जयप्रकाश चौकसे महज एक लेखक, अध्यापक, फिल्म निर्माता, संवाद लेखक और फिल्म प्रदर्शक ही नहीं, बल्कि पाठकों और सिने जगत के बीच एक कड़ी भी थे, जो अब टूट गई। एक सप्ताह भी नहीं हुआ, जब उन्होंने खुद ही यह कड़ी तोड़ने का निश्चय किया और ‘परदे के पीछे’ की घटनाओं को 26 साल बाद विराम देकर परदे से परे जाने की तैयारी में जुट गए। एक ही विषय पर साल में 365 दिन लिखना कोई खेल या मजाक नहीं है। लेकिन, चौकसे जी ने यह कलम का यह खेल तमाशा 26 सालों 117 दिन तक खेला और 83 साल की उम्र में यह सिलसिला थम गया।
चौकसे जी का फिल्मों से परिचय उनके श्वसुर तथा ख्यात साहित्यकार स्व हरिकृष्ण प्रेमी ने कराया था। इसके बाद शरद जोशी के फिल्म ‘शायद’ से नाता तोड़ने के बाद उसे जोड़ने का काम उन्हें मिला। उन्होंने ‘शायद’ से जुड़कर अपनी फिल्मी यात्रा आरंभ की। इस दौरान उन्हें हिन्दी फिल्मों के कथाकार सलीम खान से बहुत सहयोग मिला और वे राजकपूर परिवार तक पहुंचे। वे उन गिने चुने लोगों में थे, जिन्हें राजकपूर के शयनकक्ष तक जाने की इजाजत थी। वैसे वह स्वयं राजकपूर का बेहद सम्मान करते थे, लेकिन राजकपूर उन्हे मित्रवत मानते रहे और पूरा कपूर-परिवार भी उन्हें वैसा ही सम्मान देता रहा।
जयप्रकाश चौकसे ने न केवल राजकपूर के बारे में लिखा, बल्कि हिन्दी सिनेमा की त्रिमूर्ति के शेष दो स्तंभ देवआनंद और दिलीप कुमार के बारे में भी वह सब कुछ लिखा जो फिल्मों से हटकर था। उन्हीं ने बताया था कि दिलीप कुमार पतंग उडाने में उस्ताद थे। पतंगों के प्रति उनकी इतनी दीवानगी थी, कि वे अपना मांजा खुद बनाते थे। कई बार उन्हें छत पर दिलीप कुमार के मांजे की चरखी थामने का सौभाग्य भी हासिल हुआ। अपने अंतिम दिनों में दिलीप कुमार अपनी याददाश्त खो चुके थे और यादों की जुगाली में डूब जाया करते थे। संयोग ही रहा कि अपने अंतिम दिनों चौकसे जी भी दिलीप कुमार के हमसाया बनकर अपनी याददाश्त को धुंधलाते हुए देखते रहे। इसके बारे में उन्होंने अपने अलविदा आलेख में उल्लेख करते हुए लिखा कि मैं कभी कभी यह भी भूल जाता हूं कि मैने नाश्ता किया या नहीं!
