Mystery and Thriller Story Telling Series-3:”वो सुन्दर झिरन्या और चहरे के निशान”

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रहस्य और रोमांचक किस्सागोई  की शृंखला-3

मित्रों हम इस बार एक नयी  शृंखला शुरू की हैं ” रहस्य और रोमांच के  किस्से -कहानियां ” .इन्हें आप बचपन में सुने उन किस्सों से जोड़ सकते हैं जिन्हें डरते हुए भी सुनाने और सुनने की जिज्ञासा बनी रहती थी .रात घर का परदा हवा से भी हिले तो आप चीख पड़ते थे “भूत -भूत “–!अगर आप कमजोर दिल वाले हैं तो निस्संदेह इन्हें ना पढ़े ,लेकिन अगर आप परा मनोविज्ञान और आलौकिक या पारलौकिक दुनिया और घटनाओं में रूचि रखते हैं तो आप स्वयं तय  करें!

सनातन धर्म के अनुसार भूत-प्रेत और आत्माएं आदि को लोककथा और संस्कृति में आलौकिक अदृश्य   प्राणी बताया गया है,जो किसी मृतक की आत्मा से बनते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस किसी की मृत्यु से पहले कोई इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती और वो पुनर्जन्म के लिये स्वर्ग या नरक नहीं जा पाते वो भूत बन जाते हैं. भारत समेत दुनियाभर में आज 21वीं सदी में भी काला जादू, तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं. एक शोध के अनुसार पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद 40 प्रतिशत से अधिक है. यह विश्वास पीढ़ियों से भारत के लोगों के दिमाग में गहराई से जुड़ा हुआ है और यह आधुनिक तकनीक और वैज्ञानिक विकास के युग में भी बना हुआ है. किसी ना किसी रूप में अधिकाँश लोग  नकारात्मक शक्तियों और पैरानॉर्मल ऐक्टिविटीज के अस्तित्व में विश्वास रखतें है. चाहे भूतडी अमावस्या हो ,चाहे हेलोवीन .और इसीलिए हम घर इत्यादि को वास्तु के अनुसार सकारात्मक उर्जा देख कर लेते हैं .लेकिन कई बार अनजाने में नेगेटिव एनर्जी के बारे में जानने के उत्सुक भी  होते हैं.

इस शृंखला में वे किस्से हैं जो अनसुने हैं !आइये  चर्चित कथाकार डॉ स्वाति तिवारी की कलम से         रहस्य और रोमांचक किस्सागोई  की शृंखला  –
परा मनोविज्ञान के किस्से कथाएं

Mystery and Thriller Story Telling Series-3:”वो सुन्दर झिरन्या और चहरे के निशान”

डॉ.स्वाति तिवारी 

उस दिन भी रोज की तरह  दरवाजे की कुण्डी बजी तो मैंने ही दरवाजे की सांकल खोली थी .माँ  तो  सुबह जल्दी उठकर हम पांच लोगों का खाना बनाकर स्कूल चली जाती थी .मैं प्राथमिक  सेक्शन में थी मेरा स्कूल दोपहर में लगता था .अक्सर जब सुबह कावड़िया पानी डालने आता तो हम भाई बहन ही घर में होते .उस दिन कावड़िया दो तीन दिन बाद आया था .घर में पानी का बस अकाल ही  पड़ने वाला था क्योंकि आसपास आनेवाले एक दो दूसरे भी कावड़िये नहीं  आ रहे थे .मैंने उसे माँ के अंदाज में कड़क आवाज से  डांटने वाले अंदाज   में कहा “क्या दादा अब क्या गर्मी में पानी पीने नद्दी पर जाना पडेगा ?”

पहली बार वह  चुप रहा ,हर बार तो दांत दिखाता हीही कर मेरी डांट पर  खीसे निपोरता मदन कावड़िया खाली डिब्बे का बचा पानी मेरे सर पर डालता हुआ जाता था “हो छोटी जीजी कल से तुमको इस डिब्बे में बिठा  कर झिरन्या में पांच डूबकी लगवा दूंगा ,पी लेना पानी जित्ता पीना हो .” लेकिन आज वह चुप चाप पानी घड़े में पलट रहा था .उसके चुप रहने पर  दादी को लगा यह चुप क्यों है “उन्होंने पूछ कारे छोरा काई हुयो ?काई थारी तबेत ख़राब छे काई’ दादी उन दिनों हमारे साथ रहने आई हुई थी  . वह रोने लगा था “माय ये देखो ,ये देखो उसने अपनी पीठ भी दादी को दिखाई .’निमाड़ का वह कावड़िया मदन भाई हमारे घर के सदस्य जैसा रहा ,वह कई बार घर के कई काम कर देता जैसे अनाज पिसवाना,सब्जी लाना ,पिताजी के कपडे प्रेस करना [कोयले की प्रेस से ] .दादी के लिए पूजा के फूल तोड़ लाना .बदले में माँ अक्सर उसके लिए एक प्लेट में कुछ खाने का निकाल कर जाती थी ,ना हो तो रात की  रोटी और अचार ही होता था.तीज त्यौहार पर पिताजी उसे एक  बुशर्ट [यह तब की बात है जब शर्त को बुशर्ट कहने का चलन था }ला देते थे और उसे  अपनी ट्यूशन क्लास में बिना कोई फीस लिए  पढ़ा देते थे,यूँ भी ज्यादातर बिना शुल्क वाले ही होते थे  .

