देश को और भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव चाहिए …

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देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए देश की वीरांगना मांओं के वीर सपूतों ने हंसते-हंसते अपनी जान न्यौछावर की थी। ऐसे क्रांतिकारी वीर सपूतों की शहादत का ही प्रतिफल है कि आज हम आजाद हैं। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव भारत के ऐसे ही सच्चे सपूत थे। पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स को गोली मार दी थी और खुद ही गिरफ्तार हो गए थे।
देश को और भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव चाहिए ...
भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंका था। इसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी दी। उनकी गिरफ्तारी के बाद उन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल होने के कारण देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चला। यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में लाहौर षड्यंत्र के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगतसिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा। फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। 23 मार्च 1931 को शाम 7.23 पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई।
यानि करीब 23-23 साल के यह तीनों नौजवान 90 साल पहले खुशी-खुशी फंदे पर झूल गए थे। और स्वतंत्रता के बाद हम अब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। लेकिन बहुत सारा विष हमारे समाज में घुला हुआ है। फिजां जहरीली हो गई है। वातावरण प्रदूषित है और समाज भी मानसिक विकृति की चपेट में है। समाज अलग-अलग धड़ों में बंटा नजर आ रहा है। सौहार्द बनाए रखना बड़ी चुनौती है। नवयुवक-नवयुवतियां फांसी के फंदे पर झूल रहे हैं।
अलग-अलग तरीके से आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। समाज और समस्याओं से खिन्न होकर युवा मौत की राह पर बढ़ रहे हैं। समाज नशे की गिरफ्त में है। अपराधों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। हत्याओं का सिलसिला जारी है। सड़कें खिलखिला रही हैं और इंसानों के चेहरे मुरझा रहे हैं। बिजली की चकाचौंध में इंसानियत अंधी हो रही है। मां खुद ही अपने बच्चों की हत्या को अंजाम देती है, तो रूह कांप उठती है।
अस्पताल कमाई के फेर में जिंदगी के साथ खिलवाड़ करते हैं,तो घिन आती है। और इंसान कमाई के फेर में देश के साथ गद्दारी करते हैं, तो शर्म आती है। जब बुजुर्ग मां-बाप जवान बच्चों के रहते जलालत भरा जीवन जीने को मजबूर होते हैं, तो सिर झुक जाता है। और जब छोटे-छोटे बच्चे पेट की भूख मिटाने को चौराहों पर भीख मांगते हैं और लग्जरी गाडियों में बैठे लोग कांच बंद कर फर्राटा मारकर निकल जाते हैं तो आजादी गुलामी से भी बदतर नजर आती है। जब दुनियादारी से हारकर परिवार के परिवार मौत को गले लगाने को मजबूर हो जाते हैं, तो इंसानियत चिथड़े-चिथड़े सी नजर आती है।
Bhagat Singh Sukhdev and Rajguru
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू बीसवीं सदी में आजादी दिलाने के लिए बलिदान हुए थे। हमारे देश को अब 21 वीं सदी में फिर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू तुम्हारी जरूरत है जो इस आजादी को उस मुकाम पर पहुंचा सकें, जिसके लिए देश के वीरों ने सब कुछ कुर्बान किया था।