मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिये अगले विधानसभा चुनाव इतनी सारी चुनौतियां लेकर आने वाला है, जिसका ठीक-ठीक अनुमान अभी तो आलाकमान भी लगा नहीं पा रहा, किंतु जो आहट वह सुन पा रहा है,वह परेशान कर रही है। समुचित विकल्प का चयन जहां अड़चनें डाल रहा है, वहीं प्रदेश में दलित-पिछड़े-आदिवासी वर्ग के बीच अलग-अलग मुद्दों पर मची हलचल भी सांसत में डाले हुए हैं। समय रहते उपचार की कमी इस वर्ग के बीच जनाधार को कमजोर कर सकती है। हालिया दो घटनायें सीधे तौर पर भाजपा का सिरदर्द बढ़ा चुकी है। पहली 22 अगस्त को रतलाम में आदिवसियों की विशाल रैली और शिवपुरी के अन्य पिछड़ा वर्ग के भाजपा नेता प्रीतम लोधी का निष्कासन। इन घटनाओं के बीच यूं कोई सीधा संबंध नहीं है, फिर भी ये दोनों ही घटनायें भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को खासा विचलित किये हुए हैं। आने वाले समय में नीति-परिणिति की परिधि ये घटनायें ही रहने वाली हैं।
याद रहे, रतलाम की आदिवासियों की रैली में हजारों आदिवासी शामिल हुए थे, जिनमें ज्यादातर युवा थे। वहां सरकार ने 1800 हेक्टेयर में औद्योगिक निवेश क्षेत्र विकसित करने की घोषणा की है, जिसका आदिवासी विरोध कर रहे हैं। सरकार कह रही है यह पूरी तरह से सरकारी जमीन पर है तो आदिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहे संगठन जय आदिवासी युवा शक्ति(जयस) का कहना है कि वह चारागाह हैं, जहां आदिवासियों के मवेशी चरते हैं। रैली में उनका नारा था- जो जमीन सराकरी है, वो जमीन हमारी है। प्रशासन के अधिकार गांव-गांव, घर-घर जाकर ग्रामीणों को समझा रहे हैं कि किसी भी हालत में किसी भी आदिवासी की जमीन नहीं ली जायेगी, साथ ही हजारों लोगों को रोजगार भी मिलेगा। यह भी कि यहां 25 हजार करोड़ का निवेश भी होगा, जो अंतत: क्षेत्र की समृद्धि ही बढ़ायेगा। फिलहाल तो इस समझाइश का ग्रामीणों और जयस नेताओं पर कोई असर नहीं दिख रहा। सरकार के स्तर पर आगे कुछ चर्चा हो तो पता चलेगा।
ऐसा ही मामला है, अन्य पिछड़ा वर्ग नेता प्रीतम लोधी के भाजपा से निष्कासन का । उन्होंने एक कार्यक्रम में महिलाओं व ब्राह्मणों को लेकर अमर्यादित टिप्पणी कर दी तो दल ने उन्हें निष्कासत ही कर दिया। इसके बाद लोधी समर्थकों ने ग्वालियर में विशाल प्रदर्शन किया, जिसमें मामा मुर्दाबाद सहित अनेक नारे लगाये गये। बता दें कि प्रीतम लोधी भाजपा की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के वर्ग के हैं और उमाजी की नाराजी अभी तो बनी हुई है। यदि इस वर्ग का आक्रोश भी बरकरार रहता है तो भाजपा को लेने के देने पड़ सकते हैं। वैसे केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल भी इस वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
सत्तारुढ़ दल के कुछ स्थायी सिरदर्द होते हैं. उसमें सबसे बड़ा होता है, सबको साधकर रखना। भाजपा के सामने मप्र में यह संकट दोहरा,तीहरा है। चूंकि यह कांग्रेस से आये विधायकों के समर्थन से बनी सरकार है तो ज्यादा ख्याल तो ज्योतिरादित्य सिंधिया और समर्थकों का रखना होता है। फिर, जो भाजपा के निष्ठावान कार्यकर्ता,नेता हैं,उनकी अपेक्षायें भी मंडराती रहती हैं। तीसरा, मप्र भाजपा में जनाधार वाले नेता भले ही इक्का-दुक्का हो, लेकिन सभी को मुख्यंमंत्री पद की शपथ लेने का भरोसा है। उनका यह भरोसा नेतृत्व की जब-तब नाक दबा देता है। ऐसे में मुंह से सांस कब तक ली जा सकती है? अब वक्त आ गया है, जब भाजपा आलाकमान संभवतः शिवराज सिंह को केंद्रीय स्तर पर कोई जिम्मेदारी देकर भोपाल के ताल में किसी दूसरे गोताखोर को उतारने का कदम उठाए। इस मशक्कत से अभी दो-चार हो ही रहे थे कि उपर्युक्त घटनाओं ने सारे समीकरण ही बिगाड़ कर रख दिये लगते हैं।
