संस्मरण ;यादों की गली में हैं कुछ यादें शरद पूर्णिमा की —-

नाम लिया सत्यनारायण काऔर छोरी मिल गई थी

      कमला पूनमऔर रासमंडल का मेला, गोंद के खास पापड़ 

बचपन का किस्सा 

स्वाति  तिवारी

ये ज़िंदगी के मेलेदुनिया में कम न होंगे

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आज शरद पूर्णिमा है ,धार में रासमंडल पर एक महीने के मेले की शुरुवार हुआ करती थी कभी । यह मेरे पिता के पैतृक घर के सामने ओर हमारे पैतृक गोवर्धन मंदिर के सामने लगता था ,इस मेले में गोंद के पापड़ मिला करते थे जो एक अनूठा पकवान होता था ,जिसे मैंने आज तक कहीं भी फिर नहीं देखा । दरअसल सर्दियों के लिए गोंद के पकवान भारतीय परंपरा में प्रचलित है ।

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आज मेरे दादी का निर्वाण दिवस भी आता है ,माँ बताती थी कि उन दिनों हमारे घर में कमला पूनम का पालना भरा जाता था । मैंने देखा नहीं लेकिन शायद लक्ष्मी जी के लिए ही यह पालना भर जाता था ,इस पूर्णिमा का संबंध लक्ष्मी जी से होने के कारण यह महत्वपूर्ण हो जाती है ,इसी से ही शरद ऋतु का आगमन होता है। हिंदू धर्म के आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि को शरद पूर्णिमा होती है। इसे कौमुदी उत्‍सव, कुमार उत्सव, शरदोत्सव, रास पूर्णिमा, कोजागिरी पूर्णिमा एवं कमला पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।इस दिन खीर का विशेष महत्व होता है। खीर को चांद की रोशनी में रखा जाता है। माना जाता है कि चंद्रमा की रोशनी में रखी हुई खीर खाने से उसका प्रभाव सकारात्मक होता है। इस खीर से शरीर में पित्त का प्रकोप और मलेरिया का खतरा कम हो जाता है। अगर यह खीर किसी ऐसे व्यक्ति को खिलाई जाए जिसकी आंखों की रोशनी कम हो गई है तो उसकी आंखों की रोशनी में काफी सुधार आता है। हृदय संबंधी बीमारी और अस्थमा रोगियों के लिए भी यह खीर काफी लाभदायक है। शरद पूर्णिमा का चंद्रमा सोलह कलाओं से युक्त होता है। शास्त्रों के अनुसार इस तिथि पर चंद्रमा से निकलने वाली किरणों में सभी प्रकार के रोगों को हरने की क्षमता होती है। इसी आधार पर कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात आकाश से अमृत वर्षा होती है। शरद पूर्णिमा पर चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है। अंतरिक्ष के समस्त ग्रहों से निकलने वाली सकारात्मक ऊर्जा चंद्रकिरणों के माध्यम से पृथ्वी पर पड़ती हैं।श्री लक्ष्मी जी के आठ स्वरूप माने गए हैं जिनमें धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, राज लक्ष्मी, वैभव लक्ष्मी, ऐश्वर्या लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी, कमला लक्ष्मी एवं विजय लक्ष्मी है लक्ष्मी जी की पूजा अर्चना आदि रात्रि में किया जाता है। माँ के बताए अनुसार केले के पत्ते पर लक्ष्मी जी के लिए आसन भरा जाता था । धान्य लक्ष्मी प्रसन्न रहे इसलिए यह कई व्यंजनों से भरने की परंपरा रही है ,जो प्रसाद के रूप में खाया जाता था ,खीर पूरी ,पूए ,ओर वे गोंद के पापड़ वैसे स्वाद वाले तो अब कभी नहीं मिल सकते 51i APa 7GL. AC UF8941000 QL80

 

