साल के आखिरी दिन ‘रागदरबारी’ की बात करते हैं…
कौशल किशोर चतुर्वेदी
स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास ‘रागदरबारी’ का नाम आज भी हर जुबान पर है।‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई। इसकी यादें अब भी टीवी दर्शकों के जेहन में ताजा हैं।यह ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। शुरू से अन्त तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है।
राग दरबारी व्यंग्य-कथा नहीं है। इसमें श्रीलाल शुक्ल जी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ कर रख दिया है। इसके संदर्भ में गोपाल राय लिखते हैं कि- “रागदरबारी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के एक कस्बानुमा गाँव शिवपाल गंज की कहानी है। उस गाँव की जिन्दगी का दस्तावेज, जो स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद ग्राम विकास और ‘गरीबी हटाओ’ के आकर्षक नारों के बावजूद घिसट रही है।” राग दरबारी की कथा भूमि एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे गाँव शिवपालगंज की है जहाँ की जिन्दगी प्रगति और विकास के समस्त नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आघातों के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज की प्रबन्ध समिति और कोआपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी साक्षात वह राजनीतिक संस्कृति है जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल फूल रही है।
आओ श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ के पात्रों से रूबरू होते हैं। वैद्यजी से मिल लीजिए। ‘रागदरबारी’ में वह सभी गांवों की राजनीति के पीछे का मास्टरमाइंड है। अपने वाक्य तैयार करने और उसके शब्दों को चुनने में बहुत स्पष्ट, वैद्यजी भी आधिकारिक तौर पर स्थानीय कॉलेज के प्रबंधक हैं। दूसरे पात्र रुप्पन बाबू वैद्यजी के छोटे बेटे और कॉलेज के छात्रों के नेता हैं। रुप्पन बाबू पिछले कई सालों से 10 वीं कक्षा में रहे हैं, उसी कॉलेज में, जहां उनके पिता प्रबंधक हैं। रुप्पन सक्रिय रूप से सभी गांवों की राजनीति में शामिल है। उपन्यास के अंत में, उसके व्यवहार में एक क्रमिक परिवर्तन देखा जा सकता है। तीसरे पात्र बद्री पहलवान, रुप्पन बाबू के बड़े भाई हैं। बद्री अपने पिता की सहभागिता से दूर रहते हैं और खुद को शरीर-निर्माण के अभ्यास में व्यस्त रखते हैं तथा अपने आश्रय की देखभाल करते हैं।चौथे पत्र रंगनाथ इतिहास में एमए हैं। रंगनाथ वैद्य जी के भतीजे हैं। वह लगभग 5-6 महीने के लिए छुट्टी पर शिवलगंज आते हैं। पांचवें पात्र छोटे पहलवान गांव की राजनीति में एक सक्रिय पार्टनर हैं। गांव की राजनीति में उनकी एक सक्रिय सहभागिता है और वैद्यजी द्वारा बुलाई गई बैठकों में लगातार सहभागिता है। छठवें पात्र प्रिंसिपल साहिब हैं। जैसा कि नाम का अर्थ है, प्रिंसिपल साहिब, छांमल विद्यालय इंटर कॉलेज का प्राचार्य है। कॉलेज में कर्मचारियों के अन्य सदस्यों के साथ उनका संबंध साजिश का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सातवें पात्र जोगनाथ स्थानीय गुंडे हैं। लगभग हमेशा नशे में वह प्रत्येक 2 सिलेबल्स के बीच “एफ” ध्वनि डालने से एक अनूठी भाषा बोलता है।आठवें पात्र सनीचर का असली नाम मंगलदास है। लेकिन लोग उसे सनीचर कहते हैं। वह वैद्यजी का नौकर है और बाद में वैद्यजी द्वारा राजनीतिक रणनीति के उपयोग के साथ गांव का कठपुतली प्रधान बनाया गया था। नौवे पात्र लंगड़ हैं। वह अस्थायी आम आदमी का प्रतिनिधि है जो भ्रष्ट व्यवस्था का शिकार होता है।
खैर आज हम श्रीलाल शुक्ल की चर्चा इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि आज उनका 100 वां जन्मदिन है। वह अगर जिंदा होते तो 99 साल की उम्र पूरी कर लेते।श्रीलाल शुक्ल (31 दिसम्बर 1925 – 28 अक्टूबर 2011) हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। वह समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात थे। 31 दिसम्बर 1925 ई. को अतरौली गाँव, लखनऊ उत्तर-प्रदेश में उनका जन्म हुआ था। वह उपन्यासकार व व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठित थे। उन्होंने 130 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया था। साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, यश भारती, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ सम्मान, लोहिया सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, शरद जोशी सम्मान समेत अनेक सम्मान व पुरस्कार से उन्हें नवाजा गया था। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास ‘सूनी घाटी का सूरज’ (1957) तथा पहला प्रकाशित व्यंग ‘अंगद का पाँव’ (1958) है।
अंत में यही कि रागदरबारी विख्यात हिन्दी साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध व्यंग्य रचना है। यह ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता पर नजरें इनायत करती है। आज मूल्यहीनता सर्वत्र बिखरी पड़ी है। राजनीति में भी यह बहुतायत में है। वर्तमान में भी गली-गली रागदरबारी की सियासत समेटे है। कहीं आतिशी को कामचलाऊ सीएम कहा जाता है। तो कहीं नीतीश बाबू को पलटूराम चाचा कहकर बुलाते हैं। तो मूल्यहीनता की परतें खुद-ब-खुद उघड़कर सबके सामने आ ही जाती हैं। कौन चेहरा कब किस दरबार में नजर आ जाए, अब तो इसमें राग भी नहीं बचा है। खैर साल के आखिरी दिन हम पुरानी ‘रागदरबारी’ को ही याद करते हैं और उसी की बात करते हैं…।