चुनाव के दौरान उत्तेजना फैलाने वाले भाषणों एवं पोस्टरों के संबंध में मुंबई उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत एक मामले में दिया गया फैसला अवलोकनीय है। बाद में इस फैसले की अपील सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनाव याचिका में पराजित उम्मीदवार द्वारा प्रस्तुत की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले को यथावत रखा। इस मामले में मुंबई उच्च न्यायालय ने शिवसेना के एक निर्वाचित उम्मीदवार के निर्वाचन को इसी आधार पर भ्रष्ट आचरण मानते हुए निरस्त कर दिया था।
मुंबई उच्च न्यायालय में प्रस्तुत चुनाव याचिका में पराजित उम्मीदवार द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि निर्वाचित शिवसेना के उम्मीदवार ने हिन्दू धर्म के आधार पर चुनाव लड़ा था। उन्होंने अपने अभियान के दौरान समाज के एक वर्ग विशेष को सबक सिखाने का आह्वान कर दोनों सम्प्रदायों के बीच नफरत पैदा करने की कोशिश की थी। याचिकाकर्ता ने अपने इस कथन के प्रमाण स्वरूप शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में प्रकाशित उन विज्ञापनों को हवाला दिया था जिनमें हिंदुत्व को खतरे में होने तथा हिंदुओं को सचेत होने का आह्वान किया गया था। इसके अलावा शिवसेना का चुनाव घोषणा पत्र, सभाओं में तथा पोस्टरों और विडियों कैसेटों जैसी चुनाव सामग्री भी उच्च न्यायालय के समक्ष साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि विजयी उम्मीदवार के पक्ष में भाजपा और शिवसेना द्वारा दिए गए भाषण जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (3) तथा 123 (3 क) के अधीन स्पष्ट रूप से भ्रष्ट आचरण के दायरे में आता है।
याचिका में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए शिवसेना के विजयी उम्मीदवार का कहना था कि शिवसेना एक ऐसा मान्यता प्राप्त दल है, जो समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता तथा प्रजातंत्र के सिद्धांत में विश्वास करता है। शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में बाला साहब ठाकरे द्वारा व्यक्त विचार उनकी अपनी निजी राय थी। यह भी कहा गया कि धर्म के आधार पर संचालित चुनाव अभियान के आधार पर भाजपा एवं शिवसेना के अन्य उम्मीदवारों को चुनौती नहीं दी गई है। उनकी और से यह भी कहा गया कि न्यायालय को केवल शिवसेना के घोषणा पत्र पर ही गौर करना चाहिए। याचिका पर निर्णय देते समय ठाकरे के बयानों अथवा विचारों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। इस उम्मीदवार ने यह स्वीकार किया कि शिवसेना बाल द्वारा बुलाई गई चुनाव सभा में ठाकरे के स्वागत करते हुए उनके पैर छुए थे। आपत्तिजनक पोस्टर और कैसेटों के संबंध में उन्होंने कहा कि वे उनकी रजामंदी लिए बगैर प्रकाशित और प्रसारित किए गए थे।
उच्च न्यायालय ने तेरह मुद्दों के आधार पर निर्णय दिया। न्यायालय ने कहा कि शिवसेना के इस प्रत्याशी ने साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाकर भ्रष्ट आचरण किया। इस आधार पर उच्च न्यायालय द्वारा उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया। उक्त फैसले के विरूद्ध शिवसेना के प्रत्याशी ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत की। इस अपील पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले में किसी भी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकरण के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा निकाले गए निष्कर्ष सही प्रतीत होते हैं। चुनाव याचिका में यह अकाट्य रूप से प्रमाणित किया गया है कि अपीलार्थी द्वारा वह पोस्टर प्रदर्शित करने दिया, जिसमें सबक सिखाने की बात कही गई थी।
इस पोस्टर की भाषा और लहजा दोनों उस समुदाय विशेष के लिए अपमानजनक तथा साम्प्रदायिक विद्वेष पैदा करने वाला था। यह तथ्य देश की धर्मनिरपेक्ष संरचना के विरुद्ध जाती है। इस कारण इसे जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) तथा 123 (3 क) के अधीन भ्रष्ट आचरण माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी ठहराया कि अभियान के दौरान दिए गए भाषणों में अक्सर उपमाओं और अलंकारों का इस्तेमाल होता है। लेकिन, अदालतों को यह देखना होगा कि उक्त भाषणों का वास्तविक मर्म क्या है! न्यायालय ने इस विषय पर अपनी कोई राय जाहिर नहीं की कि उक्त भाषणों का चुनाव नतीजों पर वास्तविक प्रभाव क्या हुआ था।
सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही उक्त भाषणों का चुनाव नतीजों पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर अपनी राय व्यक्त न की हो, लेकिन उनकी राय में वे पोस्टर ही उम्मीदवार के चुनाव को अवैध ठहराने के लिए पर्याप्त थे। उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर भी अपनी कोई निर्णायक राय जाहिर नहीं की कि षिवसेना तथा भारतीय जनता पार्टी द्वारा नांदेड़ चुनाव में जो आम प्रचार किया गया वह भी उक्त प्रावधानों में भ्रष्ट आचरण के दायरे में आता है अथवा नहीं।
इस परिप्रेक्ष्य में देखे तो इस बात की पूर्ण संभावना है कि उत्तर प्रदेष के चुनाव परिणाम आने के बाद एक बार पुनः न्यायालय में भी लड़े जाएंगे। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ एवं अखिलेश यादव सहित तमाम नेताओं के भाषण इसी कसौटी पर न्यायालय परखेगा। दुर्भाग्य से न्यायालयों में चुनाव से संबंधित मामलों में विलंब एक बड़ी समस्या है। अनेक मामलों का निराकरण अगले चुनाव आने की आहट आने तक अथवा कई बार उसके बाद ही होता है। आशा की जानी चाहिए की न्याय व्यवस्था इस और भी ध्यान देगी।
क्या कहते हैं जन प्रतिनिधित्व कानून
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 की व्याख्या के केंद्र में मुख्य रूप से भाषण ही है। अधिनियम की धारा 123 के अंतर्गत भाषण पर प्रतिबंध का प्रावधान किया गया है। इस कारण यह और भी अधिक आवश्यक हो जाता है कि इस धारा के तहत लगाए गए प्रतिबंधों एवं इस कानून के मूल उद्देश्य को समझा जाए।
इस अधिनियम के अंतर्गत निहित प्रावधानों में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिये भारत के चुनाव आयोग को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम की धारा 123 के तहत कुछ विशेष गतिविधियों को ‘भ्रष्ट गतिविधियों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मसलन धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय, भाषा के प्रयोग अथवा धार्मिक प्रतीकों के आधार पर चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा वोट मांगे जाने को एक ‘भ्रष्ट आचरण’ माना गया है।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार ऐतिहासिक अथवा संवैधानिक गलती को सुधारने अथवा भारतीय संविधान के तहत वर्णित मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने के उद्देश्य से कोई अपील की गई है तो वह अपील ‘भ्रष्ट आचरण’ नहीं मानी जाएगी।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार उक्त अधिनियम के संदर्भ में किसी भी राजनीतिक दल का अपना मुद्दा (वह मुद्दा जिसको केंद्र में रखकर किसी पार्टी अथवा दल का गठन किया जाता है) प्रासंगिक नहीं है। उम्मीदवार द्वारा संदर्भित बातें ही प्रासंगिक होगी। साथ ही उम्मीदवार एवं उसके चुनावी प्रतिनिधि जिनकी चुनावी योग्यता को शून्य घोषित किया गया है, इन्हें धारा 123 की उपधारा (3) एवं (3 ए) के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण के एक अहम भाग के रूप में स्वीकृत किया गया है। यह अधिनियम की धारा 100 का एक प्रमुख घटक है। इसके अतिरिक्त, ऐसा कोई वाक्य कि किसी राज्य को देश के पहले हिन्दू राज्य के रूप में विकसित किया जाएगा, को धर्म के आधार पर भ्रष्ट आचरण नहीं माना जाएगा बल्कि उक्त बयान देने वाले वक्ता उनके भावों के आधार पर भ्रष्ट आचरण माना जाएगा।
ऐसा कोई भी भाषण जिसे ‘भ्रष्ट आचरण’ के तहत वर्णित नहीं किया गया है तथा जो नुकसानदायक नहीं है, उसे भारतीय संविधान के तहत ही माना जाएगा। ऐसा भाषण पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष होगा। चुनावी भाषणों एवं पोस्टरों के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि सभी समुदायों को भाषण की इस ‘वैध सीमा’ के भीतर ही रहना होगा।