कानून और न्याय:वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल में विफलता पर उपहार रद्द करने का अधिकार!
– विनय झैलावत
यह मामला माता उर्मिला दीक्षित और उनके बेटे सुनील शरण दीक्षित के बीच संपत्ति विवाद के इर्द-गिर्द घूमता है। माता द्वारा सन 1968 में खरीदी गई एक संपत्ति को 9 सितंबर 2019 को एक उपहार विलेख के माध्यम से अपने बेटे को हस्तांतरित कर दी गई थी। उपहार विलेख में एक खंड शामिल था, जिसमें कहा गया था कि बेटा अपनी मां की देखभाल करेगा और उसकी जरूरतों को पूरा करेगा। हालांकि, यह आरोप लगाया गया था कि सुनील इन दायित्वों का पालन करने में विफल रहा। इससे उसकी मां और पिता संकट में पड़ गए। 24 दिसंबर, 2020 को, उर्मिला ने मध्य प्रदेश के छतरपुर में उप-मंडल मजिस्ट्रेट से संपर्क किया। इसमें माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 के रखरखाव और कल्याण की धारा 22 और 23 के तहत उपहार विलेख को रद्द करने की मांग की गई। मां ने दावा किया कि उसका बेटा न केवल उसकी देखभाल करने में विफल रहा, बल्कि उनके साथ शारीरिक हमलों सहित दुर्व्यवहार भी किया। एसडीएम. ने उपहार विलेख को अमान्य घोषित कर दिया। इस निर्णय को जिला कलेक्टर और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने भी बरकरार रखा।
हालांकि, उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इन फैसलों को यह कहते हुए उलट दिया कि उपहार विलेख में स्पष्ट रूप से कानूनी रूप से लागू करने योग्य रखरखाव खंड शामिल नहीं था। इस परिणाम से असंतुष्ट माता उर्मिला ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। मामले के केंद्र में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक के रखरखाव और कल्याण अधिनियम, 2007 की धारा 23 है। यह प्रावधान वरिष्ठ नागरिकों को उपहार या अन्य माध्यमों से हस्तांतरित संपत्ति को पुनः प्राप्त करने की अनुमति देता है, यदि हस्तांतरणकर्ता बुनियादी देखभाल और सुविधाएं प्रदान करने में विफल रहता है। एक सामाजिक कल्याण उपाय के रूप में तैयार किए गए इस अधिनियम का उद्देश्य बुजुर्गों को उपेक्षा से बचाना और तेजी से बदलते सामाजिक ताने-बाने में उनकी गरिमा सुनिश्चित करना है। वैसे भी समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली समाप्त हो रही है।
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रमुख कानूनी मुद्दे यह थे कि क्या मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की खंड पीठ ने पहले के फैसलों को पलटने में गलती की थी। साथ ही अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या कैसे की जानी चाहिए, सख्ती से, जैसा कि डिवीजन बेंच ने तर्क दिया, या उदारता से, इसके कल्याण-उन्मुख उद्देश्यों के अनुरूप। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार और न्यायमूर्ति संजय करोल की खंडपीठ ने एक विस्तृत निर्णय दिया। इसमें अपीलार्थी के अधिकारों को बहाल किया गया और मध्य प्रदेश की खंडपीठ के फैसले को रद्द कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि रखरखाव अधिनियम के तहत न्यायाधिकरणों के पास न केवल उपहार विलेखों को रद्द करने का अधिकार है। बल्कि, वरिष्ठ नागरिकों को संपत्ति का कब्जा भी बहाल करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच को इस व्याख्या को खारिज कर दिया कि अधिकरण कब्जे का आदेश नहीं दे सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह का संकीर्ण दृष्टिकोण अधिनियम के उद्देश्यों को कम करता है।
धारा 23 की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जहां कोई वरिष्ठ नागरिक, जिसने इस अधिनियम के पश्चात अपनी संपत्ति का दान के रूप में या अन्यथा अंतरण इस शर्त के अधीन रहते हुए किया है कि अंतरिती, अंतरण को बुनियादी सुख-सुविधाएं और बुनियादी भौतिक आवश्यकता प्रदान करने से इंकार करेगा और ऐसा अंतरिती ऐसी सुख-सुविधाओं तथा भौतिक आवश्यकताएं प्रदान करने से इंकार करेगा या असफल रहेगा तो संपत्ति का उक्त अंतरण कपट या उत्पीड़न अनावश्यक प्रभाव के अधीन किया गया समझा जाएगा। इसके अलावा यदि कोई वरिष्ठ नागरिक उपधारा (1) और उपधारा (2) के अधीन अधिकार को प्रवर्तित कराने में असमर्थ है तो धारा 5 की उपधारा (1) के स्पष्टिकरण में निर्दिष्ट किसी संगठन द्वारा उसकी ओर से कार्रवाई की जा सकेगी।
