MP Bjp is in new era:18 बरस लंबी शिव पुराण की इतिश्री !
एक बार फिर भाजपा आलाकमान ने जनता से लेकर तो भाजपाइयों तक को चौंकाते हुए उज्जैन से विधायक डा.मोहन यादव को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया है। इसका कोई तात्कालिक समीकरण किसी की समझ में नहीं आ रहा, सिवाय इसके कि वे भी ओबीसी हैं, जो शिवराज सिंह चौहान भी थे। लोकसभा चुनाव में जातिगत मुद्दे के हावी रहने के मद्देनजर इस बात का ध्यान रखा गया होगा,ऐसा माना जा सकता है, लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि मप्र भाजपा के जितने दिग्गज हैं,जो प्रतीक्षारत मुख्यमंत्री थे, वे क्या प्रतिक्रिया देते हैं, सोचते हैं या लोकसभा चुनाव के लिये किस निष्ठा से काम करते हैं? वैसे करीब 30 साल बाद मालवा-निमाड़ से कोई मुख्यमंत्री बन पाया है। याद रहे, 1993 तक सुंदरलाल पटवा भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री रहे हैं। वे भी उज्जैन संभाग से थे, और मोहन यादव भी वहीं के हैं।
अब जबकि मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड जीत के बाद भी भाजपा के सबसे लोकप्रिय नेता शिवराज सिंह चौहान को पांचवीं बार मुख्यमंत्री पद पर नहीं बिठाया गया, तब उन तमाम कारणों को टटोला जाना लाजमी है,जो उनकी राह में कांटे साबित हुए। डेढ़ साल के अंतराल को छोड़ दें तो 2005 से 2023 तक के 18 बरस वे मुख्यमंत्री रहे और विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद भी श्यामला हिल्स से बिदा लेना पड़ी। आखिरकार शिव के साथ ऐसा क्यों हुआ ?
हाल-फिलहाल किसी बड़े और प्रमुख कारण की बात करें तो एक ही कारण प्रमुख नजर आता है-शिवराज सिंह चौहान का मप्र भाजपा हो जाना । जी हां, ऐसा वे मानते थे या समर्थकों ने ऐसा प्रचार किया या राष्ट्रीय नेतृत्व ने ऐसा समझा-इससे अब कोई फर्क नहीं पड़ता। संदेश तो वैसा ही कुछ जाता रहा,लक्षण तो वैसे ही प्रकट होते रहे,आचरण भी कुछ-कुछ इस तरह का ही हो चला था। बोल-वचन का बडबोलापन भी इसी श्रेणी में आता है। यदि नवंबर 2022 से अभी तक का लेखा-जोखा देखें तो पाते हैं कि शिव के प्रति भाजपा आलाकमान की नाराजी तो कम-ज्यादा एक बरस पहले से ही पैदा हो गई थी, लेकिन कुछ इस तरह के कारण बीच में आते रहे, जिससे उन्हें हटाया जाना टलता रहा। इसके पीछे राजनीतिक कारण ही ज्यादा थे, जो रणनीतिक रूप से सही साबित भी हुए।
दरअसल, 2018 में भाजपा के हाथ से सत्ता छिटक जाने का बड़ा कारण शिवराज की रीति-नीति-व्यवहार को ही माना गया । चूंकि 2008 और 2013 में शिवराज के नेतृत्व में ही मप्र में भाजपा की वापसी हुई थी तो उन्हें प्राकृतिक लाभ भी दिया गया। इसी के बूते 2013 से 18 तक ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर तो 2018 के चुनाव में प्रत्याशी चयन तक शिवराज पर एकतरफा फैसले लेने के आरोप लगते रहे। अधिकारी प्रधान सत्ता व्यवस्था हो गई। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं तक की अनसुनी की गई । प्रशासन भी चंद अधिकारियों की मर्जी से चलता रहा, जिसने मंत्रियो और मातहत अधिकरियों तक के बीच असंतोष और कुंठा को जन्म दिया। नतीजा था सत्ता का हाथ से छिटकना। वह तो भला हो ज्योतिरादित्य सिंधिया का, जो कांग्रेस से आहत होकर सदलबल भाजपा में चले आये और साथ में बोनस के रूप में प्रदेश की सत्ता भी ले आये।
