कानून और न्याय:  जातिगत पहचान और इसका वैधानिक पक्ष 

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कानून और न्याय:  जातिगत पहचान और इसका वैधानिक पक्ष 

संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 यह निर्धारित करता है कि हिंदू धर्म, सिख धर्म या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानने वाले किसी भी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है। मूल आदेश में पहले केवल हिंदुओं को वर्गीकृत किया गया था। लेकिन बाद में सिखों और बौद्धों को भी इसमें शामिल किया गया और आदेश को संशोधित किया गया। सन् 1990 में सरकार ने आदेश को संशोधित कर कहा कि कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, सिख या बौद्ध से अलग धर्म को मानता है, उनको अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-341 अनुसूचित जाति के बारे में है। इस अनुच्छेद में दो वर्ग हैं। पहले वर्ग में बताया गया है कि भारत का राष्ट्रपति किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के किसी जाति को सार्वजनिक अधिसूचना के जरिए अनुसूचित जाति में शामिल कर सकता है। राज्य के मामले में राष्ट्रपति को वहां के राज्यपाल के साथ राय-मशविरा करने की जरूरत होती है। दूसरे वर्ग में बताया गया है कि भारतीय संसद राष्ट्रपति के पब्लिक नोटिस द्वारा अनुसूचित जाति में शामिल की गई किसी जाति को इस सूची से निकाल सकता है और साथ ही शामिल भी कर सकता हैं।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधिपति केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता में सरकार ने एक आयोग का गठन किया है। आयोग इस बात पर विचार करेगा कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपना चुके दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए अथवा नहीं। केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, आयोग में सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी डॉ रविंद्र कुमार जैन और यूजीसी सदस्य प्रो (डॉ) सुषमा यादव भी सदस्य के रूप में शामिल होंगे। आयोग को दो साल में अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को देनी होगी।

उक्त आयोग ऐसे समय में स्थापित किया गया है जब सुप्रीम कोर्ट दलित ईसाइयों की राष्ट्रीय परिषद द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है। सन् 2004 से ही इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दर्ज हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को इस मुद्दे पर अपनी वर्तमान स्थिति प्रस्तुत करने का निर्देष दिया था। दलित ईसाई और मुस्लिम संगठनों का तर्क यह रहा है कि इन समुदायों को भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। इन संगठनों ने केंद्र के इस कदम की देरी की रणनीति के रूप में आलोचना की है।

सामाजिक न्याय मंत्रालय ने कहा कि कुछ समूहों ने राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से अन्य धर्मों से संबंधित नए व्यक्तियों की स्थिति के अनुसार अनुसूचित जाति की मौजूदा परिभाषा पर फिर से विचार करने का सवाल उठाया है। मंत्रालय ने कहा कि जहां कुछ वर्गों द्वारा शामिल किए जाने की मांग है, वहीं मौजूदा अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधियों ने नए व्यक्तियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का विरोध किया है। मंत्रालय ने यह भी कहा है कि यह एक मौलिक और ऐतिहासिक रूप से जटिल सामाजिक और संवैधानिक प्रश्न है। साथ ही सार्वजनिक महत्व का भी मामला है। इसके महत्व, संवेदनशीलता और संभावित प्रभाव को देखते हुए इसकी परिभाषा में कोई भी परिवर्तन विस्तृत और निश्चित अध्ययन और सभी हितधारकों के साथ व्यापक परामर्श के आधार पर होना चाहिए। जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत किसी भी आयोग ने अब तक इस मामले की जांच नहीं की है।

इस कदम का विरोध करते हुए दलित क्रिश्चियन राष्ट्रीय परिषद के अध्यक्ष विजय जार्ज ने कहा यह सरकार की देरी की रणनीति है, जो स्पष्ट रूप से इस मामले का निष्कर्ष नहीं देखना चाहती है। एक और आयोग की क्या जरूरत थी जब अतीत में कई आयोग और समितियां सरकार को रिपोर्ट सौंप चुकी है। इसमें रंगनाथ मिश्रा आयोग भी शामिल है। इस आयोग ने इस तरह का दर्जा देने के पक्ष में फैसला सुनाया है। जब बौद्धों और सिखों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया था तब कोई कमीशन नहीं था। यह कदम राजनीति से प्रेरित और जाति और धर्म के आधार पर भेदभावपूर्ण है। अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक और बिहार के पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी ने भी सरकार पर निर्णय में देरी का आरोप लगाया है, ताकि वह 2024 के चुनावों को पार कर सके। अंसारी ने यह भी कहा हमने उन्हें यह स्पष्ट कर दिया था कि हमारा समर्थन दो मुद्दों के समाधान पर टिका है। पहला यह कि माॅब लिंचिंग, गोरक्षकों और अत्याचार, जहां पसमांदा मुसलमानों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है, को तुरंत रोका जाना चाहिए। दूसरा मुद्दा अनुसूचित जाति का दर्जा देने का था। मैं आने वाले सप्ताह में समुदाय के लिए रैली करूंगा।