दूसरी बात अब पर्व उस उत्साह से काम ओर दिखावे के ज्यादा हो गए हैं । जैसे गरबा अब भक्ति नहीं इवेंट हो गया है ,या घर में बने व्यंजन फेसबुक और  वाट्सअप पर पोस्ट करके अपनी समृद्धता ओर पाक कला विशेषज्ञता का प्रदर्शन है । उस समय कुटुंब के देवी देवताओं को लगाया जाने वाला भोग कुटुंब के अलावा अन्य लोगों को दिया जाना वर्जित हुआ करता था ,ओर कई पूजाओं में तो दूसरों की नजर भी भोग प्रसाद पर नहीं पड़ने देते थे । यह सब अंधविश्वास नहीं बल्कि कुटुंब को एक सूत्र में बांधने का निमित्त होता था । माँ हमेशा कमला पूर्णिमा के लिए हलवा पूरी इत्यादि को सत्यनारायण की कथा का पारायण करने से पहले ही तैयार कर देती थी ,दादी के स्वास्थ को देखते हुए शायद उस दिन पूजन का पाटा दिन में ही भर दिया गया था ,कि दादी के साथ अनहोनी हो गई तो घर की यह परंपरा खंडित ना होने पाय,और  ठीक ठीक याद नहीं पर दादी उसी दिन चली गई थी । लेकिन कुटुंब की पूजन और आसान भरने की परंपरा को बचा लिया गया था । आज माँ भी नहीं रही यह पहली शरद पूर्णिमा है जब यह सब दोहरनेवाला कोई नहीं है ,लेकिन बात बात में अपने समय को बतानेवाले माता पिता की बातें जैसे हमारी पीढ़ी ने ग्रहण की थी वह ,अब अगली पीढ़ी को हम उस तरह क्यों नहीं बता पाते?या बताते हैं ओर वे भी हमारी तरह बाद में यह सब इसी तरह याद करेंगे यह तो नहीं पता लेकिन बदलाव बहुत तेजी से हो गए । हम तो अभी भी वहीं खड़े हैं ?
दर असल मैं शरद पूर्णिमा को उस गोंद के पापड़ फेसबूक अपने कस्बे की लंबे लंबे मेले की स्मृतियों के साथ याद कर रही थी ओर याद करते हुए दूसरी गली में चली गई थी ।
इस मेले में एक बार मैं अपने परिवार से बिछुड़ गई थी बहुत छोटी थी और  मेला ओर भीड़ बहुत ज्यादा बड़े । गोंद के लड्डू और  गोंद के पापड़ की दुकान में ही रह गई । माँ और बड़ी बहने ,मामी ओर चचेरी बहने मेले में गए थे ,पालकी वाले झूले जिन्हे चरर -चूँ कहते थे उसमें झूलने का बड़ा चाव सभी को होता था । सब मुझसे बड़े थे झूलने चले गए ।मैं देख रही हूँ  यह सोच कर ।

सुबह-सुबह:जींद के मेले में 20 फीट ऊंचा चलता झूला टूटने से गिरे 2 बच्चे - India AajTak

खोए हुए बच्चे सी मैं रोने लगी तो जाने कौन एक भैया मुझे पहचान गए और  सायकल से दादी के घर छोड़ आए ,तब घर में मेरी  ताईजी ओर उनकी बड़ी बेटी “जीजी’ थे ,उन्होंने परिवार के मेले में रमे हुए लोगों को सबक सिखाने के लिए मुझे घर में ही छुपा दिया । दो घंटे तक माँ और  बहने रो रो कर ढूंढते रहे ओर निराश घर आए ,थाने जाने से पहले एक बार फिर घरमें देख लें कभी आ गई हो । कई बार घर के चक्कर लगाए थे उन लोगों ने । ताईजी ने मुझे माची के नीचे बैठा दिया था ।  मैं थकी हुई जाने कब सो गई । माची उन दिनों बिस्तर रखने का लकड़ी का एक प्लेटफ़ॉर्म हुआ करता था उसके नीचे सन्दूक इत्यादि रख दिए जाते थे । ताईजी ने यह सबक सिखाने या किस मंशा से किया होगा यह ठीक ठीक नहीं पता पर परीक्षा ले ली थी उन सभी की । धैर्य का बांध  माँ का टूटने ही वाला था कि ताई जी जिन्हे हम “बड़ीबई” बुलाते थे ,ने घोषणा की जाओ माची के नीचे बैठी है वो । माँ शायद भागती हुई उस कमरे में आई थी लपककर  कलेजे से लगा फूट फूट कर रोई थी यह आज तक जाने कैसे याद है मुझे । हर साल वे  सत्यनारायण की कथा जरूर करती ,कहती नाम लिया सत्यनारायण भगवानका और छोरी मिल गई थी .माँ के चेहरे पर वही भाव इस घटना को याद करती थी तो आता था वो बिना कहे भी चेहरे से पढ़ा जा सकता था । दादी को स्मरण  करते हुए मैं खूद आज फिर यादों की गली में भटक गई हूँ । अब दादी ,ताईजी ,माँ ,वो रासमंडल का घर ,कमला पुन्नम का  मेला ओर वे पापड़ कुछ भी नहीं है सिर्फ यादें हैं । वे झूले भी अब नहीं दिखते । हाँ चाँद आता है शरद पूर्णिमा का अब भी मेरे पास,मैं परंपरा की खीर रखने जाती हूँ तो पूछ लेता है मेरे समाचार ,बादलों की लुकाछिपी के बाद कह जाता है संदेशा दादी का संभल के रहना  घूमना मत दुनिया के मेले में !पर मेले जगह बदलते है ,हम कहाँ होते है उन मेलों में ———-

ये ज़िंदगी के मेलेये ज़िंदगी के मेलेदुनिया में कम न होंगेअफसोस हम न होंगेये ज़िंदगी के मेलेये ज़िंदगी के मेले

होंगी यही बहारेउल्फत की यादगारे हेबिगड़ेगी और बनेगीदुनिया यही रहेगीबिगड़ेगी और बनेगीदुनिया यही रहेगीहोंगे यहीं झमेले

अफसोस हम न होंगे

स्वाती तिवारी