इसके बाद की कहानी शिवराज सिंह चौहान की एकला चलो रे के किस्सों से भरी है। इसमें दो राय नहीं कि वे जनता के बीच संपर्क बढ़ाते जा रहे थे और सघन दौरे भी कर रहे थे, लेकिन ये सब अपन छवि चमकाने और स्वयं को एकछत्र भाजपा नेता के तौर पर स्थापित करने की तरह ही प्रतीत होता रहा। दूसरी तरफ उन्होंने दो-तीन अधिकारियों पर अपना अवलंबन इतना बढ़ा लिया कि अनेक क्षमतावान,योग्य और वरिष्ठ अधिकारी भी आहत महसूस करने लगे। शिकायतें ऊपर जाने लगीं, किंतु सही समय का इंतजार होता रहा।
इस बीच आ गया भारतीय प्रवासी दिवस, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रिय आयोजन है। इसकी मेजबानी मप्र को मिली तो शिवराज को जीवनदान मिल गया। आयोजन नि:संदेह बेहतर रहा,जिसमें मोदी जी भी आये । 8,9,10 जनवरी 2023 को यह संपन्न होने के बाद 11,12 जनवरी को ग्लोबल मीट भी इंदौर में ही आयोजित हुई, जिसमें राष्ट्रपति शामिल हुई और इसे भी भव्यता-गरिमा के साथ के साथ किया गया। इन दो आयोजनों ने भी शिवराज को बरकरार रखने में सहायता की।
इस आयोजनों ने शिवराज को जैसे नई ऊर्जा से भर दिया और अश्वमेघ यज्ञ की तरह प्रदेश भ्रमण पर निकल पड़े। उनके सामने एक ही लक्ष्य था-नवंबर 2023 के विधानसभा चुनाव और उसमें भाजपा की विजय सुनिश्चित कर फिर से मुख्यमंत्री बनना। जून में उन्होंने लाड़ली बहना का पिटारा खोल दिया और कांग्रेस कुछ प्रलोभन दे,उससे पहले मतदाताओं की जेब भरने के लिये खजाने का ताला खोल दिया। भले ही इसके लिये कर्ज लेना पड़ा हो।
इस सबके बावजूद भाजपा कार्यकर्ताओं,नेताओं की नाराजी दूर नहीं हो रही थी। तब जाकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जून से ही मोर्चा संभाला और सतत दौरे कर कार्यकर्ताओं को भरोसा दिलाया कि शिवराज ही सब कुछ नहीं हैं। मप्र की बागडोर अब हमारे हाथ है।इतना ही नहीं तो समूचे प्रचार अभियान में लाड़ली बहना को प्रधानता नहीं देकर केवल मप्र के मन में मोदी को उभारा गया। एकाध बार का अपवाद छोड़ दें तो मोदीजी ने कभी जिक्र भी नहीं किया। चूंकि कांग्रेस शिवराज के चेहरे को सरकार विरोधी मुद्दे की तरह लेकर दौड़ रही थी, जिसे खारिज करने के लिये शिवराज को कायम रखते हुए,उन्हें महत्वहीन दिखाना भाजपा आलकमान के लिये जरूरी हो गया था। इसके लिये सितंबर में वे 39 टिकट पहले घोषित कर दिये गये, जहां 2018 में भाजपा हारी थी। इनमें से 24 सीटे भाजपा जीत चुकी हैं।
बीच में कुछ समय शिवराज थोडा निष्क्रिय भी हुए, लेकिन जल्द ही उनकी समझ में आ गया कि इस तरह तो वे हाशिये पर धकेल दिये जायेंगे तो फिर से मैदान पकड़ लिया। उसके बाद का घटनाक्रम और बयानबाजी पर गौर कीजिये। पहले शिवराज बोले-मैं फिनिक्स की तरह अपनी ही राख से फिर पैदा हो जाऊंगा। फिर बोले-सुन लो रे, मैं वापस आ गया हूं। फिर नतीजे आ जाने के बाद शिवराज ने दिल्ली जाकर वरिष्ठ नेताओं से मिलने का शिष्टाचार निभाना भी जरूरी नहीं समझा। इतना ही नहीं तो वे बोले कि मेरे लिये जनता ही सब कुछ है, सिंहासन नहीं और छिंदवाड़ा चले गये, यह कहते हुए कि वे लोकसभा चुनाव में सभी 29 सीटें जिताना चाहते हैं।
भाजपा नेतृत्व तो वैसे भी साल भर से उन्हें हटाने का मन बना ही चुका था,इतंजार था तो सही समय का। इसका यह मतलब नहीं कि वे पूरी तरह से दरकिनार कर दिये जायेंगे। आगे-पीछे शिवराज को संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जा सकती है। इस तरह से मध्यप्रदेश में 18 बरस लंबी शिव-पुराण की इतिश्री हो गई।