उत्तरप्रदेश समेत चार राज्यों में किन दलों की सरकारें बनने जा रही हैं, इस लेख के पढ़ने तक स्थिति कमोबेश साफ हो जाएगी। चलिए तब तक हम बात कर लें 1952 से अब तक के चुनावी लोकतंत्र के सफर का। कहाँ से चले थे, कहाँ तक पहुँचे और आगे का मुकाम कहाँ ..?
चुनाव मेरे लिए हमेशा से कौतूहल का विषय रहे हैं। मीडिया में आने के बाद तो समझिए किसी जश्न से कम नहीं। बिना मगजमारी के विषयवस्तु मिल जाता है। पन्ने पर पन्ने रँगते रहिए, सबकुछ अनुमान के आधार पर।
चुनाव, हम मीडियावी दुनिया के लोगों को ज्योतिषी बनने का मौका देता है। किसे टिकट मिलेगी, कौन जीतेगा, किसकी सरकार बनेगी, बनेगी तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री कौन होगा। हममें से कई वरिष्ठ साथी ज्योतिषियों से भी सटीक भविष्यवाणी कर लेते हैं। चुनावी रिपोर्टिंग मे जडमति भी सुजान हो जाते हैं।
चुनावी रिपोर्टिंग के निष्पक्ष होने की गुंजाइश बहुत कम ही होती है, वजह रिपोर्टर भी एक वोटर होता है, उसकी पसंदगी-नापसंदगी होती है। उसी को वह अपने तर्कों के साथ बुनकर परोसता है। और अब तो मीडिया मैनेजमेंट का युग है, सबकुछ स्क्रिप्टेड होता है। मसलन हवा किसकी बनानी है पलड़ा किधर झुकाना है। किसके किस्से खन-खोद के उघाड़ने है किसके दफन रहने देने हैं। वैसे यह बिलकुल बाजीगरी होती है। आप जो दबाओगे तो दूसरा उसे उधेड़ देगा।
सो इसलिए चुनाव की रिपोर्टिंग और विश्लेषण मजे के लिए करनी चाहिए और पढ़कर उसका मजा लेना चाहिए, ज्यादा सीरियस होना अधकपारी को न्योता देने जैसा है। वोटर यह समझने भी लगा है। समझे भी क्यों न, उसके पास स्मार्टफोन है, सूचनाओं की दुनिया उसकी भी मुटठी में भी समा चुकी है। अब तो जबतक आप विश्लेषण करने का मूड बना रहे होते हैं..तबतक वह कई सूचनाएं वह आपके सामने विश्लेषणों के साथ पटक चुका होता है।
आजादी के बाद 1952 में हुए प्रथम चुनाव से अबतक में समाज, चुनाव और मीडिया 360 डिग्री घूम चुका है, बदल चुका है। यदि नहीं बदला है तो चुनाव को लेकर आम आदमी का कौतुक। अभी भी वह बड़ी दिलचस्पी के साथ चुनावों के दिन एक-एक करके गिनता है।
चुनाव, नेता और राजनीति का पहली बार भान हुआ 67-68 में, तब मैं पाँच छह बरस का था। हम बच्चे लोग सुबह से ही चोंगा वाली गड़ियों के इंतजार में रहते थे। प्रचार करने वाले हम बच्चों से नारे लगवाते थे फिर उसके एवज में टिन के बिल्ले बाँटते थे। फिर पर्चियां लुटाते हुए आगे निकल जाते थे। हर पार्टी की प्रचार गाड़ियां बारी-बारी से आती थीं। गांव में कुछेक लोगों को छोड़ बाकी सब अपने-अपने खेत-खलिहानों में मस्त रहते थे। तबका एक नारा आज भी याद है–वोट तुम्हारा कहाँ पड़ेगा..फलाने(चुनाव चिन्ह) वाली पेटी में।
