न्याय और कानून: न्यायाधीश का तबादला न्यायिक दखल का मामला नहीं

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न्याय और कानून: न्यायाधीश का तबादला न्यायिक दखल का मामला नहीं

 

– विनय झैलावत

 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसी बुधवार वह जनहित याचिका (पीआईएल) खारिज कर दी, जिसमें जले नोट मिलने के मामले में पूरे देश में चर्चित न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को दिल्ली उच्च न्यायालय से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने को चुनौती दी गई थी। न्यायमूर्ति अताउरहमान मसूरी और न्यायमूर्ति अजय कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि इस जनहित याचिका में कोई दम नहीं है। न्यायालय ने कहा कि स्थानांतरण, शपथ दिलाना और न्यायाधीश का कामकाज संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के साथ अनुच्छेद 217 (1) (बी) के तहत संरक्षित कार्यकाल के सहवर्ती हैं। एक बार जब रिट याचिका में लगाई गई अधिसूचना कानून की नजर में सही साबित हो जाती है, तो सहवर्ती भाग को चुनौती देना भी समान रूप से संरक्षित है, बशर्तें प्रक्रिया का पालन किया जाए।

न्यायालय ने कहा कि वह ऐसे मामलों में न्यायिक पक्ष में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। पीठ ने कहा कि कानून के तहत उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद लिए गए ऐसे सभी निर्णय (न्यायाधीशों के स्थानांतरण और नियुक्तियों के संबंध में) गैर-न्यायसंगत हैं। क्योंकि, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के साथ अनुच्छेद 217 (1) (बी) के तहत संरक्षित है। हमें नहीं लगता है कि हमारे सामने बताए गए किसी भी आधार को सही ठहराया जा सकता है, खासकर तब जब इस न्यायालय के समक्ष उठाया गया मुद्दा गैर-न्यायसंगत है।

न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीश के कार्यकाल की सुरक्षा न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हिस्सा है, क्योंकि वह राज्य का अंग है। इसलिए इस न्यायालय के रिट क्षेत्राधिकार का हवाला देते हुए विवादित कार्रवाई के विरूद्ध कार्यवाही करना वस्तुतः कार्यकाल पर प्रश्न उठाने के अलावा और कुछ नहीं है। इसके बारे में संसद के दोनों सदनों में कार्यवाही निर्णायक बनी हुई है। लेकिन, हमारे संज्ञान में ऐसा कुछ भी नहीं लाया गया, जिससे न्यायोचितता आ सके। न्यायालय यह भी जोड़ना चाहता है कि चर्चा का विशेषाधिकार संसद के दोनों सदनों के परिसर के भीतर ही है, उससे बाहर नहीं है।

न्यायमूर्ति वर्मा का इलाहबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरण विवादों में घिरा रहा। यह स्थानांतरण उनके दिल्ली स्थित आवास पर एक छोटी सी आग बुझाने के लिए पहुंचे अग्निशमन कर्मियों द्वारा बेहिसाब नकदी बरामद किए जाने के बाद हुआ। भ्रष्टाचार के आरोपों और भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना द्वारा मामले की आंतरिक जांच के आदेश के बीच, सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम ने न्यायमूर्ति वर्मा को दिल्ली उच्च न्यायालय से इलाहबाद उच्च न्यायालय (उनकी मूल अदालत) में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। उत्तर प्रदेश के वकीलों ने इस तबादले का कड़ा विरोध किया था। हालांकि, केंद्र सरकार ने आखिरकार कॉलेजियम के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी और न्यायमूर्ति वर्मा ने 5 अप्रैल को इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रूप में शपथ ली।

हालांकि, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार, न्यायमूर्ति वर्मा को फिलहाल कोई न्यायिक कार्य नहीं सौंपा गया है। इन्हीं विवादों के मध्य न्यायमूर्ति वर्मा के तबादले का विरोध करते हुए अधिवक्ता विकास चतुर्वेदी द्वारा उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की गई। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि न्यायमूर्ति वर्मा के तबादले ने भारत के संविधान का उल्लंघन किया है। हालांकि, न्यायालय ने इसे नहीं माना और अंततः याचिका खारिज कर दी। इसमें कहा गया कि हमें कोई प्रक्रियागत अनियमितता या अवैधता नहीं दिखती है। जिस कार्रवाई पर आपत्ति की जा रही है, वह पीड़ित पक्ष के कहने पर भी कानून की नजर में अस्वीकार्य हो सकती है।

