स्थानीय निकाय के चुनाव (Elections) के स्थानीय रंग

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स्थानीय निकाय के चुनाव (Elections) के स्थानीय रंग;

मध्य प्रदेश में एक दर्जन स्थानीय निकायों के चुनाव हो रहे हैं. इन चुनावों के रंग भी अलग-अलग हैं. इन चुनावों के जरिये शक्ति प्रदर्शन की होड़ की वजह से एक और जहाँ सत्तारूढ़ दल के प्रदेशाध्यक्ष से लेकर पूरी सरकार मैदान में है वहीं कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष समेत तमाम नेता अपने-अपने मोर्चे पर हैं .जो मोर्चे पर नहीं हैं ,उनके अपने कारण हैं .लेकिन चुनाव प्रत्याशियों से कहीं ज्यादा नेताओं की प्रतिष्ठा से जुड़े हैं .

प्रदेश के अधिकाँश स्थानीय निकायों के महापौर पद पर सत्तारूढ़ भाजपा का चार दशक से कब्जा है. बीच-बीच में एक -दो सीटें ऊपर-नीचे हो जातीं है लेकिन ज्यादातर भाजपा ही चुनाव जीतती रही है फिर चाहे प्रदेश में सरकार भाजपा की रही हो या न रही हो .इस बार स्थानीय निकाय चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा में प्रत्याशयों के चयन से लेकर जो तकरार शुरू हुआ था वो अभी तक कायम है .मन माफिक प्रयाशी न मिलने से जहाँ कुछ नेता चुनाव प्रचार में केवल दिखावे के लिए हिस्सा ले रहे हैं तो कुछ जी जान लगा रहे हैं .भाजपा के गढ़ रहे ग्वालियर में तो खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चार से ज्यादा दिन खर्च कर चुके हैं .

ग्वालियर में भाजपा के महापौर प्रत्याशी का नाम सबसे बाद में घोषित किया गया. यहां भाजपा की सुमन शर्मा का मुकाबला कांग्रेस की श्रीमती शोभा शर्मा से है. उनके पति कांग्रेस के विधायक डॉ सतीश सिंह सिकरवार हैं .शोभा की उम्मीदवारी को लेकर भी कांग्रेस में कलह थी लेकिन प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ ने किसी की नहीं सुनी इसलिए विरोध के स्वर धीमे पड़ गए ,लेकिन भीतरघात की संभावनाएं अभी भी समाप्त नहीं हुईं हैं .कांग्रेस के अनेक असंतुष्ट नेता पर्दे के पीछे से भाजपा प्रत्याशी श्रीमती सुमन शर्मा के लिए काम कर रहे हैं .सुमन का साथ देने वाले कांग्रेसियों की एक पीढी ऐसी भी है जो सुमन के ससुर स्वर्गीय डॉ धर्मवीर के नेतृत्व में कांग्रेस में काम कर चुकी है. डॉ धर्मवीर पहले कांग्रेस के नेता थे बाद में भाजपा में शामिल हुए और दो बार विधायक तथा एक बार महापौर भी रहे .

ग्वालियर में जहाँ भाजपा प्रत्याशी के समाने भीतरघात की समस्या है वहीं कांग्रेस प्रत्याशी भी इससे मुक्त नहीं है. दुर्भागय से कांग्रेस प्रत्याशी शोभा के विधयक पति डॉ सतीश सिकरवार बीच चुनाव प्रचार में बीमार हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा .लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भी शोभा का चुनाव प्रचार शिथिल नहीं पड़ा .शोभा खुद दो बार की पार्षद हैं. उनके ससुर गजराज सिंह सिकरवार भी भाजपा के विधायक रह चुके हैं. दूर भी भाजपा के विधायक रह चुके हैं .बावजूद इसके उनकी राह अभी तक निष्कंटक नहीं है .

