
Law and justice: जनहित याचिका बुनियादी मानवाधिकारों की संरक्षक!
विनय झैलावत
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक लोकहित याचिका में इस प्रश्न पर विचार किया कि किन मामलों में न्यायालयों को लोकहित याचिकाओं पर विचार किया जाना चाहिए। भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई, न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एसएस चंदूकर की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने याचिकाकर्ता घनश्याम दयालु उपाध्याय द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई की। इस याचिका में न्यायालय से अनुरोध किया गया था कि वह सभी राज्य चुनाव आयोगों को एक संयुक्त योजना बनाने का आदेश दे, ताकि देश में राजनीतिक दलों की उन अवैध गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। उन पर अंकुश लगाया जा सके जो भारत की संप्रभुता, अखंडता और एकता को खतरे में डालने का प्रयास करती है।
याचिका की सुनवाई की शुरुआत में, मुख्य न्यायाधीश गवई ने गहरी नाराजगी जाहिर की। उन्होंने सवाल किया कि याचिकाकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत बॉम्बे उच्च न्यायालय का रुख क्यों नहीं किया? याचिकाकर्ता ने इससे परे अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का हवाला दिया। याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि मांगी गई राहत का दायरा सभी राज्य चुनाव आयोग तक फैला हुआ है। इसलिए, एक भी उच्च न्यायालय इस तरह के अखिल भारतीय निर्देश नहीं दे सकता है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय पीठ ने स्पष्ट किया कि ऐसी परिस्थितियों में भी, उच्च न्यायालय जहां भी याचिका का कोई हिस्सा उसकी क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर उत्पन्न होता है, अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकता है।

मुख्य न्यायाधीश गवई ने टिप्पणी की कि वर्तमान याचिका एक प्रचार हित याचिका के अलावा और कुछ नहीं है। हालांकि जनहित याचिकाएं नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है। पीठ ने कहा कि हमने बार-बार न्यायिक दुस्साहस को अस्वीकार किया है। यह याचिका न केवल केंद्र सरकार और भारत के चुनाव आयोग से संबंधित नीतिगत मामलों से जुड़ी है, बल्कि यह भी स्पष्ट नहीं करती है कि याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष समान रूप से प्रभावी उपाय का उपयोग किए बिना सीधे इस न्यायालय का रुख क्यों किया। जब वकील ने अपनी दलीलें जारी रखने की कोशिश की, तो मुख्य न्यायाधीश ने नाराजगी जाहिर करते हुए कड़ी चेतावनी देते पीठ ने कहा कि हम आपको एक बार अवमानना से बचा चुके हैं। क्या आप चाहते हैं कि हम फिर से नोटिस जारी करें? इस पर, याचिकाकर्ता ने याचिका वापस लेने का अनुरोध किया। इस पर पीठ ने अनुमति देते हुए कानून के अनुसार उचित कानूनी मंच पर जाने की स्वतंत्रता प्रदान की।
जनहित याचिका का अर्थ है जनहित की भावना से प्रस्तुत मुकदमा। इसी प्रकार, जनहित याचिका एक ऐसी कानूनी कार्रवाई है जो मुख्य रूप से जनता के लाभ के लिए है। इसमें उन शिकायतों का समाधान करने के लिए प्रस्तुत की जाती है जिनके कारण आम जनता के कानूनी अधिकार या दायित्व किसी भी तरह से प्रभावित हो रहे हो। संविधान में जनहित याचिका जैसी अवधारणा के निर्माण के दौरान, इसका एक उद्देश्य था। मूल रूप से संविधान निर्माताओं के लक्ष्यों, जैसे कानून का शासन, हितों का संतुलन, तर्कसंगतता और मनमानी न करना, को प्राप्त करना और उन्हें गति प्रदान करना मुख्य था। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के संदर्भ में संवैधानिक भावना के आवश्यक सिद्धांत हैं।
जनहित याचिका के प्रावधानों का आशय और मुख्य रणनीति उन लोगों के लिए न्याय प्रणाली को सुलभ बनाना था, जो निरक्षरता, गरीबी, पिछड़ेपन आदि जैसे विभिन्न कारणों से अदालतों का रुख नहीं कर सकते है। इसलिए, जनता के किसी भी व्यक्ति को समग्र जनता की ओर से उपस्थित होने की अनुमति है। लेकिन, ऐसे मामलों में पर्याप्त जनहित के साथ-साथ जन क्षति के साथ सामान्यतः, याचिकाकर्ता पर यह साबित करने का दायित्व होता है कि कार्रवाई का कारण सार्वजनिक भावना है, न कि किसी प्रकार के दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य अथवा स्वयं का व्यक्तिगत हित। दुर्भाग्यवश, 21वीं सदी में जनहित याचिका प्रचार/राजनीतिक हितों की पूर्ति का पर्याय बन गई है। कई कानूनी पेशेवर, मध्यम वर्ग के लोग, जिनमें ज्यादातर मशहूर हस्तियां शामिल जो इसका कई बार दुरुपयोग करते हैं। इसे जनता का ध्यान आकर्षित करने, प्रचार और प्रसिद्धि पाने के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