न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के दिल्ली स्थित सरकारी आवास के स्टोर रूम में जली हुई नकदी मिलने का मामला बीते दिनों जबरदस्त सुर्ख़ियों में रहा था। इस मामले में जांच के लिए तीन न्यायाधीशों का एक पैनल बनाया गया था। यह पैनल लगातार कई लोगों से पूछताछ कर रहा है। पैनल ने शुक्रवार को दिल्ली पुलिस के कमिश्नर संजय अरोड़ा और नई दिल्ली जिले के डीसीपी देवेश कुमार महला के भी बयान दर्ज किए हैं। जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास से जले हुए नोटों की बोरियां मिलने के बाद जोरदार विवाद पैदा हो गया था।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बार एसोसिएशन ने इस ट्रांसफर का कड़ा विरोध किया गया। बार का कहना था कि यह भारत की न्यायपालिका का सबसे काला दिन है जब भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे एक जज को इलाहबाद उच्च न्यायालय ट्रांसफर कर दिया गया है। जस्टिस वर्मा का ट्रांसफर किए जाने के विरोध में बार एसोसिएशन ने बेमुद्दत हड़ताल की थी। हालांकि, बाद में सीजेआई संजीव खन्ना के आश्वासन के बाद उन्होंने हड़ताल स्थगित कर दी थी।

इस बीच, जस्टिस यशवंत वर्मा ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज के रूप में शपथ ले ली। हालांकि, जस्टिस वर्मा को तब तक कोई न्यायिक कार्य नहीं सौंपा जाएगा, जब तक उनके खिलाफ चल रही इन हाउस इंक्वारी पूरी नहीं हो जाती। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जस्टिस वर्मा वरिष्ठता के मामले में छठे स्थान पर हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय में उनकी वरिष्ठता दूसरी थी। जस्टिस वर्मा को किसी सार्वजनिक कार्यक्रम के बजाए, एक प्राइवेट चैंबर में शपथ दिलाई गई। देखना होगा कि इस मामले में पैनल कब तक अपनी जांच पूरी करता है और जांच का क्या नतीजा निकलता है!

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि वह ऐसे मामलों में न्यायिक पक्ष का हस्तक्षेप नहीं कर सकती। खंडपीठ ने कहा कि स्थानांतरण, शपथ का प्रशासन और न्यायाधीश का कामकाज भारत के संविधान के अनुच्छेद 217 (1) (बी) के साथ पठित अनुच्छेद 124 (4) के तहत संरक्षित कार्यकाल के सहवर्ती हैं। एक बार जब रिट याचिका में आक्षेपित अधिसूचना कानून की नजर में अच्छी हो जाती है, तो सहवर्ती भाग को चुनौती समान रूप से संरक्षित होती है, बशर्तें प्रक्रिया का पालन किया जाए।

पीठ ने कहा कि कानून के तहत उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद लिए गए ऐसे सभी निर्णय (न्यायाधीशों के स्थानांतरण और नियुक्तियों के संबंध में) गैर-न्यायसंगत हैं। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के साथ अनुच्छेद 217 (1) (बी) के तहत संरक्षित है। हम यह नहीं पाते हैं कि हमारे सामने आग्रह किए गए किसी भी आधार में कोई बल है। विशेष रूप से तब जब इस अदालत के समक्ष उठाया गया मुद्दा गैर-न्यायसंगत है।

न्यायालय ने कहा कि कार्यकाल का संरक्षण राज्य के एक अंग के रूप में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का एक हिस्सा है। इसलिए, विवादित कार्रवाई के खिलाफ इस न्यायालय के रिट अधिकार क्षेत्र का आह्वान करना वस्तुतः उस कार्यकाल पर सवाल उठाने के अलावा और कुछ नहीं है। इसके बारे में संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही निर्णायक बनी हुई है। लेकिन, न्यायसंगतता को आकर्षित करने वाला कुछ भी हमारे संज्ञान में नहीं लाया गया है। अदालत जल्दबाजी में यह जोड़ सकती है कि चर्चा का विषेषाधिकार संसद के दोनों सदनों के दायरे में है न कि उससे आगे।

याचिका में कहा गया कि जब कोई न्यायाधीश शपथ लेता है, तो वह अपने पद के कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करने की शपथ लेता है। याचिकाकर्ता ने कहा कि इसलिए, शपथ लेने के बाद न्यायमूर्ति वर्मा से न्यायिक कार्य रोकने का निर्णय इसकी संवैधानिक पवित्रता को कम करता है। इससे प्रक्रिया केवल औपचारिकता तक कम हो जाती है। यहां देखना दिलचस्प होगा की न्यायमूर्ति वर्मा के मामले में अब किस तरह निराकरण किया जाता है। पूरा देश बारीकी से इस मामले को देख रहा है।