भाजपा प्रत्याशी सुमन शर्मा को केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का प्रत्याशी माना जाता है इसलिए सिंधिया समर्थक कार्यकर्ता और नेता दिखावे के लिए उनके साथ हैं .इस बीच भाजपा के पूर्व विधायक अनूप मिश्रा भी पार्टी में अपने मान-अपमान के मुद्दे को लेकर बिदके हुए हैं .सुमन शर्मा को उन्हें मनाने के लिए चिरोरियाँ करना पड़ रहीं हैं .अनूप मिश्रा भाजपा के ब्राम्हण नेता माने जाते हैं .सुमन के साथ हालांकि दूसरे ब्राम्हण नेता डॉ नरोत्तम मिश्रा भी हैं ,लेकिन अनूप के रूठने से नुक्सान की आशंका ज्यादा है .कुल मिलाकर मुकाबला रोचक है और ऊँट किसी भी करवट बैठ सकता है .

ग्वालियर के बाद सबसे ज्यादा दिलचस्प मुकाबला इंदौर और भोपाल में है .इंदौर में भी भाजपा को अपना महापौर प्रत्याशी घोषित करने में पसीना आ गया था .यहां भी ग्वालियर जैसी ही स्थितियां हैं. सत्तारूढ़ दल में महापौर प्रत्याशी के चयन को लेकर जो असंतोष था उसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका है .इंदौर में स्थानीय निकाय चुनाव में बाहुबल के बजाय इस बार धनबल का ज्यादा असर है. कांग्रेस प्रत्याशी संजय शुक्ला 170 करोड़ के मालिक हैं उन्होंने ऐलान किया है कि यदि वे चुनाव जीते तो शहर में पांच फ्लायओव्हर ब्रिज वे अपने खर्च से बनवाएंगे .संजय का मुकाबला भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव से है .

भोपाल ,सागर,जबलपुर और उज्जैन में भी भाजपा और कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के लिए अग्निपरीक्षा है. मजे की बात ये है कि इस बार स्थानीय निकाय चुनावों में आप पार्टी ने भी अपने प्रत्याशी उतारे हैं .आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल भी कुछ शहरों में चुनाव प्रचार के लिए आ रहे हैं .आप को उम्मीद है कि भाजपा और कांग्रेस की बंदरबांट का लाभ उसे मिल सकता है. अल्पसंख्यक नेता औबेसी भी स्थानीय निकाय चुनाव के जरिये अपनी पार्टी के लिए जमीन बनाने की कोशिश में है. औबेसी ने अगले साल यहां होने वाले विधानसभा चुनाव लड़ने का भी ऐलान किया है .

मध्यप्रदेश में शुरू से ही कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता आया है. सीमावर्ती इलाकों में कभी बसपा तो कभी समाजवादी पार्टी कुछ विधानसभा सीटें जीतती रही है लेकिन जो भी सत्तारूढ़ दल होता है वो इन दलों के विधायकों को अंतत: खरीद लेता है कांग्रेस ने बसपा विधायकों को खरीदा था तो भाजपा ने समाजवादी और बसपा दोनों के विधायक खरीद लिए .इस स्तिति में औबेसी को लगता है की उनके लिए पांव रखने की गुंजाइश निकल सकती है ,जैसे की बिहार में निकली थी. ये बात और है की बिहार में उनके पांच में से चार विधायक राजद में चले गए .

स्थानीय निकाय चुनावों के जरिये कांग्रेस और भाजपा अपनी जमीन आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए मजबूत करने में लगे हैं ,क्योंकि एक महापौर का काम कम से कम दो या तीन और कहीं-कहीं तो चार विधानसभा चुनाव क्षेत्रों के चुनाव परिणामों को प्रभावित करता है .कम से कम शहरी विधानसभा क्षेत्रों में तो स्थानीय निकाय के संसाधन विधान सभा चुनाव के काम आते ही हैं .महापौर सक्रिय हो तो उसका लाभ पार्टी को मिलता ही है .हाल के पंचायत चुनावों में भी भाजपा और कांग्रेस के बीएच मुकाबला लगभग बराबरी का रहा,हालाँकि ये चुनाव दलगत आधार पर नहीं होते .अब देखना ये है कि स्थानीय निकाय चुनावों में कौन नेता ,कितना प्रभावी होकर उभरता है .