उस दिन उसके चहरे पर गहरे लाल चकत्ते जैसे निशान देखे थे हमने,दादी और मैंने .वे किसी तमाचे के निशान थे ,अगर उन निशानों को फोटो लेकर फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट को भेजते तो क्या पता दुनिया के सामने कितने नए रहस्य खुलते ! क्या हुआ था मदन दादा के साथ ?यह राज उनके गाँव जाने के बाद लोगों ने बदल -बदल कर किस्सों में कहे .

यह किस्सा होल्कर राज्यों की राजधानी  से थोडा दूर स्थित एक कस्बे का है.यह क़स्बा सबसे पवित्र नदी के तट पर बसा है .इस नदी को हिंदुओं द्वारा एक पवित्र नदी माना जाता है यहाँ  तालाब, मंदिर और घाट तो हैं ही उन दिनों यहीं मरघट भी इसी के किनारे था ।  धवल-कुंड और हथनी (द्वीप), सहस्त्रधारा, और राम कुंड जैसे ऐतिहासिक महत्व के अन्य स्थान भी इसी के आसपास हैं. यहाँ मेरे पिता आठ साल रहे .ये साल वे थे जब मैं साइकल चलाना ,उल्टा घड़ा लेकर नदी में तैरना सिख रही थी .इस नदी में ही मैंने तैरना और बालू रेत में हथेली से खोद – खोद कर झिरी बनाना भी सिखा था .यहाँ हम नहाते  ,तैरने ,कपडे धोते  और तट से थोड़ी  दूर नदी की रेत में से झिरी खोदकर पीने का साफ़ पानी भर लेते थे .पानी भर लेने का अर्थ होता था उस झिरी से जो पानी रेत के कुंड में एकत्र होता है उसे उलीच लेना .यह अंजुरी से भी किया जाता था या किसी भगोने जैसे बर्तन से भी .बच्चे थे ,गर्मियों में यह एक शगल ज्यादा था घर की जरूरत बिलकुल नहीं.

माँ ने हमेशा घर आये जल को सर माथे लगाया फिर यह तो उनके बच्चे लेकर आते थे ,सरल मन और शुद्ध भाव से  क्योंकि पानी तो कावड़िया भर जाता था पर हम तैरने के लिए छोटे छोरे ताम्बे के जो घड़े या कलसे ले जाते थे उन्हें आते वक्त भर कर ले आते थे .माँ उस जल को शुद्ध जल [कन्या लेकर आती थी  ] मानती थी जो पूजा के लिए काम आता था.

यह वो जमाना भी था, जब बोतलों का चलन दुनिया में नहीं आया था .पानी नदी, कुए, बावड़ी से ही या तो स्वयम  लाया जाता था ,या पानी के कावड़िया लगा कर भरवा लिया जाता था .कावड़िया उस समय कहार हुआ करते थे . जो एक बांस के डंडे में दोनों किनारे पर टीन  के  तेल वाले १५ लीटर वाले डिब्बे बाँध कर उन्हें पेयजल स्त्रोतों से भरकर प्रति डिब्बा पैसे लेते थे या वे बंदी भी बाँध लेते थे. यह पानी  पहले लठ्ठे के कपडे के गलने से छाना जाता फिर फिटकरी घूमा कर पानी में व्याप्त अशुद्धि को बर्तन की तलछटी में बैठाने के बाद निथार कर पीने के लिए काम में लिया जाता था .हाँ मैं बात कर रही थी नदी की रेत में खोदी गई झिरी की .