यानी, अगर कोई माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक किसी संतान को या अपने परिजन को उपहार विलेख या कोई उक्त प्रकृति का कोई विलेख निष्पादित करता है, तो उस पर उक्त वरिष्ठ नागरिक/माता-पिता की देखभाल करने का दायित्व हो जाता है, जिसके अभाव में उक्त विलेख शून्य प्रभावी होगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने एसडीएम, जिला कलेक्टर और उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के पहले के फैसलों को बहाल करते हुए खंडपीठ के फैसले को रद्द कर दिया। न्यायालय ने उपहार विलेख को अमान्य घोषित कर दिया गया। माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के रखरखाव और कल्याण अधिनियम, 2007 बुजुर्ग व्यक्तियों के कल्याण और उनकी उपेक्षा को कम के लिए बनाया गया है। इसकी जानकारी बुजुर्गों और माता-पिता को होना आवश्यक है।
अधिनियम के अंतर्गत बच्चों की परिभाषा में (नाबालिग बच्चों को छोड़कर) बच्चे और नाती-पोते शामिल हैं। जबकि, विधेयक इस परिभाषा में सौतेले पुत्र, दत्तक पुत्र (जिन्हें गोद लिया गया है), पौत्र, पौत्री, बहु, दामाद को शामिल करता है। इसके अलावा यह विधेयक नाबालिग बच्चों के वैधानिक अभिभावक को भी इसमें शामिल करता है। इसके अतिरिक्त अधिनियम के अनुसार संबंधी का अर्थ किसी संतान रहित वरिष्ठ नागरिक के वैधानिक उत्तराधिकारी से है जिसके पास उस वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति है या उसकी मृत्यु के बाद विरासत में मिलेगी। इसमें नाबालिग बच्चे शामिल नहीं है, जबकि विधेयक में नाबालिग बच्चों को भी शामिल किया गया है जिनका प्रतिनिधित्व उनके वैधानिक अभिभावक करेंगे।
अधिनियम में माता-पिता का अर्थ जैविक, गोद लेने वाले और सौतेले माता-पिता से है, जबकि विधेयक माता-पिता की परिभाषा में सास-ससुर, दादा-दादी और नाना-नानी को भी शामिल करता है। अधिनियम के अंतर्गत भरण-पोषण में भोजन, कपड़ा, आवास, चिकित्सीय सहायता और उपचार शामिल है, जबकि विधेयक भरण-पोषण में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों के लिये स्वास्थ्य देखभाल, बचाव और सुरक्षा के प्रावधान को भी शामिल करता है ताकि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। अधिनियम के तहत कल्याण में भोजन, स्वास्थ्य देखभाल और वरिष्ठ नागरिकों के लिय जरूरी अन्य सुविधाएं शामिल हैं, जबकि विधेयक कल्याण में आवास, कपड़े, सुरक्षा और वरिष्ठ नागरिकों या माता-पिता के शारीरिक एवं मानसिक कल्याण के लिये आवश्यक अन्य सुविधाओं को भी शामिल करता है।
अधिनियम के अंतर्गत राज्य सरकारें भरण-पोषण अधिकरण बनाएंगी ताकि वरिष्ठ नागरिकों और माता-पिता को देय भरण-पोषण राशि पर निर्णय किया जा सके। यह अधिकरण बच्चों और संबंधियों को निर्देश दे सकता है कि वे माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण हेतु दस हजार रूपए का मासिक शुल्क अदा करें। विधेयक भरण-पोषण शुल्क की अधिकतम सीमा को भी हटाता है तथा अधिकरण को इस शुल्क की अधिकतम राशि निर्धारित करने की शक्ति देता है। अधिकरण भरण-पोषण की राशि पर फैसला करने के लिए माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक का जीवन स्तर और आय एवं बच्चों की आय पर विचार कर सकता है।
अधिनियम में यह भी अपेक्षा की गई है कि वरिष्ठ नागरिक के बच्चे और संबंधी आदेश के तीस दिनों के भीतर संबंधित माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक को भरण-पोषण की राशि दें। विधेयक इस अवधि को तीस दिन से घटाकर पन्द्रह दिन भी करता है। अधिनियम के अंतर्गत वरिष्ठ नागरिक या माता-पिता को त्यागने पर तीन महीने की कैद या पांच हजार रूपए का जुर्माना या दोनों सजा हो सकती है, जबकि विधेयक कैद की अवधि को तीन महीने से बढ़ाकर छह महीने और जुर्माने की राशि को बढ़ाकर अधिकतम दस हजार रूपए करता है या दोनों सजाएं साथ-साथ भुगतनी पड़ सकती है।
विधेयक में यह प्रावधान भी है कि अगर बच्चे या संबंधी भरण-पोषण के आदेश का अनुपालन नहीं करते तो अधिकरण देय राशि की वसूली के लिए वारंट जारी कर सकता है। इसके साथ ही जुर्माना न चुकाने की स्थिति में एक महीने तक की कैद या जब तक जुर्माना नहीं चुकाया जाता तब तक की कैद हो सकती है। अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि अधिकरण की कार्यवाही के दौरान माता-पिता का प्रतिनिधित्व भरण-पोषण अधिकारी द्वारा किया जाएगा, जबकि विधेयक के अंतर्गत भरण-पोषण अधिकारी से भरण-पोषण के भुगतान से संबंधित आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करना तथा माता-पिता या वरिष्ठ नागरिकों के लिये संपर्क सूत्र का काम करना अपेक्षित है।