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उस रात फोन की घंटी बजी, स्क्रीन पर नजर डाली तो एकेवीएन एमएस नाम चमक रहा था। बात शुरु हुई इंदौर के हालचाल से, कोरोना की स्थिति से लेकर जन संगठनों-जनप्रतिनिधियों को लेकर भी बात चली। जिस अंदाज में जानकारी ले रहे थे, आभास हो गया था कि सुबह तक बड़ा बदलाव हो सकता है। अगली सुबह वॉटस एप पर मैसेज वॉयरल हो रहे थे नवागत कलेक्टर मनीष सिंह पहले खजराना गणेश मंदिर जाएंगे।
आज जब मनीष सिंह को इंदौर कलेक्टर के रूप में दो साल हो गए तो बधाई देने के बाद मैं सोच रहा था क्या उनके 730 दिनों पर लिखना ठीक होगा? फिर खुद से ही सवाल किया नई बहू की मेहंदी उतरने तक उसके संस्कार-कार्य-व्यवहार की समीक्षा की जाती है, सरकार के सौ दिन, एक साल होने पर मीमांसा होती रहती है तो फिर इंदौर तो प्रदेश का सबसे बड़ा जिला और प्रदेश की आर्थिक राजधानी है। यहां से चली हवा अधिकतर जिलों का तापमान तय करती है, शुरु हुआ आंदोलन पूरे देश का नेतृत्व करने लगता है और सरकार अपनी योजनाओं की सफलता इंदौर की प्रयोगशाला से मिले रिजल्ट से ही निर्धारित करती है तो एक कलेक्टर के दो साल होने पर क्यों नहीं लिखना चाहिए।
दो साल पहले मुख्य सचिव इकबाल सिंह बैस ने रातोंरात मनीष सिंह को कलेक्टर इंदौर का पदभार सम्हालने के आदेश दिए थे।पैर पसारते कोरोना से हताश हो रहे आम इंदौरी को तो जैसे इस बीमारी से मुकाबले की वैक्सीन मिल गई थी।उसके इस विश्वास की वजह यह कि निगमायुक्त के रूप में इंदौर को स्वच्छता सर्वेक्षण में नंबर वन का खिताब दिलाने वाले मनीष सिंह की विभिन्न विभागों के साथ ही निगम के भारी भरकम अमले पर सख्त पकड़ को वह देख-समझ चुका था। मुख्य सचिव ने इंदौर के लिए मनीष सिंह को उपयुक्त माना था तो उसकी वजह थी सफलतम इंवेस्टर्स समिट कराने के रूप में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की कसौटी पर खरा उतरना।
राज्य प्रशासनिक सेवा संवर्ग के अधिकारियों के लिए अब मनीष सिंह खुद रोल मॉडल बन चुके हैं तो उसकी वजह है इंदौर जैसे बड़े-कोरोना में जकड़े जिले को इस आपदा से उबारने के साथ ही प्रदेश के बाकी जिलों के लिए भी नजीर पेश करना।कोई भी कलेक्टर तब ही सफल हो सकता है जब मीडिया के साथ पारदर्शी ताल्लुक रखे और मनीष सिंह इस सच को तो जिले में पहले विभिन्न पदों पर रहते हुए ही समझ चुके थे।यही कारण रहा कि गुंडों के खिलाफ चलाए अभियान से लेकर उनकी अवैध संपत्ति पर बुलडोजर चलवाना और लोगों की दुकान, मकान, प्लॉट पर कब्जा करने वाले हिस्ट्रीशीटरों को सबक सिखाने के साथ पीड़ितों को हाथोंहाथ उनका हक दिलाना।प्रशासन के हर अच्छे काम में मीडिया ने साथ दिया है।
यदि इन दो सालों में मनीष सिंह एक के बाद एक कीर्तिमान कायम कर सके तो प्रशासनिक अमले का सहयोग तो है ही लेकिन इस सबसे अधिक आम इंदौरी, व्यापारी, बिल्डर, कॉलोनाइजर, उद्यमी, छोटे कारोबारियों से लेकर वर्षों बाद अपने हक की जमीन मिलने से हजारों परिवारों के चेहरों पर लौटी चमक भी है।