झिरी, जिसे हम रोज अपनी अपनी खोद कर पानी एकत्र कर लेते थे  लेकिन घटना झिरी की नहीं थी वह था इसी कसबे में झिरन्या. झिरन्या इसी का शायद बड़ा और पक्का किया बावड़ी ,और कुएं के बीच का कोई जल स्त्रोत कहा जा सकता है. कहते हैं कि, झिरन्या में भूगर्भ से कोई जल धार आती और झरती  रहती है,इसीलिए इसे झरना के बजाय झिरनया कहा जाता है .  उनका जल ठंडा और मीठा भी होता है .कई मिनरल्स और जड़ीबूटियों  उसमें घूले मिले होने से स्वास्थ के लिए वह नीरा जैसा था .

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हमारे इस कस्बे में बस्ती   से दूर सरकारी स्कूल से समानांतर जानेवाली पगडंडी पर जो आगे जाकर मरघट तक जाती थी ,उसी की एक पगडण्डी से दूरस्थ सघन स्थल पर बना था एक झिरन्या . कुछ कच्चा कुछ पक्का सा पत्थर काट कर सीढियाँ भी  निर्माण की हुई थी .हरे भरे वनस्पतियों से पूर्णतया आच्छादित इस जल स्त्रोत को  छोटी- छोटी पर्वत श्रृंखला ने कुंड जैसा आकार दे दिया था .किसी तांत्रिक की एक कुटिया भी बनी हुई थी ,और किसी देवता का अनगढ़ स्थान भी था शायद .जहाँ तंत्र मन्त्र की जैसे लिपि बद्ध कोई शिलालेख भी बताये जाते .

मैं उस समय उम्र के लिहाज से बहुत छोटी ही रही होंगी .मुझे कभी झिरन्या पर जाने का कोई अवसर नहीं मिला ,लेकिन एक बार  स्कूल से पिकनिक जाते हुए झिरन्या रास्ते में आया था .उसकी उस अद्वितीय सुन्दरता की स्मृति आज भी ज्यों की त्यों है . आश्चर्य की बात यह है कि झिरन्या को मैंने देखा कम और सुना ज्यादा था  .यह एक एसा स्थान जो एकांत भी और रहस्यमय भी था .यहाँ के बारे में जो किस्से उस बाल उम्र में सुन रखे थे ,उस में यह भी ज्ञात था कि यहाँ दोपहर बारह बजे के बाद और शाम चार बजे के पहले स्नान करना प्रतिबंधित किया हुआ था .कहते हैं लोग जो नहाने तैरने या पानी लाने जाते हैं वे अकेले नहीं जाते  .सूर्यास्त के बाद तो लोग उस दिशा में देखते भी नहीं थे .लोगों के पास की रोंगटे खड़े करनेवाले इस जगह के सच्चे झूठे कई किस्से थे.ये किस्से अक्सर लोग बड़े चाव से सुनते हैं और सुनानेवाले बड़े चाव से सुनाते थे  ,शायद सुनाते ही इसलिए थे कि लोग उन्हें बड़ा दिलेर समझे .

मैं उन दिनों जिज्ञासु  हो रही थी. हमारे स्कूल में उस जमाने में लंच टाइम को डिब्बा खाने की छूट्टी कहते थे .स्कूल के पीछे पहाडी ढलान उतर कर हम उन इमली के पेड़ों के झुरमुट में कच्ची  इमली बीनने भाग जाते थे .और जब  महिला चपरासी हमें डरा धमका कर लाती तो वो जरुर कहती “जाओ और जाओ इमली की डाक्कंन जब पकडेगी तो —— मेरे से मत केना “और फिर स्कूली किस्सों में कभी  निम्बू के झाड तो कभी इमली के  निचे के किस्से चलने लगते .कभी उलटे पैर वाली ,कभी बड़े बड़े दांत वाली —!

    झिरन्या कस्बे से दूर  होने से यहाँ तांत्रिक गतिविधी की संभावानाएं थी ,क्योंकि मरघट और नदी से बह कर आनेवाली अकाल मृत्यु प्राप्त देहों को वहां तट के कटाव में अटकने के कई  किस्से आये दिन चर्चा में रहते थे. और कहा जाता है कि तांत्रिक क्रियाएं उन्ही पर होती है ,तब घर में अखबार का चलन था ना कोई टीवी होते थे.फोन और मोबाइल तो कल्पना  में भी नहीं थे बातें और चर्चाएँ ही ख़बरों का विस्तारऔर प्रसारण का एकमात्र आधार हुआ करती थी .हम बच्चे भी यहाँ वहां से सुनी सुनाई  ख़बरों को अगले को सुनाते जैसे -,आज हमारे बाबूजी को नाई काका ने बताया स्कूल के पीछे ,हाँ वही कटाव वाली धारा में एकअध् जली हालत में पडी दिखी ,काका बोले “मैं तो उलटे पैर भागा! पिताजी डांटते “बच्चों के सामने फालतू बातें मत किया करो.”