ईवीएम की टेंपरिंग पर रिपोर्टिँग करने वाली नई पीढ़ी के खबरनवीसों को शायद यह पता नहीं होगा कि तब अलग-अलग दलों के लिए पेटियां भी अलग-अलग होती थी.। एजेंट अपनी-अपनी पेटियां ताकते थे। चुनाव के बाद जब वही पेटियां वाहनों पर रखीं जाती तो पार्टी के समर्थक और एजेंट ढ़ोने वाले के मनोभावों को आँकतें कि कौन वाली पेटी ज्यादा वजनी है।
गांवों में प्रधान के घर अखबार आते थे वह भी डाक से, छपने के दो-चार दिन बाद। शाम को लोग प्रधान की दहलान पर रेडियो की खबर सुनने जाते। खबर में सत्ताधारी दलों के नेताओं का ही ज्यादा बखान होता। आमतौर पर प्रधान पहले किसी भी दल का रहा हो चुनाव जीतने के बाद वह सरकार का आदमी मान लिया जाता है और उसी हिसाब से उसके कहे की विश्वसनीयता।
लेकिन एक बात जो सबसे ज्यादा असर करती थी वे थे पार्टियों के नारे। एक लाइन के नारे में कमाल का संदेश होता था। नारे वैसे ही उड़कर गाँवों तक पहुँचते थे जैसे की अफवाहें। पर गांव के वोटर में नारों और अफवाहों में के बीच का भेद समझने का विवेक था। आज तो स्मार्टफोन और इंटरनेट युग में अफवाहें, झूठी खबरें और टेंपर्ड तस्वीरे सच को घेरे और दबाए रखती हैं..। इस लिहाज से तब का वोटर ज्यादा समझदार था।
डाक्टर लोहिया से सरकारी मीडिया परहेज ही रखता था, अखबार भी आज की भाँति ज्यादातर सरकार के चारण होते थे। लोहिया जी का हमारे विंध्य में नेहरू-इंदिरा से ज्यादा बोलबाला था। उनके नारे आग लगाने का काम करते थे। मुझे उस दौर के कई नारे आज भी याद हैं-
भूखी जनता चुप न रहेगी,
धन और धरती बँट के रहेगी।
रोजी- रोटी दे न सके जो वो सरकार निकम्मी है,
जो सरकार निकम्मी है वो सरकार बदलनी है।
लोहिया ने इलाकेदारों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो गाँव-गाँव से नारे निकलकर आए-
कितनी ऊँची जेल तुम्हारी देख लिया और देखेंगे।
ये दीवाने कहाँ चले..!
इंदिरा तेरी जेलों में।
जेल के फाटक टूटेंगे,
हमारे साथी छूटेंगे।
ये नारे स्वस्फूर्त जन में प्रभावशाली संवाद कायम करते थे। ऐसे ही आंदोलनों से राजनीतिक कार्यकर्ता दीक्षित और शिक्षित होते थे।
चुनाव के समय कई नारे पब्लिक के बीच से निकलकर आते थे मसलन..
कांग्रेस के सड़ियल बैल,
खा गए गल्ला पी गए तेल।
कांग्रेस को जब गाय-बछड़े का चुनाव चिन्ह मिला तो उकताई पब्लिक ने इसे इंदिरा- के साथ संजय के साथ जोड़ दिया। ये सत्तर के दशक की बात है ..जनसंघ का चुनाव चिन्ह जलता हुआ दिया था-
कांग्रेसी हम गाँव के बच्चों से नारा लगवाते थे-
गैय्या मूतिस दिया बुझान,
सब जनसंघी परे उतान।
नारों और चुनाव चिन्ह से दीवारें रंग जाती थीं। चुनाव में जनसंचार का सबसे बड़ा यही मीडिया था।
समाज में जब गरीबी थी तब नैतिक मूल्य उच्चस्तर पर थे। अमीरों और अपराधियों से सांठगांठ किसी नेता के खिलाफ गंभीर आरोप हुआ करता था। नारे उछलते थे..
