

कविता
Mahashivratri: हे शिव शम्भू
आदि न अंत
शिव तेरी महिमा है अनंत
बांट अमृत स्वयं पी गए गरल
हे शिव शम्भू
हो कितने भोले और सरल
जटा में गंगा,माथे पर चंदा
गली में लिपटी सर्प माला
नीला है कंठ और
सजी है भभूति
शिव तेरी शोभा है अनूठी
करो जब तांडव
थर्रा जाए सृष्टि
आदि भी , अनंत भी
शून्य भी, समग्र भी
सरल भी ,जटिल भी
अंतरिक्ष का विस्तार समेटे जटाओं में,
गंगा की है धार भी,
चंद्रमा की शीतलता भी
और कंठ में गरल की ऊष्मा भी,
ज्ञान और प्रज्ञा का त्रिनेत्र भी
भस्म रुप में मानो
लपेटा है जगत के सार को ही
ग्राहय हैं उन्हें,
कांटों से भरे धतूरे और बेलपत्र भी,
धरते हैं, त्रिशूल भी
और अनहद नाद का डमरु भी,
संहार भी और सृजन भी,
शिव भी वही शक्ति भी वही,
देवों के देव महादेव,
हर हर शंभु,
हर हर शंकर
कोटि कोटि नमन
– निरुपमा खरे