

Kunal Kamra Controvercy: यह कॉमेडी या मिमिक्री नहीं ओछापन है
रमण रावल
मुझे कथित कॉमेडियन कुणाल कामरा की बुद्धि पर बिल्कुल भी तरस नहीं आता,क्योंकि मेरा मानना है कि ऐसे लोग सोशल मीडिया जगत की ऐसी संतानें हैं, जो बुद्धिहीन ही नहीं विवेक शून्य और मर्यादाहीन भी होती हैं। मुझे कामरा प्रकरण में हैरत उन लोगों की समझ,शाबाशी और समर्थन पर हो रहा है,जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरवी करते हुए कामरा की बेतुकबंदी,परपीड़क व अपमानजनक पैरोडी को कॉमेडी की उपमा देकर अपने बौद्धिक स्तर का प्रदर्शन कर रहे हैं। उन्हें अब तो यह मान ही लेना चाहिये कि इस देश में पिछले 11 साल से जिसकी जो मर्जी आये, वह बोल-लिख रहा है और इसके लिये किसी के खिलाफ कोई ऐसी कार्रवाई नहीं हुई तो स्वतंत्रता हनन या तानाशाही का प्रतीक बता सके।
दरअसल, कामरा जैसे लोगों को न तो लोक-लिहाज से कोई लेना-देना है, न मर्यादा के मायने जानते हैं, न व्यंग्य का मर्म समझते हैं, न व्यवस्था की खामियों को जानने-समझने का माद्दा़ है। कामरा को अपने को भाग्यशाली समझना चाहिये कि वे 1975 से 1977 के बीच जवान नहीं थे, कवितायें नहीं करते थे,कॉमेडी के नाम पर अभद्रता नहीं करते थे,अन्यथा 19 महीने की दास्ताने सुनाते-सुनाते कितनी बार रुलाई आती,कितनी बार तन-मन के जख्म सहलाने पड़ते,उन्हें अंदाज ही नहीं है। बहरहाल।
सोशल मीडिया के इस दौर में साहित्य की समझ का तो सत्यानाश हुआ ही है, सार्वजनिक जीवन में बेइंतिहा अपमानजनक टिप्पणियां करने का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह सामाजिक ताने-बाने का मटियामेट कर रहा है, आचरण को भ्रष्ट कर रहा है। अब केवल एक ही चीज प्रमुख हो गई है-लोकप्रियता। लाइक और शेयर के आंकड़ें। यह अच्छे सकारात्मक कामों से न मिल सके तो विवादास्पद बातें कर चर्चा में आया जाये तो भी चलेगा। कुणाल कामरा जैसे लोग इस छद्म लोकप्रियता की ग्रंथि से ग्रसित होकर ही मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग बता रहे हैं। यह उछलबछेरापन भी नहीं है, विशुद्ध छिछोरापन है,बल्कि ओछापन।
कतिपय लोग इस समय आसमान सिर पर उठाये हुए हैं कि कामरा को आतंकित किया जा रहा है। याने चोर सरे बाजार सीनोजोरी कर चलता बने और पुलिस डंडे भी न फटकारे, यह कौन-सी व्यवस्था है? कहा तो यह भी जा रहा है कि एक समय वो था,जब श्री लाल शुक्ल,हरिशंकर परसाई,शरद जोशी जैसे व्यंग्यकारों ने तत्कालीन सत्ताधीशों के खिलाफ खूब लिखा, लेकिन उन लोगों ने कभी बुरा नहीं माना या पलटवार नहीं किया। जो लोग महान व्यंग्यकारों के उदाहरण देते हैं, उन्होंने उनका नाम तो सुना है, लेकिन उनका लिखा शायद पढ़ा नहीं है। इन व्यंग्यकारों ने कभी किसी का नाम लेकर सीधे कोई बात नहीं कही या बेहद निजी टिप्पणी नहीं की,उन्हें जहरीला सांप नहीं कहा। इन महान व्यंग्यकारों ने सीधे व्यवस्था पर तीखी टिप्पणियां की, न कि व्यक्ति विशेष पर। वैसे मुझे पूरा भरोसा है कि कामरा को राजनीति का ककहरा भी नहीं मालूम। दलबदल कोई एकनाथ शिंदे से शुरू नहीं हुआ, जिसके लिये उन पर तंज कसा जाये। इस प्रवृत्ति पर जरूर अंगुली उठाई जानी चाहिये, लेकिन एक व्यक्ति पर उठती है तो समझ आता है कि यह सुपारी व्यंग्य हो सकता है।
वे यह भी जोड़ते हैं कि आज के नेता-मंत्री हास-परिहास नहीं समझते और तानाशाही रवैया अपनाकर अभिव्यक्ति का गला घोंटना चाहते हैं। ये लोग क्या कभी अपने घर में अपने माता-पिता का उपहास उड़ा सकते हैं? उनके गलत फैसलों पर अंगुलियां उठा सकते हैं?
बेशक,लोकतंत्र हमें यह स्वतंत्रता देता है कि हम अपने देश के मुखिया को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं। लेकिन, यह बताइये, क्या प्रधानमंत्री को सांप की उपमा देना किसी भी तरह से व्यंग्य या उचित टिप्पणी कही जा सकती है? क्या शिवसेना नेता शिंदे को देवेंद्र फडनवीस की गोद में बैठा बताना मर्यादित है? कामरा को अभिव्यक्ति इतनी ही पसंद है तो देश के प्रमुख दल की नेता को कैबरे डांसर बोलकर बताये?
कामरा जैसे लोगों के द्वारा किसी संघी,सनातनी को आसाराम,नाथूराम कहना आसान है। कभी किसी को औरंगजेब,बाबर,तैमूर की औलाद या समर्थक बोलकर बताये । वे ऐसा कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि वे चलते रास्ते अपनी गर्दन धड़ से अलग क्यों करवाना चाहेंगे? यह सनातनी सरोकारो में ही संभव है कि सदियों से आक्रांताओं के मकबरे सजा रखते हैं। उनके नाम सड़कें,स्मारक,संस्थान बनाये रखते हैं। इस सदाशयता को कमजोरी मानकर बेतुकी बकवास करने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान लिया गया।
देश को यह सोचना चाहिये कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वह है जो निहायत अभद्र,मर्यादाहीन टिप्पणी करते हुए की जाती है या वह है जो व्यवस्था की खामियों को संवैधानिक दायरे में प्रहार कर की जाती है।