ये सरकार वो सरकार,
टाटा-बिडला की सरकार।
पूँजीवादी गठजोड़ के खिलाफ एक नारा सबसे लोकप्रिय हुआ था..शायद वह बाबा नागार्जुन के कविता की पंक्ति थी-
खादी ने मखमल से ऐसी साठगाँठ कर डाली है,
टाटा बिडला डालमिया की बरहों मास दिवाली है।
इसी गंभीर आरोप को धोने के लिए इंदिरा जी ने राजाओं का प्रिवीपर्स बंद किया, बैंकों, खदानों और वनों का राष्ट्रीयकरण किया आपको ध्यान हो कि 72 का चुनाव ..गरीबी हटाओ..के नारे के साथ लड़ा गया।
अब स्थिति पलट गई है। 2014 में लालकृष्ण आडवाणी के मुकाबले नरेन्द्र मोदी को इसलिए प्रधानमंत्री का मुफीद उम्मीदवार माना गया क्योंकि उन्हें उद्योगपतियों का समर्थन प्राप्त था। अब राजनीति के साथ पूँजी का गठजोड़ विशेषयोग्यता मानी जाती है। इस चलन की जद में सभी राजनीतिक दल हैं, लोहिया के वंशजों के दल तो इस मामले में और भी भ्रष्ट हुए हैं राजनीतिक निर्लज्जता की प्राणप्रतिष्ठा सी हो चुकी है।
इमरजेन्सी के बाद जब जनता पार्टी बनकर उभरी तो एक बड़ा सामाजिक बदलाव हुआ। वो यह था कि अपराधियों और गैंगेस्टरों का राजनीतीकरण हो गया। राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अलावा जिन दुर्दांत अपराधियों पर मीसा लगाकर जेल में बंद किया गया था..इमरजेंसी हटने के बाद वे जब जेलों के फाटक से निकले तो नेता बन चुके थे। उनके अपराध के अतीत को भुलाया जाने लगा। वो मेनस्ट्रीम की राजनीति में आकर सांसद, विधायक, प्रधान बनने लगे।
राजनीति के अपराधीकरण का जो सिलसिला 77 से शुरू हुआ वो आज कई गुना बढ़चुका है। इलेक्शन-वाँच और एडीआर की रिपोर्ट्स उठाकर देखिए हर चुनाव बाद लोकतंत्र के मंदिरों में अपराधियों की संख्या बढ़ी मिलेगी।
77 से पहले जो अपराधी मुँहअँधेरे नेताओं के लिए काम करते थे वे अब डंके की चोटपर राजनीति में आ गए। मसला यहीं नहीं रुका ..मुंबई के डाँन हाजी मस्तान बाद में अरुण गवली ने तो विधिवत राजनीतिक दलों का गठन भी कर लिया था। यूपी और बिहार में तो गैंगेस्टरों के समूचे गैंग ही राजनीतिक दलों में परिवर्तित हो गए। नेता अब बाहुबलियों के आगे समर्थन के लिए रिरियाता है।
राजनीति की गुणवत्ता गर्त में मिल गई, उसकी नैतिकता से किसी का वास्ता नहीं रहा। नब्बे के दशक के बाद से तो औद्योगिक घरानों को भी राजनीति की लत लग गई। वे अपनी थैली के दमपर राज्यसभा जाने लगे। विजय माल्या ऐसी ही जमात का चेहरें है। अब विधानसभाएं और संसद की नीतियों पर पूँजीपतियों का साफ असर या यों कहें दखल नजर आने लगा है। उन्हीं के हितों को ध्यान में रखते हुए नीतियां निर्धारित होने लगी हैं।
हमाम में हभी राजनीतिक दल नंगे हैं इसलिए मुद्दे नहीं उठते। उठते तब हैं जब उसी की जोड़ का कोई पूँजीपति किसी राजनीतिक दल के कंधों पर सवार होकर ऐसा कराए।
तो इस तरह राजनीति में बाहुबल और धनबल का दखल बढ़ता गया। आज स्थिति यह है कि टिकट का आधार ही यह बन चुका है कि क्या उसके पास इतना धन है कि चुनाव लड़ सके! क्या उम्मीदवार के पास इतने गुंडे हैं कि वो सामने वाले से मोर्चा ले सके! गरीब और साधारण राजनीतिक कार्यकर्ता चुनाव से लगभग गायब सा हो गया है। यदि आरक्षण के प्रावधान न होते तो दलित और वनवासी कभी भी विधानसभा, संसद नहीं पहुंच पाते।