जनहित याचिका एक ऐसा हथियार है जिसका इस्तेमाल बहुत सोच-समझकर और सतर्कता से किया जाना चाहिए। न्यायपालिका को भी इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि जनहित की आड़ में, भारी निजी प्रतिशोध, व्यक्तिगत हित और जोखिम की तलाश न छिपी हो। इसका इस्तेमाल सतर्कता के साथ किया जाना चाहिए। नागरिकों को न्याय दिलाने के लिए कानून के शस्त्रागार में एक मजबूत लेकिन संवेदनशील हथियार के रूप में इसका सावधानीपूर्वक इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जनहित याचिका के आकर्षक पहलू का इस्तेमाल संदिग्ध या कपटपूर्ण उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसका ध्यान वास्तविक समस्याओं के निवारण या बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षति पर होना चाहिए, न कि केवल प्रचार या लोकप्रियता हासिल करने पर। जनहित की व्याख्या सख्ती से की जानी चाहिए। यह जनहित के लिए है और इसका किसी भी मामले में दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। कोई भी जनहित याचिका न्यायालय में स्वीकार्य नहीं है जो बिना किसी प्रत्यक्ष उद्देश्य के दायर की गई हो।
सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी कई जनहित याचिकाओं में यह माना है कि चाहे कोई भी मामला कितना भी वास्तविक क्यों न हो, उसे जनहित याचिका के रूप में न्यायालय के समक्ष निरंतर ध्यान में रखा जाता है। लेकिन न्यायालय का यह पहला और सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है कि वह याचिकाकर्ता और उसके पक्ष की विश्वसनीयता की संक्षिप्त जांच करे, जो जनभावनाओं के अनुरूप होनी चाहिए। यदि याचिकाकर्ता ने जनहित याचिका के प्रभावी साधन का किसी भी प्रकार के तुच्छ उद्देश्यों के लिए दुरुपयोग किया है, तो न्यायालय न्यायपालिका का बहुमूल्य समय बर्बाद करने के लिए याचिकाकर्ता को दंडित करने और जुर्माना लगा सकता है। अनुच्छेद 32 के तहत जनहित याचिका का उपयोग किसी नीति के विरुद्ध अपनी राय निर्धारित करने या प्रदर्शित करने के उद्देश्य से नहीं किया जा सकता है। इसकी व्याख्या सख्ती से की जानी चाहिए। इसका उपयोग केवल आम जनता के मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों में ही किया जाना चाहिए।
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वर्तमान में, बड़ी संख्या में लोग, जिनमें कई बार अपने-अपने क्षेत्र की मशहूर हस्तियाँ शामिल होती हैं, जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं। इनका उद्देश्य जनभावना के नाम पर लोकहित को रोकने के लिए याचिकाएं दायर करना है, जो एक प्रकार का अपराध है। यद्यपि, जनहित याचिकाओं की विश्वसनीयता की जांच करने के लिए पहले से ही प्रक्रियाएं मौजूद हैं। लेकिन, न्यायपालिका प्रणाली को जनहित याचिका की वास्तविकता के मूल्यांकन के संबंध में अधिक सख्त मूल्यांकन अपनाना चाहिए। यदि अदालतें जनहित याचिका के नाम पर मामलों के मुक्त प्रवाह को प्रतिबंधित नहीं करती हैं, तो पारंपरिक मुकदमेबाजी को नुकसान होगा। जनहित याचिकाओं को केवल उन मामलों में अनुमति दी जानी चाहिए जहां किसी समूह या वर्ग कार्रवाई द्वारा मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन होता है। केवल ऐसी याचिकाओं को सुना जाना चाहिए जहां बुनियादी मानवाधिकारों पर आक्रमण हो अथवा ऐसे कृत्यों की शिकायत हो जो न्यायिक विवेक को झकझोर के लिए पर्याप्त है।
न्यायालय की यह जिम्मेदारी है कि वह आकलन करे कि जनहित याचिका वास्तविक है अथवा नहीं। उसमें कानूनी तंत्र का दुरुपयोग तो नहीं है। यदि वह केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए छद्म मुकदमा है, तो उस पर कठोर दंड लगाया जाना चाहिए। जनहित याचिका मूलतः आम जनता के बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा के लिए है। यह विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों और शक्तियों में हस्तक्षेप करने के लिए नहीं है। इसलिए, जनहित याचिका का उद्देश्य सार्वजनिक नीतियों का पक्ष लेना है, उनकी आलोचना करना या उन पर चर्चा करना नहीं है।
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