मोहन ने जीता मन, पर नौ साल पैदा कर रहे अड़चन…

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मोहन ने जीता मन, पर नौ साल पैदा कर रहे अड़चन…

कौशल किशोर चतुर्वेदी

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की संवेदनशीलता और सहृदयता के चलते 9 साल बाद कर्मचारी-अधिकारियों को प्रमोशन मिलने का रास्ता साफ हो गया है। प्रमोशन न मिलने की वजह से प्रदेश में पिछले 9 साल में लाखों कर्मचारी दु:ख और पीड़ा के साथ रिटायर हो गए। और मुख्यमंत्री बनने के पहले ही मंत्री और विधायक के रूप में कर्मचारियों-अधिकारियों का यह दर्द कहीं न कहीं डॉ. मोहन यादव के दिल में भी समाया था। और इसीलिए मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. मोहन यादव ने कर्मचारियों-अधिकारियों को प्रमोशन देने की राह तैयार की है। देखा जाए तो यह बड़ा कदम उठाकर डॉ. मोहन यादव ने कर्मचारियों-अधिकारियों का मन जीतने का काम किया है। लेकिन प्रमोशन में विसंगति बनकर यही 9 साल कर्मचारियों-अधिकारियों के मन में बड़ी अड़चन पैदा कर रहे हैं। कर्मचारियों-अधिकारियों की नजर से देखा जाए तो इस न्याय की आड़ में अन्याय बिखरा पड़ा है। इस बहुप्रतीक्षित समाधान में ही समस्याओं का अंबार खड़ा है। जिन अधिकारियों-कर्मचारियों ने अपना पूरा जीवन सरकार की सेवा में समर्पित कर दिया है उनसे बीते 9 साल हिसाब मांग रहे हैं कि आखिर प्रमोशन न देने में गुनहगार कौन था? जिन अधिकारियों-कर्मचारियों को 2016 में प्रमोशन मिलना था, क्या 9 साल बाद 2025 में वही प्रमोशन पाकर वह खुशी मनाने के हकदार हो सकते हैं? जीवन के यह 9 साल इन अधिकारियों-कर्मचारियों को बार-बार आइना दिखा रहे हैं कि थोड़ा पाने की खुशी में क्या बहुत ज्यादा खोने का दर्द यह सभी सहन कर पाएंगे? मध्यप्रदेश में 9 साल बाद सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों को प्रमोशन मिलेगा। 4 लाख अधिकारी-कर्मचारियों को इसका फायदा मिलेगा। 2 लाख पद खाली होंगे। यह सब खुशी की बात है। लेकिन 2016-2025 के बीच वाली पदोन्नति इन्हें नहीं मिलेगी, नौ साल खोने का बड़ा दुख इन सभी का कलेजा फाड़ रहा है।


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पूरा मामला समझने के लिए एक उदाहरण पर नजर डालते हैं। 2016 में पुलिस विभाग में कोई सब इंस्पेक्टर या राजस्व विभाग में नायब तहसीलदार के पद पर काम कर रहा होगा तो 2025 से पहले अगर उसका प्रमोशन होता तो वह निरीक्षक (इंस्पेक्टर) या तहसीलदार बनता। और अब 2025 में होने वाली पदोन्नति में उसे डीएसपी या डिप्टी कलेक्टर बनाया जाता। लेकिन सरकार के फॉर्मूले में इस पर फैसला नहीं हुआ। यानी 2016 वाले एसआई का प्रमोशन अब भी निरीक्षक के रूप में ही होगा। और 2016 वाला नायब तहसीलदार अब तहसीलदार बन पाएगा। है न बहुत बड़ी विसंगति। दूसरे नजरिए से देखें तो यदि कोई अधिकारी 2017 में डीएसपी या डिप्टी कलेक्टर का प्रमोशन पा जाता तो 2025 की स्थिति में वह एडिशनल एसपी या अपर कलेक्टर बनने की दहलीज पर होता। वही अब 9 साल बाद प्रमोशन का मेला लगने पर जूनियर-सीनियर का भेद पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। जूनियर अफसर इसको इंजॉय करेंगे तो सीनियर अफसर पूरी तरह से अवसाद में पहुंचने की स्थिति में होंगे, क्योंकि वह अपनी नौकरी में कम से कम एक प्रमोशन से पूरी तरह से वंचित हो जाएंगे। यह एक ऐसा दंश बनने वाला है जिसे कर्मचारी-अधिकारी न तो निगल पा रहे हैं और न ही उगल पा रहे हैं। 9 साल पहले 2016 से सरकारी कर्मचारियों की पदोन्नति रुकी हुई थी। इसकी वजह यह थी कि आरक्षण में प्रमोशन को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में था। सरकार ने वहां एसएलपी (विशेष अनुमति याचिका) दाखिल की थी, जिससे प्रमोशन नहीं हो पा रहा था। मजे की बात यह है कि तब भी भाजपा सरकार थी और अब भी भाजपा सरकार है। कर्मचारी-अधिकारी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इसमें उनका गुनाह क्या है? जबकि जीएडी और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने ही प्रमोशन पर कोई रोक नहीं लगाई थी।