मीडिया में ये बातें अब खबर नहीं रही। उसकी वजह यह भी है कि राजनीति के पतन के साथ मीडिया भी उसी गति से भ्रष्ट हुआ है और उसमें काम करने वाले भी। निचले व मध्यम दर्जे के अखबार, टीवी चैनल चिटफंडिये और बिल्डर चलाते हैं। शराब की डिस्टलरी और अखबार का संस्करण एक साथ चलता है। बड़े अखबारों व चैनलों पर उन घरानों का कब्जा है जिनके मूलधंधे कुछ और हैं। उनकी कुल जमा पूँजी का दस से पंद्रह प्रतिशत मीडिया में निवेश हो जाता है..यह निवेश उनके रसूख को बनाए रखता है।
यह फंडा भी कमाल का है, यदि वे मीडिया में नहीं होते तो इतना ही धन नेता अफसरों को चंदे व कमीशन में देने पड़ते। सो मीडिया के मूलस्वर से आम आदमी गायब हो गया। ये तभी हाजिर होता है जब कोई एजेंडा खासतौर पर डिजाइन किया जाता है।
इस तरह से राजनीति-अपराधी-पूँजीपति और मुख्यधारा के मीडिया का मजबूत गठजोड़ बन चुका है। उसी के रहमोंकरम पर लोकतंत्र, चुनाव आदि का कुशल-क्षेम है।
हाँ एक बात रह गई अभी..वह है राजनीति से धार्मिक और सांप्रदायिक मठाधीशों का गठजोड़। डंड-कमंडलधारी पोंदाड़िया साधुओं को लालबत्तियां बहुत भाने लगी हैं। प्रायः हर राजनीतिक दलों के अपने पंडे-संत-महंत और शंकराचार्य हैं। इनकी ताकत इनके पंडालों और आश्रमों में जुटने वाली भीड़ है।
रामरहीम, आसाराम, रामपाल ये सभी के सभी फुल पालटीशियन बन चुके थे। इनके अंत की शुरूआत तब हुई जब ये स्थापित राजनीतिक दलों के समानांतर अपना राजनीतिक जाजम बिछाने की कोशिश करने लगे। इनका हश्र एक तरह से उन साधुओं के लिये सबक भी है जो पंडालों में जुटी भीड़ को ही वोट में गिनने और राजनीतिक गुनताड़ा लगाने लगते हैं। बड़ा साफ संदेश है, मिलपट के रहो, एक दूसरे के काम आओ।
दुनिया जिस रफ्तार से प्रगतिशील और वैग्यानिक हुई है उसी रफ्तार से समाज की राजनीति पतित, दकियानूस और जातीय दलदल में धँसी है। पिछले विधानसभा चुनाव में मैंने कई स्टोरीज की थी जातिपाँति के दृष्टान्त को आधार बनाकर। यह बताया था कि इंदौर के होमीदाजी कभी कितने बड़े नेता हुआ करते थे जबकि उस शहर में पारसी सौ की संख्या में भी नहीं थे। विंध्य में बैरिस्टर गुलशेर अहमद कितने बड़े नेता थे..जो विधायक, सांसद, विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल बने। जहां से वे जीतते थे वहां उनकी जातिधर्म के दस प्रतिशत वोट भी नहीं हुआ करते थे। वे कांग्रेस के नेता थे। आज कांग्रेस में ही इतनी हिम्मत नहीं बची कि गुलशेर अहमद सरीखे नेताओं को किसी बहुसंख्यक बाहुल्य इलाके से टिकट देदे, भाजपा से उम्मीद ही क्या कराए। उसी सतना शहर से दो बार विधायक बनीं कांताबेन पारेख। दस घर गुजराती परिवार वाले इस विधानसभा की लोकप्रिय नेताओं में से एक थी।
आज हमारी चुनाव की रिपोर्टिंग ही यहीं से शुरू होती है कि फला लोकसभा क्षेत्र या विधानसभा क्षेत्र में किस जाति के कितने वोटर हैं। पता नहीं ये सांख्यिकी कौन उपलब्ध कराता है..जबकि जाति के आधार पर जनगणना कभी एक बार अँग्रेजों के जमाने में हुई थी। समाज के जातिपाँति के खंडखंड में बाँटने का बड़ा पाप मीडिया के खाते में जाता है। इन्हीं रिपोर्टस के आधार पर टिकटें तय होती हैं।
जातीय महापुरुषों को उनकी कब्रों, चिताओं से खन-खोद के उठाया जगाया जाता है। पिछले एक दशक से देखते आ रहे हैं कि कभी जाटों का, कभी गूजरों का तो कभी मीणाओं का आंदोलन मुसलसल चल रहा है। देखा देखी दूसरी भी जातियां कूद पड़ती हैं।
