कानून और न्याय: हिंदू विवाह अधिनियम में ‘जैन’ के सम्मिलित होने पर सवाल        

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कानून और न्याय: हिंदू विवाह अधिनियम में ‘जैन’ के सम्मिलित होने पर सवाल  

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● विनय झैलावत

हाल ही में कुटुंब न्यायालय के एक आदेश ने सबको चौंका दिया है। यह कहना अधिक सही होगा कि विधि के जानकारों को भी स्तंभित किया। सामान्यतः कानून की ऐसी विवेचना की कल्पना भी संभव नहीं थी। कुटुंब न्यायालय ने आपसी सहमति से तलाक के एक मामले में यह ठहराया कि, जैन धर्म मानने वालों को केंद्रीय सरकार द्वारा राजपत्र द्वारा अल्पसंख्यक ठहराया गया। इससे यह प्रतीत होता है कि जैन अल्पसंख्यक होकर एक बहुसंख्यक हिंदू समुदाय में सम्मिलित नहीं हो सकते हैं। इस कारण इन पर हिन्दू विवाह अधिनियम प्रावधान लागू नहीं होंगे। कुटुंब न्यायालय के समक्ष यह याचिका याचिकाकर्ता पति-पत्नी द्वारा आपसी सहमति से तलाक प्राप्त करने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी के अंतर्गत प्रस्तुत की थी।

कुटुंब न्यायालय ने विचार के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि उक्त आवेदन प्रचलन योग्य नहीं है। कुटुंब न्यायालय ने कहा कि उक्त दंपत्ति धारा 7 कुटुंब न्यायालय में उपयुक्त आवेदन लगा सकते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत धारा 2 (क) के प्रावधानों के अनुसार हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो हिंदू धर्म के किसी भी रूप या विकास के अनुसार, जिसके अंतर्गत वीरशैव, लिंगायत अथवा ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज या आर्य समाज के अनुयायी भी आते हैं, धर्मतः हिंदू हो एवं धारा 2 (ख) के अनुसार ऐसे किसी भी व्यक्ति को धर्मतः जैन, बौद्ध या सिख हो। धारा 2 (1) हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधान यह कहते हैं कि उक्त अधिनियम केवल हिंदू धर्म के अनुयायी या सिख, बौद्ध एवं जैन समाज भी उक्त अधिनियम के अधीन है। इन प्रावधानों को देखते हुए कुटुंब न्यायालय का यह निष्कर्ष सही प्रतीत नहीं होता है कि जैन हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते।

 

लेकिन, कुटुंब न्यायालय ने अपने इस फैसले में यह ठहराया है कि वर्ष 2014 अल्पसंख्यक मंत्रालय के एक अधिसूचना के द्वारा जैन धर्मावलंबियों को अल्पसंख्यक अधिसूचित किया जा चुका है। उक्त अधिसूचना को माना जाए तो प्रश्न उपस्थित होता है, कि क्या एक अल्पसंख्यक समाज, हिंदू समाज का जो कि बहुमुखी है, का हिस्सा हो सकता है? अपने विचार में न्यायाधीश ने कई वेद पुराणों का उल्लेख भी किया। इनमें यह उल्लेख है कि हिंदू धर्म में वेद उपनिषद एवं स्मृति जैसे ग्रंथों की मान्यता है। वही जैन धर्म का आगाम जैसे अनेक पृथक पवित्र ग्रंथ है। हिंदू समाज में विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। वहीं दूसरी ओर जैन धर्म में यह मान्यता नहीं है। ऐसी स्थिति में जैन विवाह को हिंदू विवाह की श्रेणी में नहीं माना जा सकता। इस स्थिति में जैन धर्म एवं अन्य समुदायों के लोग हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत एवं अधीन नहीं माने जा सकते।

यहां तक कि उक्त न्यायालय के समक्ष तर्क के समय इस आशय का भी तर्क किया गया कि जैन धर्म के अनुयायी द्वारा भी विवाह के समय हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 में उल्लेखित सप्तपदी संस्कार का पालन किया जाता है। इस कारण ऐसी अनुयायी को हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत भी अनुतोष पाने का अधिकार है। कुटुंब न्यायालय ने इस संबंध में 10वीं शताब्दी में आचार्य श्री वर्धमान सूरीश्वरजी महाराज द्वारा रचित ग्रंथ आचार्य दिनकर ग्रंथ का उल्लेख किया है। इसके 14वें खंड में जैन मान्यताओं के अनुसार विवाह के लिए किए जाने वाले सम्पूर्ण अनुष्ठानों का उल्लेख किया गया है। जिसके अनुसार जैन विवाह विधि में स्थापना विधि, आत्मरक्षा, मंत्रस्नान, क्षेत्रपाल पूजा, मनधोड़ बंधन, अरहत पूजन, सिद्ध पूजन, गांधार पूजन, शास्त्र पूजन, चौबीस यक्ष यक्षिणी पूजन, दस दिगपाल पूजन, सोलह विद्यादेवी पूजन, बार राशि पूजन, नवग्रह पूजन, सत्यविश नक्षत्र पूजन, चोरण प्रतिष्ठा, विधि प्रतिष्ठा, हस्तमिलाप, प्रदक्षिणा (चार बार), वरमाला, अभिसिंचन, सात प्रतिज्ञा, आरती एवं क्षमायाचना किए जाने का उल्लेख किया गया। जिससे स्पष्ट है कि जैन धर्म में उल्लेखित विवाह विधि हिंदू धर्म में उल्लेखित विवाह विधि से भिन्न है।