देव आनंद के बारे में उन्होने यह बताया कि किस तरह एक समाचार पत्र में लिखने के सिलसिले मे दूसरे लेखक के साथ देवआनंद के रेल के डिब्बेनुमा ऑफिस में जाकर मिलने का मौका मिला। उसके बाद वह नियमित रूप से देव आनंद से मिलते रहे। चौकसे जी ने यह भी बताया कि परदे पर देवआनंद जितने खूबसूरत दिखाई देते थे, परदे से बाहर वास्तविक जीवन में उससे भी ज्यादा खूबसूरत थे। यह भी बताया था कि देवआनंद इतना तेज चलते थे कि कई बार चलते हुए बातें करने के लिए उन्हें दौड़ना पड़ता था।
सामान्य जीवन में चौकसे जी में कुछ भी फिल्मी दिखाई नहीं देता था। वे आम इंसान की तरह व्यवहार करते थे। उन्हें सभी विषयों पर समान रूप से बोलने और लिखने में महारथ हासिल थी। यही कारण है कि ‘परदे के पीछे’ लिखे जाने-वाले उनके आलेखों में फिल्मी पुट के साथ देश -विदेश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव, व्यवहार और घटनाओं का उल्लेख हुआ करता था। उनमें एक खासियत यह भी थी कि वह सामने वाले के सामने सच कहने में कभी कोताही नहीं बरतते थे। ऐसी ही एक घटना में उन्हें इंदौर के प्रतिष्ठित यशवंत क्लब की सदस्यता से कुछ समय तक बाहर भी रहना पड़ा था। हुआ यूं कि वे देर रात यशवंत क्लब से लौटने लगे तो एक सदस्य ने पूछ लिया चौकसे जी घर जाकर क्या करोगे? इसके जवाब में चौकसे जी ने जो कहा उसे सदस्यों ने आपत्तिजनक और अश्लील मानकर उन्हें यशवंत क्लब से सस्पेंड कर दिया। जिसके विरोध में उन्होंने अपना पक्ष इतने सशक्त तरीके से रखा था कि क्लब को उनकी सदस्यता बहाल करनी पड़ी थी।
अपनी बातें मनावने में भी चौकसे जी को महारथ हासिल थी चाहे वह फिर राजकपूर ही क्यों न हो। इंदौर में राजकपूर का अमृतोत्सव का कार्यक्रम था। इसके लिए पूरा कपूर परिवार इंदौर आया था। राजकपूर बीएसएफ के अतिथिगृह में ठहर थे। यहां से उन्हें एक विद्यालय वालों ने अपने यहां बच्चों के एक कार्यक्रम का हवाला देकर आमंत्रित किया।
कार्यक्रम में जाने पर राजकपूर को पता चला कि आयोजक केवल उनका नाम भूनवाना चाहता था। इसका बच्चों से कोई लेना देना नहीं था। इस पर राजकपूर इतने नाराज हुए कि उन्होंने अमृतमहोत्सव कार्यक्रम में हिस्सा लेने से ही इंकार कर दिया। इससे आयोजकों के हाथ पैर फूल गए।.सभी ने राजकपूर को मनाने का प्रयास किया, पर वे टस से मस नहीं हुए। ऋषि कपूर और राजीव कपूर में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे अपने पिता के सामने जा सके। रणधीर कपूर ही थे जो राजकपूर के पास जाकर कहने की हिम्मत रखते थे। वह गए और खाली हाथ लौट आए। उन्होंने बताया कि साहब बहुत नाराज है। आखिर में चौकसे जी अंदर गए और सभी ने देखा कि दो मिनट भी नहीं हुए कि चौकसे जी के कंधों पर बाहें डालकर राजकपूर हसंते हुए बाहर निकल आए और उन्होने कार्यक्रम में जमकर हिस्सा लिया।
‘पर्दे के पीछे’ पढ़ने वाले पाठकों को लम्बे समय तक पता नहीं चला कि वह कैंसर से ग्र्रसित हैं। कैंसर से ठीक होने और फिर उसके शिकार बनने के कारण उन्हें बार-बार हास्पिटल में रहना पड़ा। लेकिन, उनका लिखने का क्रम रूका नहीं। इस दौर में उनसे कई बार लिखने में चूक भी हो जाती थी, जिसे मानने से वे गुरेज भी नहीं करते थे। अपने साथ काम करने वालों के प्रति उनका व्यवहार मित्रवत होता था। गलती होने पर सहयोगी को हंसते-हंसते डांटते तो अच्छे काम की प्रशंसा करने में भी वह कंजूसी नहीं बरतते थे। बस इस जीवन को आगे बढाने में वे कंजूसी बरत गए। शायद वहां भी उन्हें सृष्टि के परदे के पीछे के राज को जानने की उत्सुकता थी, लिहाजा वे परदे के पर अनंत प्रकाश में चले गए।
(लेखक ने जयप्रकाश चौकसे के साथ लम्बे समय तक काम किया है)