Memoirs : एक मीठा-मीठा संस्मरण छोटे होते तरबूज

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Memoirs : एक मीठा-मीठा संस्मरण छोटे होते तरबूज

डॉ. सुमन चौरे

घर में बहुत मेहमान आए हैं, अधिक फल खरीदना है, इसी नीयत से बड़ी फलमण्डी पहुँच गए। दुकानदारी की रौनक, साज-सजावट, अपने माल को चलाने-खपाने के नए-नए गुर नज़र आ रहे थे। फलों पर रंग-बिरंगे फूल, उनकी खुशबुओं और उनकी रंगीनी से माल को मोहक बनाया जा रहा था। तरबूज वाले ने तो अपना पूरा हुनर दुकान सजाने में ही लगा दिया था। तरबूजों का पहाड़ व पहाड़ के शीर्ष पर चिड़िया के अण्डे का आकार, जिससे झाँकता चूजा। इसी आकर्षण से उसकी दुकान पर ज़रा ज्यादा ही भीड़ थी। मुझे भी उसकी इस क़ाबिलीयत पर खुशी हुई। उसकी ग्राहकी भी ज़बरदस्त थी। भीड़ की कई आवाज़ों का उŸार भी वह बड़े इत्मीनान से दिए जा रहा था। मैंने भी उस पर प्रश्न रखा, ‘‘पहाड़ पर कौन सा फल सजा रखा है?’’ ‘‘तरबूज ही है साब,’’ यकीन न हो तो काट कर दिखा दूँ, ‘फुल लाल दृ एकदम सुर्ख, गारंटी का मीठा।’’ उसके विश्वास व तरबूजे के आकार को देखकर मुझे हैरानी भी हुई और हँसी भी आ गई।

मेरी हँसी का कारण, साथ में आई छोटी नातिन ने पूछ ही लिया, ‘‘अरे नानी, अकेले अकेले क्यों हँसे जा रही हैं।’’ मैंने कहा दृ ‘‘इतने से तरबूजे को देखकर हँसी आ गई। संतरा या औसत संतरे से थोड़ा सा ही बड़ा। कंचा-गोटा या कहूँ तो गेंद से जरा बड़ा, हँसूँ नहीं, तो क्या? ‘‘इसमें हँसने की क्या बात है नानी?’’ नातिन ने जिज्ञासा से पूछा। मैंने कहा, ‘‘बात है, तभी तो…। हमने तो इतने बड़े और इतने भारी तरबूज देखे हैं कि बचपन में उनको उठाने की हसरत कभी पूरी ही नहीं हुई हमारी। ऐसी कहावत भी है दृ ‘‘कुटुम पाल श्याक कुशंमाण्डु (काशीफल) और कुटुम पाल फल कलिन्दा (तरबूज)।’’ हमने तो बचपन में कभी किसी को कद्दू या कलिन्दा हाथ में या थैली में लाते नहीं देखा। ये तो बड़ी शान से लोगों के कंधे या सिर पर ही चढ़कर चलते थे। नातिन ने पूछा दृ ‘‘नानी… और आपके घर तरबूज कैसे लाते थे?’’

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हमारे गाँव के बाहर नदी बहती है। उसकी रेत में खरबूज-तरबूज और ककड़ी की बाड़ियाँ लगाई जाती थीं। जैसे ही फल पकने शुरू होते, बाड़ी का मालिक रखवाले के हाथ हमारे घर खबर भेज देता था। किसी दिन खरबूज, तो किसी दिन तरबूज आते ही रहते थे। भोर होते ही बड़े दादा या आजा नौकर ‘गुलब्या’ को लेकर बाड़ी पहुँचते थे। वे अपनी पारखी नज़र से फल चुनकर गुलब्या के सिर पर रखवा देते थे। जाते समय तो ज़रूर गुलब्या दादा के पीछे चलकर जाता था; किन्तु आते समय दादा उसके पीछे-पीछे चलकर आते थे, क्योंकि जरा सी असावधानी हुई, सिर हिला, कि फल छार-छार और फिर हम आठ-दस भाई-बहनों में से दो-चार भी तो गुलब्या के आगे पीछे चलते ही थे।

