कानून और न्याय: पुरुष भी महिला हिंसा से पीड़ित, ऐसे किस्सों की कमी नहीं!     

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कानून और न्याय: पुरुष भी महिला हिंसा से पीड़ित, ऐसे किस्सों की कमी नहीं!

    

– विनय झैलावत

 

भारत में एक आम धारणा है कि पुरूषों को सख्त होना चाहिए और अपनी भावनाओं को छिपाना चाहिए। इससे पुरूषों के लिए अपनी पीड़ा व्यक्त करना कठिन हो जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए जैसे कानून महिलाओं को क्रूरता से बचाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। लेकिन पुरुषों को घरेलू हिंसा के शिकार के रूप में मान्यता नहीं देते हैं। जहां भारत में महिलाओं को हिंसा से बचाने के लिए सख्त कानून हैं। वहीं दूसरी ओर पुरुषों को समान स्थितियों में बचाने के लिए कानून की कमी है। दुर्भाग्य से, बहुत से लोग यह नहीं मानते कि महिलाएं पुरूषों को नुकसान पहुंचा सकती है। लेकिन, व्यक्तिगत साक्षात्कार और अनुभव बताते हैं कि पुरूषों को भी घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है। हाल ही की एक घटना में मुन्नेकोल्लाल निवासी अतुल सुभाष ने अपने अपार्टमेंट के अंदर आत्महत्या कर ली। उनकी मृत्यु के बाद, उनके भाई विकास कुमार ने सोमवार को सुभाष की अलग पत्नी निकिता सिंघानिया, उनकी मनिषा, भाई अनुराग और चाचा सुशील के खिलाफ शिकायत दर्ज की, जिसके बाद मराठाहल्ली पुलिस ने उन पर आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया।

अपनी शिकायत में कुमार ने आरोप लगाया कि उसके ससुराल वालों की लगातार प्रताड़ना और मांगों ने सुभाष को किनारे कर दिया था। सुभाष उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे और उन्होंने 2019 में एक साॅफ्टवेयर पेशेवर निकिता से शादी की। बाद में वे अलग हो गए। सुभाष पर कई आरोपों के तहत नौ मामले चल रहे थे। इनमें हत्या, दहेज उत्पीड़न, अप्राकृतिक यौन संबंध आदि शामिल थे। कुछ मामलों में उनके माता-पिता को भी आरोपी के रूप में नामित किया गया था। पुलिस ने कहा कि सुभाष ने 24 पन्नों का एक नोट छोड़ा था, जिसमें उसने अपनी आपबीती सुनाई थी और अपनी गर्दन पर एक बोर्ड के साथ 81 मिनट का एक वीडियो भी पोस्ट किया था। इस पर ‘जस्टिस इज ड्यू’ लिखा अर्थात न्याय शेष है था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि उत्तर प्रदेश में उनके ससुराल वालों का पक्ष लेने वाले पारिवारिक न्यायालय के एक न्यायाधीष पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था।

बेंगलुरू में मरने वाले उत्तर प्रदेश के 34 वर्षीय साॅफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष द्वारा छोड़े गए सुसाइड नोट ने पारिवारिक अदालत प्रणाली के अंधेरे पक्ष पर प्रकाश डाला है। 20 पन्नों से अधिक के सुसाइड नोट और वीडियो में, जहां सुभाष ने अपनी पत्नी के साथ अपने इतिहास, अदालती मामले और उनके परिवार और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव का विवरण दिया है, ने व्यवस्था के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा कर दी है। सुभाष के पत्र में उनकी पत्नी, उनके परिवार और यहां तक कि अदालत प्रणाली पर भी उन्हें जीवन समाप्त करने के फैसले की ओर धकेलने के गंभीर आरोप लगाए गए हैं। हालांकि, आत्महत्या के लिए उकसाने से संबंधित प्रावधानों पर एक नजर डालने से यह सवाल उठता है कि क्या यह मामला सख्त कानूनी परिभाषा के दायरे में आएगा।

आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों के विभिन्न निर्णयों में, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जहां ससुराल वालों की क्रूरता के कारण महिलाएं आत्महत्या कर लेती हैं, यह नोट किया गया है कि ऐसे मामलों में उकसाने के घटकों पर विचार किया जाना चाहिए। जबकि मृत्यु पूर्व बयान या सुसाइड नोट को महत्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में देखा जाता है। अदालतों ने माना है कि आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध के लिए मृत्यु पूर्व बयान या सुसाइड नोट भी सजा के लिए पर्याप्त नहीं है। भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) आत्महत्या के लिए उकसाने को परिभाषित करने के लिए पिछले भारतीय दंड संहिता की तरह ही भाषा का उपयोग करती है।

भारतीय न्याय संहिता की धारा 108 में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या से मर जाता है, तो जो कोई भी ऐसी आत्महत्या के लिए उकसाता है, उसे दस साल तक की कैद सजा दी जाएगी और जुर्माना भी लगाया जा सकता है। किसी आपराधिक कृत्य के लिए उकसाने का अपराध बीएनएस की धारा 45 के तहत उकसाने शब्द की एक विस्तृत परिभाषा भी देता है। सुभाष के सुसाइड नोट में उनकी पत्नी के कार्यों के कारण उन्हें महसूस हुई निराशा का विस्तृत विवरण दिया गया है। यहां तक कि दो उदाहरणों का भी हवाला दिया गया है जहां उनकी पत्नी और सास ने उन्हें आत्महत्या करके मरने के बारे में ताना मारा था। तब भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या इसे उसके खुद की जान लेने के फैसले का निकटतम या प्रत्यक्ष कारण माना जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने अपने हालिया फैसले में इस बात पर जोर दिया कि केवल उत्पीड़न आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए पर्याप्त नहीं है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उकसावे को सिद्ध किया जाना चाहिए। अदालत ने एक महिला को आत्महत्या के लिए मजबूर करने के आरोपी तीन लोगों को उकसाने के आरोप से बरी कर दिया। जबकि क्रूरता के आरोपों को बरकरार रखा। यह फैसला आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में स्पष्ट इरादे की आवश्यकता को स्पष्ट करता है।

आत्महत्या के लिए उकसाने की धारा पुलिस अधिकारियों द्वारा दंडात्मक कानून के सबसे अधिक दुरूपयोग में से एक लगती है। क्योंकि, पुलिस मृतक और संदिग्ध के लिंग और स्थिति के आधार पर इस धारा को अलग-अलग तरीके से लागू करती है। हालांकि जब आरोपी एक महिला होती है तो वे नरमी दिखाते हैं, लेकिन पुरूषों पर मामला दर्ज करने और उन्हें गिरफ्तार करने में वे अनुचित जल्दबाजी करते हैं, खासकर जब मृतक एक महिला होती है।

एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा माना है कि दहेज विरोधी कानून विवाहित महिलाओं को दहेज उत्पीड़ने से बचाने के लिए बनाया गया था। लेकिन सभी पारिवारिक विवाद के मामलों में आईपीसी की धारा 498-ए के इस प्रावधान का उपयोग करना कानून के खुले दुरूपयोग के अलावा और कुछ नहीं है। धारा 498-ए के तहत, पुलिस को बिना किसी वारंट के आरोपी को गिरफ्तार करने की शक्ति है। आमतौर पर ऐसे मामलों में जमानत नहीं दी जाती है।

ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें दहेज विरोधी कानून प्रावधानों के तहत परिवारों को अनुचित रूप से परेशान किया गया था। अदालतों ने दंपतियों के बीच समझौता कराने के लिए हर जिले में परिवार कल्याण समिति के गठन की सलाह दी थी। पर ऐसा हुआ नहीं। शादी से जुड़े लगभग हर मामले को दहेज उत्पीड़न का मामला बताकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। यदि यह दुरूपयोग जारी रहा, तो विवाह की संस्था ही समाप्त हो सकती है।

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