फिर  बाड़े जैसा हमारा कालोनी केम्पस था  जहाँ हमारा घर था. पांच सात घर थे इस कच्ची कोट की दिवार के अन्दर  .यह घंटाघर के पीछे ही था .कई बार रात के घंटे भी डरा देते थे.उसके किस्से फिर कभी . शाम को सारे बच्चे ओटले पर अपनी जाजम जमा लेते किस्से-कहानी सब चलते .स्कूल की बातें,शिक्षको की नक़ल,लगाईं बुझाई और डरावने किस्से कुछ भी सुना और चटकारे के साथ सुनाया  जाता .

उस दिन मदन {काल्पनिक नाम }दादा के गाल के निशान देखे जरुर थे मैंने पर कुछ समझ नहीं आया ,”मैंने मजाक में पूछ लिया क्यों इमली के निचे गए थे क्या दाक्कन ने मारा !'”

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वो  भोचक्का सा मुझे देख रहा था . हो  बेन जाना मत उधर .बोलता हुआ वो चला गया था .फिर कई हफ्ते वह नहीं आया .दुसरे पानी वाले को लगा लिया गया ,उससे एक दिन माँ ने पूछा “ये मदन भाई जी कहाँ चला गया ?”

उसने बताया कि एक दिन मदन भाई झिरन्या पर अकेला दोपहर में चला गया था बस आ गया हवा की चपेट में इतर की [खुशबु ]कोई शीशी उसको किनारे पर मिली थी उसने वही लगा रखा था एसा तमाचा मारा हवा ने की —“दुपहरी में जाना ही क्यों जब मालूम था तो ,पर नए छोरे हैं सुनते ज नी.  कईं बोले उ केवडा को इतर [इत्र] लगाईं लियो थो छोरा ने १२ बजे काल को समय कौन जाय झिरन्या पे ,पर यो मति को मारयो गयो पानी का डिब्बा भरने ? निकल्लियो  न थोड़ी दूर आयो कि कोई ने पीछे से लपेटो मारयों. यो के की काका मैं समझयो कोई यार दोस्त छे !पण पीछे तो कोई दिख्योज नी. पण थो कोई  एकदम गाल पे भी झापड़ की चन्ना च्न्नाहत हुई न फिर म्हारे कोई होश नी थो हूँ  बेहोश हुई गयो .

माँ ने पूछ लिया “तो  भाई जी यो वापस आयो केसे होयगो ?’

“हम जब निकलया तो यो वांह पडयो थो .जगायो घरे लाया बोल्यो इतर की शीशी जेब में नी थी ,गायब !”

“हो !जरुर वो इतर लेने आयो,नदी नाले लोग के हे कि सुन्धित तेल न इतर लागैने नी जाणो चाहिए .”माँ के मुंह से निकला

“फिर ‘ माँ की आँखे फटी की फटी और मुंह खुला का खुला

“हो !बेनजी काई करे छोरो एसो ! डरयो एसो डरयो कि  आँख बंद इज नी होती थी ,उठी-उठी ने बैठी जातो ,हापने लागतो . फिर गाँव खबर करी ,इका माय बाप आया बापडा न छोरा ने झाडफूंक वास्ते नद्दी पार टेकरी का बाबा पास लेई गया .सुन्यो हे थोड़ो  पेला से ठीक है पर न बोले न जवाब दे ,देख्या करे टकर टकर .

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एक दिन पिताजी नाव से उसके घर गए उसको समझाया की ये वहम है ,वो साधू बाबा था ,चलो  पढो और परीक्षा दो .धीरे धीरे वो पढने आने लगा और हम उसके बाद अगले शहर में बदली होकर चले गए .झिरन्या का रहस्य आज तक वैसा ही है ,मदन पास हो गया था लेकिन पानी का काम छोड़ दिया था उसने .सोचती हूँ गाल के निशान जिन्दा आदमी के थे या किसी अदृश्य के यह राज कैसे खुलेगा !और क्या फिंगर प्रिंट में वे निशाँन दिखाई दे सकते है जिन्हें हम नहीं देख सकते पर वे इतने गहरे निशान दे जाते हैं .क्या खुशबु से आत्माओं का कोई ख़ास आकर्षण हो सकता है ?क्या मदन दादा ने कोई गलती तो नहीं की थी ?कई सवाल आज भी अनसुलझे हैं .

डॉ .स्वाति तिवारी ,कहानीकार 

नोट :यह किस्सा एक किस्से की रूपांतरित काल्पनिक किस्सागोई है!

कहानी: वो कौन था /