कानून और न्याय: राज्यपाल की निष्क्रियता और संविधान
राज्यों की सरकारों और उनके राज्यपाल के बीच चले आ रहे विवाद पर बहस के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने बेहद सख्त टिप्पणियां की है। यह मामला तमिलनाडु और केरल से जुड़ा है। दोनों ही राज्यों की सरकार का आरोप है कि राज्यपाल उनकी विधानसभा में पास हो चुके बिलों को पारित करने में देरी कर रहे हैं। इस मुद्दे को लेकर तमिलनाडु और केरल की सरकारें सर्वोच्च न्यायालय पहुंची। इस पर हाल ही में सुनवाई हुई। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ इन मुद्दों पर सुनवाई कर रही है। राज्यपाल की तरफ से हुई इस देरी पर सवाल उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल की निष्क्रियता चिंता का विषय है।
सर्वोच्च न्यायालय के इन सवालों पर अटाॅर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने स्पष्ट किया कि वर्तमान राज्यपाल ने नवंबर 2021 में ही पदभार संभाला है। इस जवाब पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मुद्दा यह नहीं है कि किसी विशेष राज्यपाल ने देरी की है। मुद्दा यह है कि क्या सामान्य तौर पर संवैधानिक कार्यों को करने में देरी हुई है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्यपाल ने 10 विधेयकों को रोकने का जो फैसला किया, वह चिंता का विषय है। इस पर अटाॅर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने जवाब दिया कि विवाद केवल उन विधेयकों से संबंधित है, जो राज्य के विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित है। ये विधेयक राज्यपाल की शक्तियों को छीनने का प्रयास करते हैं। इन पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय ने केरल सरकार की याचिका पर भी नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। केरल सरकार की तरफ से पूर्व अटाॅर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा कि राज्यपाल ने कुछ अहम विधेयकों पर अब तक फैसला नहीं किया है। उन्होंने कहा कि राज्यपाल ने अब तक तीन विधेयकों पर हस्ताक्षर किए हैं, जबकि 7 से 23 महीने पहले विधानसभा से पास हो चुके 8 विधेयक इतनी अवधि तक लंबित है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को तुरंत दखल देना चाहिए। केरल सरकार ने राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर विधानसभा से पारित बिलों पर कार्यवाही नहीं करने और विधेयकों को दबाकर बैठे रहने का आरोप लगाया। केरल सरकार ने याचिका में कहा कि विधेयकों को लंबे समय तक और अनिश्चित काल तक लंबित रखने का राज्यपाल का आचरण उनकी मनमानी है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता के अधिकार) का भी उल्लंघन है। राज्य सरकार के मुताबिक उन्होंने लोगों के लिए कल्याणकारी बिल पारित किए हैं, जिसे राज्यपाल ने रोक रखा है।
इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब के एक फैसले में कहा है कि राज्यपाल के अनंत काल के लिए विधेयक को बिना किसी कार्रवाई के नहीं रख सकते है। राज्यपाल बिना चुने हुए राज्य प्रमुख के तौर पर होते हैं। उन्हें संवैधानिक शक्ति मिली हुई है। वह अपनी शक्ति का राज्य विधानसभाओं की कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को निष्फल करने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते। सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी में कहा था कि संसदीय लोकतंत्र में शक्ति चुने हुए प्रतिनिधि के पास है। राज्यपाल विधानसभा की कार्यवाही पर संदेह नहीं कर सकते हैं। कोर्ट ने पंजाब के राज्यपाल से कहा कि वह पेंडिंग विधेयक पर विचार कर फैसला करें। सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने कहा था कि राज्यपाल के लिए यह विकल्प नहीं है कि वह विधानसभा सत्र पर संदेह जताकर बिल की मंजूरी को रोक दे। राज्यपाल आग से खेल रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब के राज्यपाल से कहा था कि उनके पास जो चार बिल हैं, उसे वह निश्चित तौर पर विचार कर फैसला लें। