय जनमानस को परेशान करता रहा है। लेकिन चुनाव से संबंधित प्रावधानों में इसे रोकने का कोई प्रावधान न होने से इसे रोका जाना संभव नहीं है।

इस संबंध में सन 1966 के लोकसभा चुनावों में एक ही व्यक्ति द्वारा एक साथ एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने को संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन चुनौती देने हेतु याचिका मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई थी। इस याचिका को निरस्त करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से अपात्र बनाने के नियम भी विधान या विधायी अधिसूचना द्वारा निर्धारित होते हैं। इस कारण अदालतों को उन्हें बदलने अथवा संषोधित करने का अधिकार नहीं है। यह लोकहित याचिका यह षिकायत करते हुए प्रस्तुत की गई थी कि एक ही व्यक्ति द्वारा एक से अधिक स्थानों से चुनाव लड़ने के कारण उपचुनाव जरूरी हो जाते है। इससे होने वाले दुहरे खर्च का वहन इस गरीब देष को अकारण ही करना होता है। इसे रोका जाना चाहिए।

उच्च न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि यह एक गंभीर समस्या है। इसके अलावा एक ही स्थान से अनेकानेक उम्मीदवारों का चुनाव लड़ना भी चिंतनीय विषय है। लेकिन, न्यायालय तब तक कुछ नहीं कर सकती है जब तक कि कानून में उपयुक्त परिवर्तन या संशोधन न कर दिए जाए। न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता संविधान अथवा जनप्रतिनधित्व कानून में ऐसा किसी भी कानून अथवा प्रावधान का संकेत तक नहीं दे पाए जो किसी प्रत्याशी को एक से अधिक चुनाव क्षेत्र से खड़े होने को प्रतिबंधित करता हो। न्यायालय सरकार को ऐसा कोई कानून बनाने को आदेषित नहीं कर सकता जो इस स्थिति से निपट सके। उच्च न्यायालय ने प्रस्तुत याचिकाओं को खारिज करते हुए यह स्मरण कराया कि भारत की जनता ने जिस संविधान को स्वयं के लिए अंगीकार किया है, उसमें सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय सुनिश्चित किया गया है। इस कारण अब यह उसी जनता का काम है कि वह सरकार से इस विषय में यदि यह उसे उचित लगे तो सरकार से इस संबंध में कार्यवाही की मांग करे।