
कानून और न्याय: न्यायिक व्यवस्था की विसंगतियों पर चोट करने वाला महत्वपूर्ण फैसला!
– विनय झैलावत
इस मामले में सन् 1987 से न्यायाधीश रहे चतुर्वेदी को व्यापक घोटाले और अन्य मामलों में जमानत देने के मामले में कदाचार का दोषी पाए जाने के बाद सन 2015 में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। उन पर मुख्यतः जमानत आवेदनों में भिन्न राय रखने का आरोप था। उन्होंने कुछ को स्वीकार किया था और कुछ को खारिज कर दिया था। प्रकरण के रिकॉर्ड पर विचार करते हुए इस फैसले में खंडपीठ ने कहा कि प्रतिकूल आदेश का सामना करने वाले एक भी व्यक्ति ने कभी यह शिकायत नहीं की कि उसकी जमानत याचिका, जो उसी न्यायाधीश द्वारा जमानत दिए गए अन्य आवेदनों के समान थी, याचिकाकर्ता की बाहरी मांगों को पूरा न कर पाने के कारण खारिज कर दी गई। उच्च न्यायालय ने कहा कि जाति, सामंती व्यवस्था अभी भी मध्य प्रदेश की न्यायपालिका में परिलक्षित होती है, जहां जिला न्यायाधीशों को ‘शूद्र’ माना जाता है।
इस फैसले में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और जिला अदालतों के न्यायाधीशों के बीच संबंधों की तुलना सामंती स्वामी और दास से की। एक कड़े शब्दों वाले आदेश में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य में न्यायिक ढांचे में परिलक्षित जाति व्यवस्था और सामंती मानसिकता की निंदा की है। फैसले में कहा गया कि उच्च न्यायालय में उन लोगों को सवर्ण या विशेषाधिकार प्राप्त माना जाता है। जबकि जिला न्यायाधीशों को ‘शूद्र’ और ‘कमतर’ माना जाता है। फैसले में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और जिला न्यायालयों के न्यायाधीशों के बीच संबंधों की तुलना सामंती स्वामी और दास से की। यह भी कहा कि भय और हीनता की भावना एक दूसरे के अवचेतन में सचेत रूप से पैदा की जाती है।
न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और डीके पालीवाल की खंडपीठ ने एक विशेष अदालत के न्यायाधीश की बर्खास्तगी को दरकिनार करते हुए 14 जुलाई को पारित अपने आदेश में ये तीखी टिप्पणियां की। एक उदात्त स्तर पर, जाति व्यवस्था की संकीर्णता इस राज्य में न्यायिक ढांचे में प्रकट होती है, जहां उच्च न्यायालय में सवर्ण होते हैं और शूद्र जिला न्यायपालिका के लोग होते हैं। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों के बीच निराशाजनक संबंध एक सामंती स्वामी और दास के बीच का संबंध है। मन की सामंती स्थिति जो अभी भी राज्य में मौजूद है, उसका परिणाम न्यायपालिका में भी प्रकट होता है। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि जिला न्यायपालिका का डर समझ में आता है। लेकिन वह आपसी सम्मान पर आधारित नहीं है।
राज्य में जिला न्यायपालिका और उच्च न्यायालय के बीच संबंध एक-दूसरे के प्रति आपसी सम्मान पर आधारित नहीं है, बल्कि एक ऐसा संबंध है जिसमें एक दूसरे के अवचेतन में जानबूझकर भय और हीनता की भावना पैदा की जाती है। उच्च न्यायालय ने एक अगस्त, 2016 के आदेश को चुनौती देने वाली एक न्यायाधीश जगत मोहन चतुर्वेदी की याचिका को स्वीकार करते हुए यह बात कही। इसमें 19 अक्टूबर, 2015 को विशेष अदालत (एससी/एसटी) के न्यायाधीश के रूप में उनकी बर्खास्तगी के खिलाफ उनकी अपील खारिज कर दी गई थी। प्रक्रिया के अनुसार, बर्खास्तगी का आह्वान मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में उच्च न्यायालय की पूर्ण अदालत द्वारा किया जाता है। लेकिन, उन्हें हटाने का प्रस्ताव राज्य सरकार को कार्रवाई के लिए भेजा गया था।
उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता की सेवाओं को समाप्त करने के आदेश को रद्द कर दिया। साथ ही प्रधान सचिव कानून और विधायी विभाग और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल के माध्यम से राज्य सरकार पर पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाते हुए कहा कि चतुर्वेदी को समाज में अपमान का सामना करना पड़ा। न्यायालय ने कहा कि, यह मामला एक ऐसी बीमारी का खुलासा करता है जिसे राज्य में मौजूद सामाजिक ढांचे के कारण प्रभावी ढंग से संबोधित नहीं किया जा सकता है। ठीक इसी तरह के मामलों के परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय और आपराधिक अपीलों के समक्ष बड़ी संख्या में जमानत याचिकाएं लंबित रहती हैं। फैसले में अभिभाषक संघों के अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहा गया कि यह इस न्यायालय को इस राय पर पहुंचने का विवेक देता है कि जिला न्यायपालिका उच्च न्यायालय के निरंतर भय के तहत कार्य करती है।