मीडिया का चरित्र निहायत नकारात्मक हो चला है। कटपेस्ट की पत्रकारिता का चलन है। ‘कउआ कान ले गया, टीवी चैनल ऐसी खबरों को उड़ाते हैं। दुर्भाग्य देखिए कि आज का वोटर सूचनाओं के मामले में कितना सशक्त और सूचना तंत्रों से लैश है लेकिन उतना ही भ्रमित। सूचनाओं पर डाके डालने वाले गिरोह अपने लावलश्कर के साथ सक्रिय हैं। सूचनाओं पर ऐसी महामिलावट है कि सिर चकरा जाए।
हाल ही लंदन इवनिंग स्टैंडर्ड ने माइक्रोसॉफ्ट के हवाले से एक रिपोर्ट छापी है। भारतवासियों के ऊपर फर्जी खबरों का घटाघोप है। 100 में हर 64 पाठकों का फर्जी खबरों से वास्ता पड़ता है। यह विश्व के औसत 57 प्रतिशत से कहीं बहुत ज्यादा है। वाट्सएप जैसा सोशलमीडिया प्लेटफार्म झूठ परोसने की मशीन में बदल चुका है।
रिपोर्ट कहती है कि पिछले पाँच वर्षों में भारत में जितने भी दंगे फसादात और माँबलीचिंग हुई है उसके पीछे प्रमुखतः वाट्सएप है। हर स्मार्टफोन धारक ब्रेकिंग न्यूज देने लगा है। सत्यता की परख के जब तक जतन हो काम हो चुका होता है। इस विधानसभा चुनाव में वाट्सएप का रंग देखने को मिला है।
आम वोटर आधुनिक सूचना संसाधनों से लैश तो है पर उसतक जो तथ्य पहुँचाए जाते हैं वे न्यस्त स्वार्थ से भरे होते हैं। 1.30 अरब की आबादी वाले देश में इस बार कोई 85 करोड़ मतदाता वोट देंगे। इनमें 18 से 24 वर्ष की आयुवर्ग के 12 से 15 करोड़ मतदाता हैं। देश में इंटरनेट यूजर्स की संख्या 2022 तक 83करोड़ के आसपास पहुंच चुकी है। अब डाटा का खेल शुरू है।
आधुनिक युग में सबसे बड़ी पूँजी डाटा है। डाटा चोरी की घटनाएं रोज खुलती हैं। आप जानना चाहेंगे कि कोई डाटा चुरा कर क्या कर लेगा। डाटा का मतलब आपकी जनम और करम कुंडली से है।
डाटा चोर इसे विश्लेषण करने वाली एजेंसियों को देते हैं। ये एजेंसियां अपने क्लांइट की माँग के अनुसार कंटेंट डिजाइन करती हैं। आपके मिजाज की पकड़ उन्हें रहती है। वे सोशलमीडिया और इंटरनेट में आपको वही पढ़ने को मजबूर कर देंगे जो उनका क्लांइट पढ़ाना चाहता है।
लगातार झूठ सच में बदल जाता है..यही मूल फंडा है जो राजनीतिक दलों के काम आता है। लोकसभा चुनाव की तैयारियां चल रही हैं..आपकी करमकुंडली अबतक किसी न किसी एनालिस्ट के पास पहुंच चुकी होगी।
अपने स्मार्टफोन में देखिए सोशलमीडिया के किसी न किसी प्लेटफार्म में ऐसी खबरें या विषयवस्तु पढ़ने को मिलेंगी जिससे आपकी दिलचस्पी है। धीरे-धीरे आप अपनी धारणा मजबूत करेंगे या कुतर्कों को पढ-पढ कर बदलेंगे। यह काम इस तरीके से होगा कि समझ न पाएंगे कि क्या सही क्या गलत।
आज सबसे ताकतवर वही कम्युनिकेटर और पीआर एजेंसी है जिसके पास जितने डाटा व फेक एकाउंट है। चुनाव में अब इसी का खेल चल रहा है कोई अपने यहां भर नहीं, अमेरिका में भी।
यह विश्वव्यापी मकड़जाल है। आने वाले चुनावों में ज्यादा वास्ता इसी से पड़ना है। यह भी संभव है कि इस चुनाव की धमक सड़क से ज्यादा आपके स्मार्टफोन में सुनाई दे।
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हम और कहाँ पहुँचेंगे..अब यह हमारे आपके बस में रहा ही कहाँ.. तुलसी कहते हैं सबै नचावत राम गोंसाई। जमाना कहता है सबै नचावत दाम गोंसाई। नाचना तो पड़ेगा।