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि विधानसभा सत्र पर किसी तरह के संदेह जताना लोकतंत्र के लिए खतरे वाली बात है। स्पीकर को विधानसभा का गार्जियन माना गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि स्पीकर को अधिकार है कि वह सदन की बैठक स्थगित कर दें। लेकिन, इसका गलत इस्तेमाल कर सदन को स्थायी तौर पर सस्पेंड नहीं रखा जा सकता है। यह बेहद गंभीर मसला है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर कहा है कि राज्यपाल की सहमति के लिए भेजे गए विधेयकों को जितनी जल्दी हो सके वापस कर दिया जाना चाहिए, उन्हें रोकना नहीं चाहिए राज्यपाल की शिथिलता के कारण राज्य विधानसभाओं को अनिश्चित काल तक इंतजार करना पड़ता है।
राज्य विधायकों पर राज्यपाल की शक्तियां संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में निहित है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 किसी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को सहमति के लिए राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है। राज्यपाल या तो सहमति दे सकते हैं, सहमति को रोक सकते हैं या राष्ट्रपति द्वारा विचार के लिए विधेयक को आरक्षित कर सकते हैं। राज्यपाल सदन या सदनों द्वारा पुनर्विचार का अनुरोध करने वाले संदेश के साथ विधेयक को वापस भी कर सकते हैं। ऐसा केवल तभी किया जा सकता है जब राज्यपाल की यह राय है कि विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति को जोखिम में डाल सकते हैं। वह राष्ट्रपति के विचार के लिए ऐसे विधेयक को आरक्षित कर सकते हैं। राज्यपाल विधेयक को आरक्षित कर सकते हैं यदि वह संविधान के प्रावधानों के खिलाफ, नीति निदेशक तत्वों का विरोध, देश के व्यापक हित के खिलाफ, गंभीर राष्ट्रीय महत्व का अथवा संविधान के अनुच्छेद 31ए के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित हो। एक अन्य विकल्प सहमति को रोकना है, लेकिन ऐसा सामान्य रूप से किसी भी राज्यपाल द्वारा नहीं किया जाता है क्योंकि यह एक अत्यंत अलोकप्रिय कार्यवाही होगी।
संविधान के अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान का उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि विधानसभाओं द्वारा पारित किए जाने के बाद उन्हें सहमति के लिए भेजे गए विधेयकों पर राज्यपालों को देरी नहीं करनी चाहिये। जितनी जल्दी हो सके उन्हें लौटा दिया जाना चाहिये और अपने पास लंबित नहीं रखना चाहिए। इस अनुच्छेद में अभिव्यक्ति जितनी जल्दी हो सके का महत्वपूर्ण संवैधानिक उद्देश्य है और संवैधानिक प्राधिकारी को इसे ध्यान में रखना चाहिए। केरल में राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक रूप से की गई घोषणा कि वह लोकायुक्त संशोधन विधेयक और केरल विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को स्वीकृति नहीं देंगे, की वजह से अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है। रामेश्वर प्रसाद और ओआरएस बनाम भारत संघ एवं एएनआर मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा है कि अनुच्छेद 361(1) द्वारा प्रदान की गई प्रतिरक्षा दुर्भावना के आधार पर कार्रवाई की वैधता की समीक्षा करने की न्यायालय की क्षमता को सीमित नहीं करती है।
यूनाइटेड किंगडम में किसी विधेयक को कानून बनाने के लिए शाही सहमति की आवश्यकता की प्रथा यूनाइटेड किंगडम में मौजूद है। लेकिन, अभ्यास और उपयोग से क्राउन के पास कानून को खत्म करने का अधिकार नहीं है। विवादास्पद आधारों पर शाही सहमति को अस्वीकार करना असंवैधानिक के रूप में देखा जा सकता है। अमेरिका संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति किसी विधेयक को स्वीकृति देने से इंकार कर सकते हैं, लेकिन इसे प्रत्येक सदन के दो-तिहाई सदस्यों के साथ फिर से पारित किए जाने के बाद यह विधेयक कानून बन जाता है। अन्य लोकतांत्रिक देशों में सहमति से इनकार की प्रथा देखने को नहीं मिलती है। कुछ मामलों में संविधान द्वारा एक उपाय प्रदान किया जाता है, ताकि सहमति से इनकार के बावजूद विधायिका द्वारा पारित विधेयक कानून बन सके।