भाजपा के दिल्ली दरबार के सामने अब दो यक्ष प्रश्न हैं। एक, क्या शिवराज को अभी हटाकर दूसरे को मौका दिया जाये। दूसरा, अगला मुख्यमंत्री किस वर्ग से हो, जो प्रदेश में व्यापक तादाद में हो और इस परिवर्तन को भाजपा के पक्ष में बल वृद्धि कर सके। पहले ब्राह्मण,वैश्य से प्रारंभ हुई यह परिक्रमा अब आदिवासी,पिछड़े,दलित वर्ग की ओर खिसकती नजर आ रही है। राजनीति जो न कराये, कम है। ऐसे में कही यह ना हो कि शिवराज विरोधियों के लिये कहा जाये कि माया मिली न राम। याने भाजपा आलाकमान मुख्यमंत्री चयन की दुविधा को खत्म कर अगले चुनाव की कमान भी शिवराज को ही सौंप दे और परिणामों के बाद तय करे कि अगला मुख्यमंत्री किसे बनाये, बशर्ते उनकी ही सरकार बने।
इस तरह से भाजपा की मुश्किलों का हाल-फिलहाल तो अंत नजर नहीं आता। सत्ता पक्ष के प्रमुख संतापों में से यह एक है। जिसके हाथ बागडोर नहीं आती है, वह यदि अति महत्वाकांक्षी है तो कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को सुकून से नहीं रहने देता। भाजपा में इस समय कम से कम तीन लोग तो खम ठोंकने की स्थिति में हैं। ऐसे मं भाजपा ने गंभीर चिंतन-मनन की प्रकिर्या प्रारंभ भी कर दी है, जिसके तहत भाजपा की महत्वपूर्ण बैठक 4 सितंबर को भोपाल में हो ही चुकी है। मप्र में आदिवासी-पिछड़े वर्ग के उल्लेखनीय दखल के परिप्रेक्ष्य में इस वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व देना भी जरूरी है। हालांकि भाजपा के पास इस समय समान रूप से पूरे प्रदेश में लोकप्रिय और चर्चित नाम एक भी नहीं है। खासकर तब, जब लोकप्रियता के मामले में तुलना शिवराज सिंह चौहान से की जानी हो। 15 साल के सतत संपर्क, व्यापक प्रदेश भ्रमण, जनता से अनेक मौकों पर सीधा संवाद और मामा के तमगे ने उन्हें शहर से लेकर तो ठेठ गांव तक पहुंचा दिया है। यह जादू अभी तो किसी का नहीं है। भाजपा के लिये यह मुद्दा बड़ी चिंता बनकर उभऱा है। इसका समाधान उसे 2022 में ही हर हाल मे निकालना होगा। वह 2023 में किसी भी तरह का प्रयोग करने की स्थिति में नहीं होगी। इसलिये परिवर्तन करना है तो और नहीं करना है तो भी उसे स्पष्ट फैसला लेकर उसे घोषित भी करना होगा, ताकि नेताओं की टोली,प्रतीक्षारत मुख्यमंत्री प्रत्याशी और कार्यकर्ताओं की फौज मैदान पकड़ सके।
यूं दूर तक भाजपा के पास सर्व स्वीकार्य नेता किसी भी वर्ग में इस समय नहीं है। उसकी इसी मजबूरी का नाम शिवराज सिंह चौहान हैं। जो भी व्यक्ति मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजित होगा,उसे सामंजस्य में ही पसीना आ जायेगा। ज्यादा संकट आदिवासी,दलित,पिछड़े वर्ग का भी है। उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि मप्र में इन वर्गों से दूसरी पंक्ति का नेतृत्व भी तैयार किया जाये। जो ब्राह्मण नेता हैं, वे एक खास क्षेत्र तक ही प्रभावी हैं। आदिवासियों में नेतृत्व उभर भी रहा है तो वह न भाजपा का है न कांग्रेस का। वे अपने क्षेत्र में अपने वर्ग के दम पर अपना कद बढ़ा रहे हैं। भाजपा-कांग्रेस दोनों के लिये बड़ी चिंता का विषय यह भी है कि जुलाई में जयस ने भोपाल में सम्मेलन कर घोषणा की है कि वह अगले विधानसभा चुनाव में अपने 47 प्रत्याशी खड़े करेगा। जाहिर सी बात है कि वह दोनों के ही समीकरण बिगाड़ेगा।
भाजपा के सामने एक रास्ता यह भी है कि वह जयस को अपनी तरफ मोड़ ले। अभी उसके धार जिले के मनावर से विधायक डा.हीरालाल अलावा बड़ी संभावना हो सकते हैं। उन्हें अगली बार मौका देने के वादे के साथ भाजपा मना सकती है। शिक्षित युवा होने के साथ उनका आदिवासियों के बीच लगातार बढ़ता जनाधार भाजपा के लिये बढ़ी ताकत साबित हो सकता है। तय जयस ही करेगा कि वह किसी दल के साथ जाये या मोलतोल करने जितनी सीटें लाकर खुद ही सीधे मुख्यमंत्री पद का सौदा करे। ऐसे में भाजपा के सामने आसन्न संकट यह है कि वह प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन और आदिवासी-पिछड़े वर्ग की ओर से मिल रही चुनौतियों के बीच कैसे तालमेल बिठाये। भाजपा के लिये बहुत कठिन डगर है 2023 के विधानसभा चुनाव की।