धारा 2 (1) हिन्दू विवाह अधिनियम के प्रावधान से यह स्पष्ट है कि जैन धर्म उक्त अधिनियम के अंतर्गत जैन धर्म द्वारा संपन्न विवाह विधिवत एवं मान्य है। परंतु, इस मामले में कुटुंब न्यायालय द्वारा यह भी ठहराया गया कि उक्त जैन धर्म को अधिसूचना 27 जनवरी 2014 द्वारा यह अधिसूचित कर दिया गया कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम के अंतर्गत जैन समुदाय को उक्त अधिनियम के प्रयोजनों के लिए उन्हें धारा 2 खंड (ग) में शामिल किया जाता है। यह बात ध्यान रखना होगी कि उक्त अधिसूचना के अंतर्गत केवल राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम के लिए ही जैन समाज को अल्पसंख्यक माना गया है। साथ ही उक्त अधिसूचना के आधार पर हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों में कोई बदलाव प्रभावशील नहीं हुआ और न कोई अधिसूचना उक्त बदलाव के संदर्भ में जारी हुई। अतः उक्त अधिसूचना 27 जनवरी 2014 का किसी प्रकार का बदलाव हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों पर नहीं पड़ना चाहिए।

गौरतलब है कि उक्त फैसले पर एक याचिका पहले ही उच्च न्यायालय की युगल खंठपीठ के समक्ष प्रस्तुत की जा चुकी है। उक्त मामले में युगल पीठ के समक्ष यह बात रखी गई कि उक्त फैसले के आलोक में 28 याचिकाएं उक्त कुटुंब न्यायालय द्वारा खारिज की गई। अतः उच्च न्यायालय की युगल पीठ द्वारा कुटुंब न्यायालय को यह निर्देश दिए गए कि अगली सुनवाई तक कुटुंब न्यायालय अपने समक्ष विचाराधीन कोई अन्य याचिका अपने इस आदेश के प्रकाश में खारिज न करें। यह पहली बार नहीं है, जब इस मुद्दे पर चर्चा हुई। इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने भी बाल पाटिल विरूद्ध भारत संघ में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरसी लाहोटी, न्यायमूर्ति डीएम धर्माधिकारी और न्यायमूर्ति पीके बालासुब्रमण्यम की पीठ ने कहा कि संविधान निर्माण के समय सिख और जैन जैसे तथाकथित अल्पसंख्यक समुदायों को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक नहीं माना गया था।

वास्तव में, सिखों और जैनों को हमेशा व्यापक हिंदू समुदाय का हिस्सा माना गया। इसमें विभिन्न संप्रदाय, उप-संप्रदाय, विश्वास, पूजा की विधियां और धार्मिक दर्शन शामिल हैं। संविधान के प्रावधानों और देश के विभाजन के बाद संविधान के अस्तित्व में आने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसी विघटनकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देना संवैधानिक लोकतंत्र की धर्मनिरपेक्ष संरचना के लिए एक गंभीर आघात होगा। हमें अपने देश को बहुराष्ट्रीयता पर आधारित एक धार्मिक राज्य के समान बनने से बचाना चाहिए। हमारे धर्मनिरपेक्षता के विचार को संक्षेप में कहें तो, इसका अर्थ है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। साथ ही, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से आग्रह किया कि वह सभी धार्मिक समूहों को संवैधानिक दृष्टिकोण, सिद्धांतों और आदर्शों को ध्यान में रखते हुए सही दिशा में बनाए रखने के लिए अपनी गतिविधियों को तेज करे।

पीठ की ओर से अपने निर्णय में यह कहा गया कि संविधान ने स्पष्ट रूप से यह निर्धारित किया है कि राज्य सभी धर्मों और धार्मिक समूहों के साथ समान व्यवहार करेगा और उन्हें समान सम्मान देगा। लेकिन, उनके व्यक्तिगत अधिकारों, धर्म, आस्था और पूजा में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम और अन्य पूर्व और उत्तर-संविधान काल के विभिन्न संहिताबद्ध प्रथागत कानूनों में हिंदू की परिभाषा में हिंदू धर्म के सभी संप्रदाय, उप-संप्रदाय, सिख और जैन शामिल हैं। अब यह देखना दिलचस्प यह होगा कि इन मामलों में उच्च न्यायालय द्वारा इस संबंध में क्या निर्णय लिया जाता है।