चाहे इंदौर हो या कोई दूरस्थ छोटा जिला, जिस भी आयएएस को कमान सौंपी जाती है वह सीएम, सीएस की गुड बुक में शामिल रहता है फिर चाहे वह भाप्रसे संवर्ग से हो या राप्रसे से। लेकिन इन दो सालों में बाकी जिलों की अपेक्षा इंदौर मॉडल बन कर उभरा है तो उसकी वजह मनीष सिंह की प्रशासनिक सख्ती, दृढ़ इच्छा शक्ति और वक्त मुताबिक अपने सख्त मिजाज में लचीलापन लाना भी है। एक साल पहले होली पर डीएम बंगले पर कलेक्टर को रंग लगाने में पटवारी से लेकर एसडीओ आदि अधिकारियों की हालत पतली हो जाती थी इस साल उन सब को ताज्जुब भी हुआ कि साहब रंग-गुलाल-कीचड़ की होली कैसे खेल रहे हैं।किसी भी अधिकारी की सफलता मातहत टीम को सहयोग पर निर्भर रहती है उतना ही विश्वास इंदौर से भोपाल तक बड़े अधिकारियों का भी मिलना चाहिए।आयजी रहे हरिनारायण चारी मिश्रा का इंदौर का पहला पुलिस कमिश्नर बनना उनके लिए तो पुलिस-प्रशासन के बीच विश्वास और मजबूत होने जैसा ही रहा है। जहां तक कमिश्नर डॉ पवन शर्मा के नैचर का मामला है वे जिले की कार्य व्यवस्था में आए दिन हस्तक्षेप नहीं करने में जितना परहेज करते हैं उतना ही यह भरोसा भी रहता है कि मनीष ने डिसिजन लिया है तो ठीक ही होगा।
जिले की व्यवस्था चलाने के गुर क्या है इसे मनीष सिंह की वर्किंग पर नजर रख कर समझा जा सकता है।अभी जितनी ट्यूनिंग उनकी नगर भाजपा अध्यक्ष गौरव रणदिवे से है उससे अधिक मजबूत संबंध कैलाश विजयवर्गीय-रमेश मेंदोला की जोड़ी से हैं। याद करिए जब मनीष सिंह ने ज्वाइन किया था तब प्रशासन और राजनीति के जाल को समझने वाले दावा किया करते थे कि दो नंबर वालों से नहीं पटेगी, एक-दो घटनाक्रम ने उनके इस दावे की पुष्टि भी की लेकिन आज परिदृश्य बदला हुआ है।
इसी तरह मुख्यमंत्री के सपनों के शहर वाले इस जिले का प्रभार गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा को देने के बाद माना जा रहा था कि बस अब मनीष सिंह की चलाचली तय है, मिश्रा अपनी पसंद का कलेक्टर ले आएंगे। यहां भी पासा उल्टा पड़ गया, मनीष सिंह ही नरोत्तम को भी उत्तम लगने लगे हैं।दो साल पहले प्रदेश की राजनीति में आए भूचाल के बाद मुख्यमंत्री ने यदि मनीष सिंह को इंदौर के लिए सर्वथा उपयुक्त माना तो इन 730 दिनों में उन्होंने इसे साबित भी किया है।एक सीएम का गुट, एक सांई का गुट तो एक भाभी,ताई और एक भाई का गुट इन दो साल में तैयार हुआ एक भिया का गुट इन सारे गुटों को उनकी हैसियत मुताबिक सम्मान देने और जनहित को सर्वोपरि बताते हुए उतनी ही सख्ती से इन गुटों की अनसुनी करने की खासियत की खुफिया रिपोर्ट से ही वल्लभ भवन से इन दो वर्षों में फ्री हेंड मिलता रहा है।
मुख्यमंत्री मंचों से जो कहते हैं उस पर त्वरित अमल के साथ ही बिन बोले उनकी बॉडी लैंग्वेज क्या चाहती है इसकी समझ रखना भी आयएएस की खासियत होना चाहिए।इन दो सालों में मनीष सिंह इस कसौटी पर अधिक खरे उतरे हैं। लगभग विदा हो चुके कोरोना के बाद शुरु हो रहा उनका यह तीसरा साल राजनीतिक चुनौतियों वाला अधिक है पंचायत चुनाव, नगर निगम और उसके बाद विधानसभा चुनाव होना है। इन चुनावों में इंदौर जिले में मुख्यमंत्री की योजनाओं का आमजन पर जितना भरोसा बढ़ेगा मनीष सिंह के नंबर भी उतने ही बढ़ते जाएंगे।मेट्रो और स्मार्ट सिटी आदि योजनाओं के लोकार्पण भी होंगे ही जिले के नाम दर्ज होने वाली उपलब्धियों के पटल पर कलेक्टर का नाम भी चमकेगा। इतिहास गवाह है इंदौर में एक बार जो कलेक्टर रहा, उसकी अन्य किसी जिले में रहने की ख्वाहिश नहीं बचती। वैसे भी यहां जो कलेक्टर रह लेता है मुख्यमंत्री उनके पसंद का विभाग सौंपने की उदारता बरतते रहे हैं फिर चाहे सीपीआर और कमिश्नर इंदौर की कुर्सी हो या अन्य कोई साधन-सम्पन्न स्वतंत्र विभाग।
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