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घर में उपस्थित कोई भी बड़ा सदस्य गुलब्या के सिर से तरबूज उतारकर कुएँ के पास बनी पत्थर की कुण्डी में हौले से रख देता। गुलब्या कुएँ से ताजा ठण्डा पानी खींच-खींच कर कुण्डी में डालता जाता था। जैसे-जैसे कुण्डी में पानी बढ़ता, तरबूज ऊपर उठता जाता था। कुण्डी भरी और किनारे पर लगे तरबूज के नीचे हाथ लगाकर हम कहते, ‘‘देखो हमने तरबूज उठा लिया।’’ हम भाई बहनों में से कोई तरबूज को दबाकर तली में पहुँचा देता, हाथ छोड़ते ही तरबूज उछलकर फिर ऊपर आ जाता था। जब तक अंदर से हाँक नहीं लगे, तब तक हमारा ऐसा ही खेल चलता रहता था।

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अब सबकी नज़र आजी माँय पर जाकर टिकती थी। कब वे फ़ुरसत में हों और तरबूज कटे। नन्हें-मुन्ने लाड़ले तो उनका पल्लू पकड़कर, कुण्डी तक ले आते और तरबूज काटने का इशारा करते। आजी माँय बड़े प्रेम से समझातीं, ‘‘गम धरो, ठंडा हो जाय, फिर काटेंगे।’’ जब आजी माँय आवाज़ लगातीं ‘‘गुलब्या …।’’ गुलब्या आए उसके पहले हम सब भाई-बहन उनके पास हाज़िर। तरबूज कटा कि सबके मुँह से ‘अहा – – ओ – हो …’ निकल पड़ता, पर उससे क्या होना है, अभी कहाँ मिलेगा। अभी तो गोल-गोल दो हिस्सों में काटकर दो मटकों पर लाल गीली श्यापी (साफ़ी) से ढाँक कर रखा जायगा। आजी माँय सदा समझा देती थीं, ‘‘तरबूज को जितनी हवा लगेगी, उस पर उतनी ही लाली बढ़ेगी, और जितना लाल होगा, उतनी ही मिठास बढ़ेगी।’’

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कहाँ की मिठास बढ़ेगी, हमारी तो खटास ही निकल जाती थी। कहाँ तक धीरज धरें। इससे तो अच्छी पहूमल सिंधी की कुल्फी ही भली, भले ही गटर के पानी से बनी हो। इस हाथ से पैसे दिए और उस हाथ से मुँह में ठंडक पहुँचाा देती थी। तरबूज जैसे उसके लिए लार तो नहीं टपकानी पड़ती थी दिनभर। हम बच्चे चोरी छिपे ‘श्यापी’ उठा-उठाकर तरबूज को देखते कि वह लाल हुआ कि नहीं, मीठा हुआ कि नहीं? चख सकते नहीं, उँगली के निशान से चोरी पकड़ी जाने का डर। साँस लेकर खुशबू ले भी लेते, पर मुँह में जाने से रहा। अब क्या है? संजा तक रास्ता देखते रहो।