डाॅ मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली तत्कालीन यूपीए सरकार ने अक्टूबर 2004 में इस दिशा में कदम बढ़ाया था। तब धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण के उपायों की सिफारिशों के लिए भाषाई अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया था। इस राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग का गठन भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में किया गया था। मई 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसमें सिफारिश की गई थी कि अनुसूचित जाति का दर्जा पूरी तरह से धर्म से अलग कर दिया जाए उसे धर्म-तटस्थ बनाया जाए। हालांकि तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस सिफारिश को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया था कि जमीनी अध्ययनों से इसकी पुष्टि नहीं हुई थी।

अन्य धर्मों में परिवर्तित दलितों को अनुसूचित जाति समुदाय के लिए उपलब्ध आरक्षण का लाभ देने के मुद्दे पर अपना वर्तमान रूख प्रदान करते हुए, भारत के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि केंद्र सरकार ने निर्णय नहीं लिया है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस मुद्दे के निहितार्थ को समझने के लिए समसामयिक डेटा के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने उदाहरण स्वरूप कहा कि अगर मैं अनुसूचित जाति से संबंध रखता हूं तो मुझे कुछ सामाजिक नुकसान होंगे। अब, काल्पनिक रूप से, मैं एक ईसाई बन जाऊंगा, क्या मैं अधिक स्वीकार्य होऊंगा। इसकी जांच की जानी है। सन् 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने दलित ईसाइयों की राष्ट्रीय परिषद (एनसीडीसी) नामक एक संगठन द्वारा जनहित याचिका में नोटिस जारी किया गया था, जिसमें दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का निर्देश देने की मांग की गई थी।

वर्तमान में, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 केवल हिंदू, सिख या बौद्ध समुदायों से संबंधित लोगों को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत करने का प्रावधान करता है। अधिनियमित होने पर, आदेश ने केवल हिंदू समुदायों को सामाजिक अक्षमताओं और छुआछूत के कारण उनके साथ होने वाले भेदभाव के आधार पर अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत करने की अनुमति दी। 1956 में सिख समुदायों को शामिल करने के लिए और फिर सन् 1990 में बौद्ध समुदायों को अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने के लिए इसमें संशोधन किया गया था।

नए आयोग की जांच में यह भी देखा जाएगा कि एक अनुसूचित जाति व्यक्ति दूसरे धर्म में परिवर्तित होने के बाद किन बदलावों से गुजरता है और उन्हें अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने के सवाल पर क्या प्रभाव पड़ता है। इनमें उनकी परंपराओं, रीति-रिवाजों, सामाजिक और भेदभाव के अन्य रूपों की जांच करना और यह भी शामिल होगा कि धर्मांतरण के परिणामस्वरूप वे कैसे और क्या बदल गए हैं। यह देखते हुए कि मौजूदा अनुसूचित जाति समुदायों के कई प्रतिनिधियों ने अन्य धर्मों में धर्मान्तरित लोगों को शामिल करने का कड़ा विरोध किया है, सरकार ने न्यायमूर्ति बालकृष्णन आयोग को इन मौजूदा अनुसूचित जाति समुदायों पर इस तरह के फैसले के प्रभााव की जांच करने का काम भी सौंपा है। आयोग को किसी भी अन्य संबंधित प्रश्नों की जांच करने का भी अधिकार दिया गया है, जिसे वह केंद्र सरकार के परामर्श से और सहमति से उचित समझे।

केंद्र सरकार ने सन् 2019 के हलफनामे में यह भी कहा था कि दलित बौद्धों की तुलना दलितों से नहीं की जा सकती है जो इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए, क्योंकि पूर्व के मामले में धर्मांतरण स्वैच्छिक था। ‘कुछ जन्मजात सामाजिक-राजनीतिक अनिवार्यताओं के कारण’ और मामले में बाद में रूपांतरण अन्य कारकों के कारण हो सकता है। इसके अलावा, केंद्र ने यह भी तर्क दिया था कि जिन धर्मों को अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने की अनुमति दी गई थी, वे हिंदू धर्म की शाखाएं थीं। दलित जो इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए, उन्होंने अपने धर्मांतरण के माध्यम से अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार किया और वे पिछड़े होने का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि अस्पृष्यता केवल हिंदू धर्म और इसकी शाखाओं की एक विषेषता है।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं