कानून और न्याय: सामाजिक ढांचे के लिए समान नागरिक संहिता क्या जरुरी!

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कानून और न्याय: सामाजिक ढांचे के लिए समान नागरिक संहिता क्या जरुरी!

आजकल पूरे देश में एक बात पर चर्चा हो रही है जो कि समान नागरिक संहिता लागू करने के बारे में है। इसे लागू करना एक विवादास्पद प्रश्न है। भारत के विधि आयोग द्वारा अपने नागरिकों से सुझाव भी आमंत्रित किये गए हैं जो कि 14 जून के पत्र के माध्यम से 30 दिनों के भीतर दिया जाना है। हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने भोपाल में दिए गए अपने भाषण में इसका उल्लेख कर इसे चर्चा में ला दिया है। समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रश्न पर जाने से पहले, हमें इसकी पृष्ठभूमि, अर्थ और उद्देश्य को समझना चाहिए। भारत के संविधान का अनुच्छेद 44, जो नीति निदेशक सिद्धांतों का एक हिस्सा है। यह राज्य एवं भारत सरकार को समस्त राज्य क्षेत्र के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने तथा नागरिकों को सुरक्षित करने के लिए पूर्ण प्रयास करने का निर्देश देते हैं।
भारत में समान नागरिक संहिता के प्रावधान के पीछे उद्देश्य है नागरिकों के बीच व्यक्तिगत कानूनों के अनुप्रयोग में एकरूपता लाना जिससे कि देश में एक समान नागरिक कानून लागू किया जा सके। वर्तमान में नागरिकों के विभिन्न समूहों पर उनके धर्म के अनुसार अलग-अलग कानून लागू होते हैं जैसे हिंदू विवाह अधिनियम, ईसाई विवाह अधिनियम, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अधिनियम 1937, विशेष विवाह अधिनियम आदि यहां तक कि हिंदुओं में इसे भी दो शाखाओं में विभाजित किया गया है जो दयाभाग और मिताक्षरा विद्यालय हैं।
समान नागरिक संहिता की उत्पत्ति औपनिवेशिक भारत में हुई जब ब्रिटिश सरकार ने 1835 में अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। भारत के संविधान में एक और प्रावधान है। वह है अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और उसका पालन करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यह प्रतीत होता है कि इन दोनों प्रावधानों के बीच कुछ विरोधाभास है। राजनीतिक दलों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि समान नागरिक संहिता एक धर्म को वंचित कर देगी। अपने धर्म को मानने या अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को अपने धर्म को मानने के अधिकारों का उल्लंघन करना होगा। हालांकि यह सही तस्वीर नहीं है। धर्म और कानून पूर्णतः दो अलग-अलग चीजें हैं जिनका विभिन्न दृष्टिकोण है।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार धर्म जीवन जीने का एक तरीका है। भारत दुनिया का एकमात्र देश नहीं है जहां लोग अलग-अलग दावे करते हैं या जहां अलग-अलग धर्म के लोग निवास कर रहे हैं। आजकल अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग पूरी दुनिया में रह रहे हैं फिर भी उन पर एक समान कानून लागू होता है। पाकिस्तान में भी वहां के सभी नागरिकों पर एक ही कानून लागू होता है। शायद भारत ही एक ऐसा देश है जहां अलग-अलग धर्म को मानने वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग कानून लागू होते हैं। इसके अलावा संविधान का अनुच्छेद 25 उप खंड 2 सरकार को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह इस प्रकार के कानून बना सके।
आजकल अखबारों में खबरें छपती रहती हैं कि कुछ उत्तराखंड, मध्य प्रदेश जैसे राज्य समितियों का गठन कर रही हैं। समान नागरिक संहिता बनाने के लिए निसंदेह, शादियों, उत्तराधिकार, पर बन रहे कानून आदि भारतीय संविधान की अनुसूची सातवीं की समवर्ती सूची के विषय है। लेकिन यदि अगर अलग-अलग राज्यों को अलग-अलग कानून बनाने की इजाजत दी गई तो राज्यों के विषय पर कानून बनाने से समान नागरिक व्यवस्था बनाने का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। राज्य कानूनों में एकरूपता नहीं होगी। अनुच्छेद 44 स्वयं पूरे भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात करता है। अतः भारत संघ द्वारा समान नागरिक संहिता बनाना आवश्यक है।
भारत में समान नागरिक संहिता उत्तराधिकार के क्षेत्र में लागू होगा। मृत्यु के बाद संपत्ति का हस्तांतरण, विवाह, तलाक, गोद लेना और नाबालिगों की संरक्षता जैसे कानूनों पर भी यह प्रावधानों लागू होगा। इनमें से कोई भी मामले पूजा के अधिकार, या किसी भी धर्म को मानने के अधिकार को प्रभावित नहीं करते हैं। इसके अतिरिक्त, भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के खंड 2 के अनुसार, ऐसे कानूनों के निर्माण से भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन नहीं होता है। इसके अलावा यदि मृत व्यक्ति चाहे तो अपनी संपत्ति की वसीयत किसी भी व्यक्ति के पक्ष में कर सकता है।
एक विषय है विवाह। यह एक चिंता का विषय है। इसे समाज के विभिन्न समूहों में प्रचलित रीति रिवाज के अनुसार उन्हें संपन्न किया जाता है। यह अभ्यास जारी रखकर किया जा सकता है। लेकिन सभी विवाह का पंजीकरण अनिवार्य किया जाना चाहिए। मुस्लिम कानून के तहत सभी पुरुष सदस्यों को तीन शादियां करने की इजाजत है। मुस्लिमों द्वारा मुस्लिम कानून का स्त्रोत कुरान को माना जाता है। इसे पैगम्बर द्वारा लगभग 1500 वर्ष पूर्व बनाया गया था।
उस समय यह प्रावधान प्रगतिशील कदम था। उस समय अन्य धर्मों में शादियां करने की कोई सीमा नहीं थी। पैगम्बर ने शादियां करने पर सीमा लगाना उचित समझा। यह कानून यह नहीं कहता कि सिर्फ एक ही शादी करना जायज नहीं। लेकिन कहा गया है कि किसी को भी चार से अधिक शादियां नहीं करनी चाहिए। आजकल शिक्षित परिवारों में ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति होते हैं जो एक से अधिक शादियां करते हैं। इसलिए विवाह की संख्या को केवल एक तक सीमित रखने में उनके धर्म व अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा।
सामान्य नागरिक संहिता के माध्यम से तलाक को हर धर्म में स्वीकार्य बनाया जाना चाहिए। इसके अलावा क्रूरता, परित्याग, नपुंसकता, मानसिक स्वास्थ्य आदि जैसे आधारों पर उस उद्देश्य के लिए गठित न्यायालयों का हस्तक्षेप, अनिवार्य कर देना चाहिए। किसी भी धर्म में विवाह हेतु कम से कम 21 वर्ष की आयु होना अनिवार्य होगा तथा इससे नीचे किया कोई भी विवाह बाल विवाह की श्रेणी में होगा जो मान्य नहीं होगा। मुस्लिम कानून के अनुसार मेहर विवाह के समय तय किया जाता है, जो पति द्वारा पत्नी को तलाक के समय देय होता है। उस समय यह भी प्रगतिशील था। लेकिन, अब खामियों के कारण समय और बढ़ती महॅंगाई के कारण यह प्रावधान अपर्याप्त हो गया है। शाह बानो प्रकरण उसी का एक उदाहरण है। इसलिए, एक ऐसा प्रावधान होना चाहिए जो पार्टियों के आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए उनके जीवन निर्वाह के लिए उपयोगी हो। प्रावधान का उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर पक्ष को सहायता प्रदान करना है किन्तु यह प्रावधान उन जीवन साथियों पर लागू नहीं होगा जहां जो स्वयं अपना भरण पोषण करने के लिए पूर्ण रूप से समर्थ होने के बावजूद वह नहीं करते। एक प्रावधान यह भी होना चाहिए जिसमें बदली हुई परिस्थितियों में न्यायालय द्वारा दी गई राशि में संशोधन किया जा सके।
गोद लेने के संबंध में जो प्रक्रिया है वह रीति-रिवाज के अनुसार हो सकती है। लेकिन गोद लेने का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। गोद देने की शक्ति केवल शिशु के प्राकृतिक संरक्षक अर्थात पिता और माता को ही होगी। उनकी अनुपस्थिति में प्राकृतिक संरक्षक का, न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक के माध्यम से की जावेगी। न्यायालय अनुमति देते समय गोद लेने वाले अभिभावक से बच्चे के बालिग होने तक बच्चे का कल्याण एवं उचित देखभाल की गारंटी मांग सकता है। इसके अलावा, उक्त समान नागरिक संहिता में यह भी प्रावधान शामिल किया जाना चाहिए जिसमें सहदायिक संपत्ति की कुख्यात अवधारणा को समाप्त किया जा सके। हालांकि इसके पीछे का विचार व अवधारणा परिवार के कानूनी उत्तराधिकारियों को समान अधिकार देने की थी। लेकिन पिछले कई दशकों से न्यायपालिका के इन यंत्रों का प्रयोग कर इसका घोर दुरुपयोग किया जा रहा है। लेकिन कुल मिलाकर यह कानून उन कानूनों को सरल बनाने का काम करेगा जो वर्तमान में धार्मिक मान्यताओं जैसे हिन्दू कोड बिल, शरीयत कानून और अन्य धर्म के आधार पर अलग-अलग है।