story first installment ; अनुगूँज

844
सुधा ओम ढींगरा
तापमान इतना गिर गया कि बारिश, बर्फ़ बन कर बरस रही है। रुई जैसी नहीं, शीशे जैसी। उसके लिए यह सब अचम्भित करने वाला है। कुछ दिन पहले उसने रुई की तरह बर्फ़ गिरते देखी थी और अब चारों ओर छोटे-छोटे शीशे ज़मीन पर चमक रहे हैं। गगन की नीलिमा गहरी हो चुकी है। हर तरफ़ घुसपुस है। घास, पेड़, पौधे और पहाड़ क्रिस्टल के दिखाई दे रहे हैं, जैसे किसी ने खुद बना कर वहाँ जड़ दिए हों। वह उन्हें छूना चाहती है। उसे डर है कि चप्पल पहन कर घास पर चलेगी तो शीशे की घास टूट जाएगी। उसने चप्पल उतार दी है। नंगे पाँव उसने घास पर क़दम रखा। पाँव की तलियों से ठण्ड की सिहरन शरीर में लहरा गई। वह पेड़ों को, पत्तियों को झिझकते हुए छूने लगी कि कहीं वे टूट न जाएँ। फिर वह पहाड़ की ओर बढ़ी और उस पर चढ़ने का प्रयास करने लगी। चढ़ नहीं पाई…शीशे के पहाड़ पर हाथ और पाँव टिक नहीं रहे….तो भी वह बार-बार उस पर चढ़ने की कोशिश कर रही है, और बार-बार विफल हो रही है। उसे अपनी निराशा का एहसास हो गया है। शीशे के पहाड़ पर चढ़ने का फितूर उस पर तारी है…पता नहीं क्यों वह स्वयं को रोक नहीं पा रही।
‘तड़ाक’ की आवाज़ आई। वह घबरा गई……’तड़ाक’….की फिर आवाज़ आई और साथ ही उसे किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। उसे वह आवाज़ कहीं दूर से आती महसूस हुई। उसे शीशे का रमणीय स्थल मायाजाल लगने लगा। उसे यहाँ से निकलना चाहिए और वह तेज़ी से वापिस मुड़ी। घबराहट में उसके पाँव घास पर टिक नहीं पाए और वह फिसल कर गिर गई और हाँफने लगी; गहरी-गहरी साँसें नींद में वह ले रही है। स्वप्न में पैदा हुए भय से उसके माथे पर पसीने की बूँदे उभर आईं।
‘गोरी चमड़ी की तो चूमा- चाटी होती है और मुझे थप्पड़ मारे जाते हैं। अगर मार्था के साथ ही रहना है, तो मुझ से शादी क्यों की? घर की नौकरानी बनकर मैं नहीं रहूँगी। मुझे तलाक चाहिए….।’- बिलख रही गुरमीत की आवाज़ घर की लॉबी से आ रही है। उसकी नींद टूट गई और साथ ही वह स्वप्न। उसने अपनी छाती पर हाथ रख कर साँसों को सम्भाला। घड़ी में समय देखा। रात के तीन बजे हैं। उसने पलंग पर करवट बदली, उसका पति पम्मी वहाँ नहीं है। वह अभी तक घर नहीं आया। उसने अपने माथे का पसीना पोंछा।
उसका जेठ सुखबीर ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा है-‘इस घर में तलाक नहीं होते। तलाक तो तुम्हें कभी नहीं मिलेगा। तुम्हें इसी घर में जीना-मरना होगा। समझीं। किसी ग़लतफ़हमी में न रहना।’
उसकी जेठानी गुरमीत उग्र हो गई-‘तलाक तो तेरा बाऊ भी देगा। मार्था ही तुम्हारे लिए सब कुछ है, तो मेरा जीवन क्यों बर्बाद किया। पाँच सालों के एक-एक पल का हिसाब कोर्ट में लूँगी।’ उसका कहना बीच ही में रह गया; ताबड़ तोड़ लातें घूँसे उसे पड़ने लगे -‘हराम दी जनी बाऊ जी को बीच में क्यों घसीटती हो।’
‘मैं तो तेरे बीजी को भी कोर्ट में घसीटूँगी। आप सब लोग मिले हुए हो। कोई मेरा दर्द नहीं समझता।’ गुरमीत वहीं लॉबी में लकड़ी से बने फ़्लोर पर बैठ गई। वहीं बैठी वह बेतहाशा रोने लगी…उसे उसका रोना सुनाई दे रहा है…वह उसका दर्द समझती है। बिस्तर से उठना चाहते हुए भी वह उठ नहीं पाई। उसे ऐसा लग रहा है जैसे उसका शरीर टनों भारी हो गया है।
और लॉबी में लकड़ी के फ़्लोर पर बैठी गुरमीत रो-रो कर दुप्पटे से आँखें, नाक पोंछते हुए तड़प कर बोली -‘पीट ले नमर्दा जितना पीटना है। एक फ़ोन कर दूँ तो हथकड़ियाँ लग जाएँ। यह मत भूल कि तूँ अमरीका में है, यहाँ तलाक तो तेरे पुरखे भी देंगे।’
बीजी और बाऊजी अपने कमरे से निकल कर लॉबी में आ गए। उनका कमरा भी घर की उसी मंज़िल पर है, जहाँ गुरमीत और सुखबीर का कमरा है। आधी रात में और घर की तीसरी मंज़िल से बाऊ जी की बुलन्द आवाज़ गूँजी- ‘सुखबीरे इसने 911 को फ़ोन कर दिया तो पुलिस आ जाएगी। ख़ामख़ाह के झंझटों में पड़ जाएँगे। चुप करा भैण दी टकी नूँ। बहुत गर्मीं चढ़ी हुई है, कर ठंडी इसको। हर दूसरे दिन तमाशा खड़ा करती है। सोने भी नहीं देती।’
‘बाऊ जी, आप जाकर सो जाएँ। करता हूँ इसे मैं हमेशा के लिए ठंडा।’
क्रमशः
https://mediawala.in/kahani2/
सुधा ओम ढींगरा की कहानी