इस मामले की तरह, जहां याचिकाकर्ता को आवेदकों के पक्ष में जमानत आदेश पारित करने के कारण सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था, उच्च न्यायालय के ऐसे कृत्यों से जिला न्यायपालिका को जो संदेश जाता है, वह यह है कि प्रमुख मामलों में बरी होने या उच्च न्यायालय के नीचे की अदालतों द्वारा जमानत दिए जाने के परिणामस्वरूप ऐसे आदेश पारित करने वाले न्यायाधीशों के खिलाफ प्रतिकूल कार्रवाई हो सकती है, हालांकि वे न्यायिक आदेश हैं। ‘‘जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों की बॉडी लैंग्वेज जब वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का अभिवादन करते हैं तो वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने केवल बिना रीड की हड्डी के लोगों की तरह झुके रहते हैं, जिससे जिला न्यायपालिका के न्यायाधीश की एकमात्र पहचान यह प्रजाति बन जाती हैं।
उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि जिला न्यायपालिका के न्यायाधीश व्यक्तिगत रूप से रेलवे प्लेटफार्मों पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों (उनकी इच्छा के अनुसार) की सेवा करते हैं और जलपान के साथ उनका इंतजार करते हैं, जो आम बात है। यह अधिकार की भावना के साथ एक औपनिवेशिक पतन को बनाए रखता है। उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्ति पर जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों को प्रायः उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा कभी भी एक सीट की पेशकश तक नहीं की जाती है। दुर्लभ अवसर ही होता है जब यह पेशकश की जाती है। इस अवसर पर भी वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने बैठने में संकोच करते हैं।
ऐसा लगता है कि जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों के मानसून की अधीनता और दासता पूर्ण और अपरिवर्तनीय है। आदेश में कहा गया है कि यह सब उनकी नौकरी बचाने के लिए उनके द्वारा किया जाता है। इस वजह से इस मामले में याचिकाकर्ता को अलग तरह से सोचने और करने के लिए नुकसान उठाना पड़ा। उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘‘इन न्यायाधीषों के परिवार हैं, बच्चे हैं जो स्कूल जाते हैं। माता-पिता जो इलाज करा रहे हैं, एक घर बनाना है, बचत जमा करनी है। जब उच्च न्यायालय उन्हें पारित न्यायिक आदेश के कारण अचानक उनकी सेवा समाप्त कर देता है, तो वह और उनका पूरा परिवार बिना किसी पेंशन और एक ऐसे समाज का सामना करने के कलंक के साथ सड़कों पर उतर जाते हैं जो उनकी ईमानदारी पर संदेह करता है। न्यायाधीश के साथ हुए घोर अन्याय के कारण, उच्च न्यायालय ने उनके पेंशन संबंधी लाभों को बहाल कर दिया। साथ ही यह भी निर्देश दिया कि उन्हें उस तारीख से वेतन प्रदान किया जाए जिस दिन से उन्हें बर्खास्त किया गया था। यह उस तारीख से होगा जब तक कि वह सेवानिवृत्त नहीं हो जाते। यह लाभ सात प्रतिशत ब्याज के साथ दिया जाएगा।
उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि इस आदेश का अनुपालन आदेश दिनांक से 90 दिनों की अवधि के भीतर किया जाए। यह उस दिन से होगा जिस दिन यह आदेश उच्च न्यायालय के महापंजीयक की वेबसाइट पर अपलोड किया गया है। इसमें विफल रहने पर याचिकाकर्ता प्रतिवादियों के खिलाफ अवमानना याचिका दायर करने का हकदार होगा। ऐसा कम ही होता है जब उच्च न्यायालय अपने ही आदेश के विरूद्ध इस प्रकार की सहायता प्रदान करें। इसके अलावा जिस रूप में व्यवस्था के भीतर जो विसंगतियाँ विद्यमान है उस पर चोट पहुंचाने और समाप्त करने की इच्छा भी इसमें दर्शित होती है। यह आसान नहीं है। इस फैसले के लिए उच्च न्यायालय एवं यह फैसला देने वाले न्यायाधीश बधाई और साधुवाद के पात्र है। उन्होंने दबी हुई आवाज को अभिव्यक्ति प्रदान की है।