मंत्रालय सेवा अधिकारी/कर्मचारी संघ अध्यक्ष इंजी सुधीर नायक की बात पर गौर करें तो विवाद की जड़ यह थी कि आरक्षित वर्ग अनारक्षित में भी आ जाता था इसी कारण से ऊपर के पदों पर लगभग 100% आरक्षण हो गया था। अनारक्षित वर्ग को उच्च पदों पर जाने के अवसर लगभग समाप्त हो चुके थे। मंत्रालय में अवर सचिव के 65 पदों में से 58 पदों पर आरक्षित वर्ग के लोग थे। इसी कारण से लोग कोर्ट गए और 09 वर्ष तक पदोन्नति रुके रहने की स्थिति निर्मित हुई। लेकिन नये नियमों में विवाद की इस जड़ को यथावत रखा गया है जिससे पुनः पुरानी स्थिति बनेगी और इन नियमों को चुनौती देने वाली हजारों याचिकाएं पुनः लगने की संभावना है। इसका समाधान वर्टीकल आरक्षण से हो सकता था जिसके लिए उन्होंने अनेक ज्ञापन दिये, वार्ताएं कीं पर उनके सुझाव को नहीं माना गया। वर्टीकल आरक्षण में हर स्टेज पर आरक्षण मिलेगा लेकिन हर वर्ग अपनी अपनी कतार में चलेगा। दूसरी कतार में जाने की अनुमति नहीं होगी। दूसरी जो सबसे ज्यादा निराशाजनक बात है वह यह है कि नये नियम 2025 से लागू होंगे। जब कोर्ट यह कह चुका है कि उनके द्वारा पदोन्नति पर कोई रोक नहीं लगाई गई। इधर सामान्य प्रशासन विभाग भी सूचना का अधिकार के तहत दी गई एक जानकारी में साफ कर चुका है कि सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा भी पदोन्नति पर रोक लगाने संबंधी कोई आदेश जारी नहीं किए गए। ऐसी स्थिति में अवैधानिक रूप से पदोन्नतियां बंद रहने का खामियाजा कर्मचारी क्यों भुगते? यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। पदोन्नतियां 2016 से शुरू किये जाने का प्रावधान किया जाना था भले ही भूतलक्षी प्रभाव से काल्पनिक रूप से पदोन्नतियां दी जातीं। डेढ़ लाख कर्मचारी बिना पदोन्नति पाये रिटायर हो गए और लगभग एक लाख ऐसे हैं जो दो पदोन्नतियों के हकदार हैं।इन ढ़ाई लाख कर्मचारियों को बिना दोष की सजा दी गई है। विधि विभाग ने वर्ष 2016 से ही पदोन्नतियां दी हैं और वर्टीकल आरक्षण रखा है। विधि विभाग भी शासन का ही एक विभाग है। एक विभाग में अलग नियम और बाकी विभागों में अलग नियम। यह एक नयी विसंगति उत्पन्न हुई है।

कुल मिलाकर इस पूरे मामले में नौकरशाहों की मंशा पर सवालिया निशान लग रहा है। सीधी भर्ती से आए अखिल भारतीय सेवा के जो अफसर तय समय पर अगला पद पाने के हकदार हो जाते हैं, तो क्या उनका फर्ज नहीं है कि उनके अधीनस्थ अधिकारियों-कर्मचारियों के 9 साल की पीड़ा का भी वह अहसास कर पाते? और अगर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट यह आदेश सुना दे कि अधिकारियों-कर्मचारियों को उनके तय समय से ही प्रमोशन दिए जाएं तो क्या फिर नई एक्सरसाइज करने के बाद यही अफसर नए फार्मूला पर काम करने को तैयार नहीं होंगे? पूरे मामले में यही कहा जा सकता है कि मोहन ने प्रमोशन का रास्ता साफ कर अधिकारियों-कर्मचारियों का मन जीता है, पर नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए फार्मूले में नौ साल की बड़ी सजा अड़चन बनकर रोड़े अटका रही है…।