कानून और न्याय: दीवानी को आपराधिक मामला बनाने की प्रवृत्ति पर रोक जरूरी

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कानून और न्याय: दीवानी को आपराधिक मामला बनाने की प्रवृत्ति पर रोक जरूरी

इन दिनों लोगों में दीवानी विवादों को आपराधिक मामले में बदलने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा है कि ऐसे मामलों में पुलिस अधीक्षक को जिला अभियोजन अधिकारी की मदद से हस्तक्षेप करना चाहिए और कुछ सुधार करना चाहिए। इससे किसी निर्दोष को निशाना न बनाया जा सके। उच्च न्यायालय ने डीजीपी एवं निदेशक (अभियोजन) से अनुरोध किया कि सभी झोन के महानिरीक्षक, सभी जिलों के पुलिस अधीक्षक और जिला लोक अभियोजकों को इस संबंध में सक्रिय रूप से कार्य करने के लिए अवगत कराएं।

यह देखा गया है कि लोगों में वाणिज्यिक लेन-देन संपत्ति, साझेदारी, मध्यस्थता, पारिवारिक वैवाहिक एवं चिकित्सा लापरवाही से संबंधित विवादों को आपराधिक अभियोजन में बदलने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, ताकि संबंधित व्यक्ति आपराधिक मामलों में जटिल प्रक्रिया का शिकार बन सकें और मामले का निपटारा उनके अनुसार हो सके। अन्यथा ऐसे मामलों का दीवानी न्यायालयों का क्षेत्राधिकार है। अपने महत्वपूर्ण फैसले में न्यायमूर्ति आनंद पाठक ने कहा कि जब किसी मामले को दीवानी कार्यवाही या मध्यस्थता के माध्यम से समझाया जा सकता था। लेकिन, ऐसा करने के बजाय, निहित स्वार्थी शिकायतकर्ता, शिकायत दर्ज करने के लिए सीधे पुलिस स्टेशनों से संपर्क करते हैं और उन शिकायतों को पुलिस द्वारा आसानी से स्वीकार कर ली जाती है, यह गलत है। ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार और अन्य प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुछ मामलों में प्रारंभिक जांच करने के लिए दिशा निर्देश दिए गए थे।

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ के न्यायमूर्ति आनंद पाठक ने अपने फैसले में कहा कि प्रत्येक जिले के पुलिस अधीक्षक से यह उम्मीद की जाती है, कि वे जिला अभियोजन अधिकारियों के साथ सहयोग करें। विशेष रूप से उन मामलों में लंबित आरोप पत्रों का समय-समय पर मूल्यांकन करें जहां दीवानी विवादों को आपराधिक अभियोजन में बदलने की कोशिश की जाती है। उच्च न्यायालय ने कहा कि इसका उद्देश्य यह बताना है कि पुलिस अधिकारियों और अभियोजन पक्ष को मुकदमे के शीघ्र समापन के लिए तत्पर रहना चाहिए। उनसे यह भी उम्मीद की जाती है कि पुलिस स्टेशनों के जांच अधिकारी और थाना प्रभारी, पुलिस स्टेशन अधिकारी आरोप पत्र दायर होने के बाद मामले को वहीं नहीं छोड़े तथा अभियोजकों के साथ नियमित रूप से संपर्क में रहें। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि आरोपों पर गौर करना मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है। यदि वह जांच से संतुष्ट नहीं है तो उन्हें मामले को आगे की जांच के लिए भेजना चाहिए। खासकर उन मामलों में जहां दीवानी विवादों को आपराधिक मुकदमे में बदलने की कोशिश की जाती है।

न्यायमूर्ति आनंद पाठक ने अपने इस फैसले में कहा कि न्यायालय यह आदेश नहीं दे रहा कि सभी मामलों में कि आरोपियों को दोषमुक्त करना चाहिए या ट्रायल कोर्ट को फिर से जांच का आदेश देना चाहिए। लेकिन, बड़ी संख्या में मामलों में लोगों को झूठा फंसाया जाता है। इसलिए, निर्दोष व्यक्तियों की रक्षा करना उनका गंभीर कर्तव्य है। उच्च न्यायालय ने 1987 के संपत्ति विवाद से संबंधित आईपीसी की धारा कुटरचित दस्तावेज बनाना, धोखाधड़ी से संबंधित अपराधों के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द करने की मांग वाली याचिका पर अपने फैसले में उक्त टिप्पणियां की। उच्च न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट को निरस्त करते हुए न्यायालय ने कहा कि 34 वर्षों के बाद आपराधिक शिकायत दर्ज करना शिकायतकर्ता द्वारा दीवानी मामले को आपराधिक दायित्व में बदलने के प्रयास के अलावा कुछ नहीं है। न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त पिछले दो वर्षों से जांच का सामना कर रहे हैं। जब शिकायत दर्ज की गई थी, तब से अब तक न तो आरोप पत्र दाखिल किया गया और न खात्मा रिपोर्ट दाखिल की जा रही है।