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संजा होते ही माँय फिर आवाज़ लगाती दृ ‘‘गुलब्या …।’’ – उसके पहले हम भाई-बहन आजी माँय की जगह छोड़कर गोला बनाकर बैठ जाते। गुलब्या हमारे पीछे खड़ा रहता। छुरी चली कि पहला लाल-लाल हिस्सा लड्डू गोपाल की कटोरी में रखकर देवालय पहुँचा दिया जाता। उधर प्रसाद लगा और इधर तरबूज बँटना शुरू। पहले नरम-नरम हिस्से नन्हें-मुन्नों को, फिर गुलब्या को, तब जाकर हमारी बारी आती। हमारा तरबूज भले ही हमारे मुँह में हो, पर नज़र दूसरों की फाँक पर ही रहती थी, कहीं दूसरों को हमसे अधिक लाल हिस्सा तो नहीं मिल गया? बाद की फाँक कचहरी में बैठे आजा, दादा, बाबूजी, काका सबके लिए पहुँचती। नन्हें-मुन्ने अपने मुँह का तरबूज आजी माँय को खिलाने बढ़ते, पर आजी माँय पहले अपनी बहुओं को, याने काकी, भाभी, माँ, बड़ी माँ, सबको देती थीं।
वे सफ़ेद छिलके जतन से रसोई में भेजतीं सब्जी के लिए। हरा छिलका गाय गोनी को दिया जाता। आजी माँय सबसे बार-बार पूछतीं, ‘‘और चाहिए।’’ सब पेट पर हाथ रख डकार मारते। तब जाकर आजी माँय खातीं। अब बड़े-बड़े काले-काले बीजों को हथियाने की जंग छिड़ती। फिर बीजों को धोकर कपड़े से पोंछकर सुखाते। सूख जाने पर उसकी साबूत गिरी निकालते। यह बड़ा ही अहम काम होता था। यूँ तो तरबूज-खरबूज की गिरी ‘चारमगज’ के नाम से बाज़ार में मिलती है। इसे बूँदी के लड्डू-बर्फी आदि में डालते हैं, पर इन गिरियों का तो हमारे लिए बहुत ही महŸव होता था। हमारी बहुत बड़ी सम्पदा होती थी। सब कुछ व्यापार-विनिमय इन गिरियों के दम पर ही चलता था। साबूत और सुडौल गिरि, बीजी के बाहर निकले, इसके लिए औजार के रूप में ऐसे पत्थर की तलाश रहती थी जिसके एक ही वार से गिरि बाहर आ जाय। इस पत्थर को कोई हथिया न ले, इसलिए छुपाकर रखना बड़ा ज़रूरी होता था, क्योंकि पत्थर पर बहुत कुछ निर्भर करता था गिरि का निकलना। इसी अमानत से तो हम रूठे भाई-बहन, सखा-मित्र, सबको मना लेते थे। जब कभी बराबरी के भाई-बहनों में अनबन हो जाती, शक्ति परीक्षण जैसे अवसरों पर इन गिरियों के बल से ही हम अपना पलड़ा भारी कर लेते थे। जिसको अपनी ताकत दिखाना हो, चुपचाप अपना ख़जाना दिखाते थे। खेल-खेल में ‘रोटी-पानी’, ‘घर कुल्हड़’ सब में साबूत गिरी रौब झाड़ने के काम आती थी। पर पत्थर व इन गिरियों के लुटेरे भी कम नहीं थे, अतः बस्ता पेटी में रखकर उसमें ताला डालकर चाबी गले में लटका कर रखते थे।

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 हमारा एक दर्जी मामा था, जो दूसरी कक्षा ना-पास था; पर फिर भी उसकी गाँव में पढ़े लिखों में गिनती थी। वह हमारे लिए छोटी-छोटी थैलियाँ बना देता था। इसके लिए उसकी एक शर्त होती थी कि हमें अपनी किताब से एक कविता मुखाग्र बिना अटके एक साँस में सुनाना होता था, ऐसा कर देने वाले को वह मनपसंद थैली सिल देता था। हम इस बात में तो माहिर थे, किताब आई नहीं कि कविता कंठस्थ कर लेते थे। बस दर्जी मामा की दुकान की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते ही कविता सुनाना शुरू कर देते, वह तुरंत थैली सिल देता और हम इसे लेकर भाग जाते। छोटी नातिन बोली, ‘‘नानी आप पढ़तीं लिखतीं भी थीं, समर कोर्स भी करती थीं कि सिर्फ़ बीजी ही फोड़ा करती थीं।’’ मैंने कहा, ‘‘परीक्षा खतम हुई कि बस्ता पेटी को विराम। उसमें अलग-अलग थैलियों में खरबूज-तरबूज, इमली, सबके बीजे, कौड़ी, अचार, काँच की चूड़ियाँ सब कुछ रहता था। पानी गिरने के पहले बीजियाँ गिरियाँ खतम करना पड़ती थीं, नहीं तो नमी से सब सामान खराब हो जाता था। फिर स्कूल भी खुल जाते थे। अब पट्टी, किताब, बŸाी शुरू . . .।
छोटी नातिन को मेरी बातों में बड़ा रस आ रहा था। कहने लगी, ‘‘अरे नानी कितना अच्छा होता, ऐसा बड़ा तरबूज हम भी देखते। तरबूज के ढेर की रखवाली करने बैठा एक बूढ़ा दादा सिर पर हाथ धरे बैठा था। हमारी बात सुनकर बुदबुदाया, ‘‘जैसे-जैसे परिवार छोटे होते जा रहे हैं, वैसे वैसे तरबूज की नस्ल भी छोटी होती जा रही है।’’
बड़ी नातिन हँसकर कहने लगी, ‘‘अरे नानी अच्छा ही हुआ छोटे तरबूज आने लगे, नहीं तो हम तरबूज का स्वाद भी नहीं जान पाते।’’
दुकान की भीड़ छँटी और हम छोटों में से बड़ा तरबूज छाँटने लगे।
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– डॉ. सुमन चौरे
भोपाल – 462039
मो.: 09424440377

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