मप्र के पुलिस रेगुलेशन का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा कि थाना प्रभारी और पुलिस स्टेशन के जांच अधिकारी के साथ-साथ जिला अभियोजन अधिकारी / लोक अभियोजन को सतर्क रहने की आवश्यकता थी। आरोपों में दीवानी दायित्व के तत्व विद्यमान है। लेकिन इन्हें आपराधिक अपराध में बदलने की कोशिश की गई है। उच्च न्यायालय ने कहा कि जिला अभियोजन अधिकारी को सतर्क और सक्रिय रहना चाहिए था। उन्हें मामले के सही तथ्यों और परिणाम के बारे में ईमानदार राय देनी चाहिए थी।

आजकल कई बार यह देखा जाता है कि शुरूआत में आईपीसी की धोखाधड़ी की धाराओं के तहत मामला दर्ज किया जाता है। उसके बाद जालसाजी कूटरचना आदि की धाराऐं और अपराध जोड़ दिए जाते हैं, ताकि दीवानी मामले को मिलने वाले लाभ के दायरे से बाहर कर दिया जाए। अरनेश कुमार के निर्णय से यह साफ है कि अभियुक्त को क्योंकि उक्त जालसाजी की धाराओं के लिए अधिकतम सजा सात साल है। इसलिए आरोपी को दंड प्रक्रिया संहिता के तहत नोटिस का लाभ मिलता है। इसलिए, इसे जटिल बनाने के लिए, थाना प्रभारी अधिकारी और जांच अधिकारी ने प्रस्तुत मामले को अनावश्यक जटिल एवं मुश्किल रूप में तैयार किया है। न्यायालय ने कहा कि पुलिस रेगुलेशन के अनुसार जिले के पुलिस अधीक्षक का यह कर्तव्य है कि वह अपने जिले के पुलिस स्टेशनों में चल रहे इस प्रकार के दुर्व्यवहार की निगरानी करें।

जिले के पुलिस अधीक्षक को अधिक सतर्क रहने की आवष्यकता है। इनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आपराधिक मामलों की जांच उचित और निष्पक्ष तरीके से आगे बढ़े। ऐसे मामलों में जहां नागरिक विवाद को आपराधिक आरोपों को बदलने की कोशिश की जाती है, तो पुलिस अधीक्षकों को जिला अभियोजन अधिकारी की मदद से इसमें हस्तक्षेप करने और उनके सुधार के लिए सामने आना चाहिए, ताकि किसी निर्दोष को निशाना न बनाया जा सकें।

हाल ही में झारखंड उच्च न्यायालय ने भी एक अन्य मामले में इसी दिशा में पक्ष लेते हुए यह कहा था कि केवल अनुबंध का उल्लंघन आपराधिक नहीं है, जब तक कि यह बेईमानी पूर्ण न हो और कुछ प्रत्यक्ष कार्य द्वारा प्रकट न हो। प्रस्तुत मामले में यह आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ता ने अन्य याचिकाकर्ताओं के माध्यम से विपरीत पक्ष को चूने के पत्थर की आपूर्ति के लिए एक अनुबंध में प्रवेश करने के लिए प्रेरित किया। इसके अनुसरण में विपरीत पक्ष के कार्यालय में आपूर्ति के लिए खरीद आदेश जारी किया गया। उक्त खरीद आदेश के संदर्भ में विपक्षी पार्टी द्वारा बाय आर्डर जारी करने की तारीख से 60 दिन की समाप्ति के बाद सामग्री की आपूर्ति के खिलाफ एक बिल जारी किया, लेकिन याचिकाकर्ताओं ने उक्त बिल के खिलाफ कोई राशि भुगतान नहीं की।
उच्च न्यायालय के समक्ष यह सवाल था कि क्या जांच के दौरान रिकाॅर्ड में लाई गई सामग्री धोखाधड़ी या आपराधिक विश्वासघात का अपराध बनाने के लिए पर्याप्त है? पीठ ने कहा कि धोखाधड़ी का मामला बनने के लिए, प्रथम दृष्टया यह साबित होना चाहिए कि आरोपी ने वादा करते समय धोखाधड़ी या बेईमानी की थी। क्योंकि छल, कपट अपराध का सार है। केवल अनुबंध का उल्लंघन आपराधिक नहीं है, जब तक कि उक्त बेईमानी उसी समय में कुछ प्रत्यक्ष कार्य द्वारा प्रकट न हो। उच्च न्यायालय ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि जब माल वितरित किया जाता, तब तक माल की बिक्री के मामले में संपत्ति, विक्रेता से क्रेता के पास जाती है। एक बार जब माल की संपत्ति क्रेता के पास चली जाती है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि क्रेता को विक्रेता की संपत्ति सौंपी गई थी। संपत्ति सौंपे बिना कोई भी आपराधिक विश्वासघात नहीं हो सकता। इस प्रकार, माल की बिक्री के मामले में प्रतिफल राशि का भुगतान करने में विफलता के लिए, आपराधिक विश्वासघात के आरोप में मामलों का अभियोजन मूल रूप से त्रुटिपूर्ण है। प्रतिफल राशि का भुगतान न करने पर दीवानी उपचार हो सकता है, लेकिन इसके लिए कोई आपराधिक मामला नहीं चल सकता है।