कृषि क़ानून औंधे मुँह गिरे

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मोदी सरकार के महत्वाकांक्षी कृषि सुधार के तीनों क़ानून औंधे मुँह गिर पड़े हैं। भारत के पश्चिमोत्तर के समृद्ध क्षेत्र के सम्पन्न किसानों के समक्ष भारत सरकार लेट गई है। इन तीनों कानूनों को रद्द करने के साथ-साथ भारत सरकार ने MSP पर क़ानून बनाने पर विचार के लिए कमेटी बनाने तथा बिजली विधेयक एवं पराली संबंधी कानूनों पर भी पुनर्विचार का आश्वासन दे दियाहै। विशेष विचारणीय है कि आन्दोलनकारी किसान संघ ने माँग की है कि MSP पर विचार करने वाली कमेटी में भारत के किसी भी दूसरे क्षेत्र के किसानों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाए अर्थात ग़रीब किसानों का कोई प्रतिनिधि नहीं होना चाहिए।सर्वविदित है कि केवल छह प्रतिशत किसान ही MSP का लाभ उठाते हैं। सरकार इसलिए झुकी क्योंकि कुछ थोड़े से वोट भी चुनावों में बड़ा उलटफेर कर सकते हैं।प्रजातंत्र का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वमान्य सिद्धान्त चुनाव जीतना है।

विपक्ष ने अपनी सहज प्रवृत्ति के अनुसार किसी भी प्रकार के सरकार विरोधी आंदोलन का साथ देने की नीति अपनायी।कांग्रेस ने मौक़ा देखकर अपने मैनिफेस्टो से पलटी मारते हुए तथा मोदी के हर विरोधी को अपना परम हितैषी मानते हुए इस आंदोलन के पक्ष में अनेक तर्क निर्मित कर लिये। यहाँ तक कि वामपंथी एवं समाजवादी भी इन सम्पन्न किसानों के पक्ष में खड़े दिखाई दिए।बड़ी कंपनियों के शोषण का भय दिखाकर ग़रीब किसानों को कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग से वंचित करके हमेशा के लिए उन्हें यथास्थिति में ग़रीबी में पड़े रहने के लिए मजबूर कर दिया है।ये क़ानून पूरी तरह से एक्छिक थे जिस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इन कानूनों के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा चुका है और अब हमें देखना है कि आगे क्या किया जा सकता है।

चावल और गेहूं की MSP भाव पर ख़रीदी से सम्पन्न किसानों की जेबें भरती रहेगी और उसकी भरपाई सारे देश के करदाता करने पर मजबूर रहेंगे। जिन बहुसंख्यक किसानों के पास बेचने के लिए अतिरिक्त अनाज है ही नहीं उनके लिए क्या किया जाय ? उनके उत्थान के लिए किसी भी सरकार के समक्ष भारी कठिनाइयाँ है। यदि साधारण किसानों की पैदावार बढ़ाने के सभी संभव उपाय कर के उन्हें लाभ पहुँचाना है तो समस्या यह खड़ी होगी कि अधिक उपज के कारण भाव गिरने लगेंगे।MSP के कारण पूर्व से ही गोदामों में अतिरिक्त अनाज भरा पड़ा है।अतिरिक्त कृषि उपज को बाहर राष्ट्रों को निर्यात करने की भी कोई संभावना नहीं है क्योंकि विदेशी राष्ट्र भारत की सब्सिडी देकर पैदा की गई उपज पर उतना ही आयात शुल्क लगा देंगे। परम्परागत फसलों के स्थान पर उनका विविधीकरण ( diversification) भी अब संभव नहीं है क्योंकि इनकी मार्केटिंग के सभी मार्ग बंद कर दिये गये हैं।

कृषि सेक्टर की समस्या का हल अब कृषि में न होकर अन्य क्षेत्रों में है। भारत के विशाल संख्या में सीमान्त और भूमिहीन किसानों को कृषि से निकाल कर उद्योग और सर्विस सेक्टरों में लगाना होगा। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि जोतों पर दबाव कम होगा और लाभ की खेती हो सकेगी। उद्योगों में आने वाली ग्रामीण जनता की आय में वृद्धि होगी और साथ ही देश की GDP में भी वृद्धि होगी। GDP वृद्धि के साथ सरकार की आय में वृद्धि होगी और सरकार किसानों के खातों में सीधे धन जमा कर उन्हें लाभ पहुँचा सकती है।

इंडस्ट्री और सर्विस सेक्टर में अधिक रोज़गार बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि इन सेक्टरों की वृद्धि के लिए सरकार समुचित नीतिगत सहायता करें। यदि इसके लिए ठोस उपाय नहीं किए गए तो देश हल्की फुल्की वृद्धि के साथ लुढ़कता रहेगा। हमें अनेक सरकारी एसेट का निजीकरण और मोनेटाइजेशन करना होगा जिससे लोगों को अतिरिक्त रोज़गार मिल सके। सरकार को एक उदारवादी व्यापार का वातावरण निर्मित करना होगा। इसके लिए बजट में साहस के साथ आयात उदारीकरण के कार्यक्रम लाने पड़ेंगे। आयात शुल्क घटाना होगा और मुक्त व्यापार क्षेत्र (FTA) के अनुबंध के विदेशी राष्ट्रों के समूहों से करने होंगे। ये क़दम भी आसान नहीं होंगे क्योंकि वही शक्तियां जिन्होंने कृषि सुधारों को रोक दिया है वे उद्योग और सर्विस सेक्टर की वृद्धि के लिए किए गए उपायों को भी पूरी ताक़त से रोकने का प्रयास करेंगी। कोई भी विपक्ष सरकार की नीतियों को अधिक सफल होते नहीं देख सकता है। आर्थिक नीतियां सदैव राजनीतिक स्वार्थ या तथाकथित विचारधारा के चश्मों से ही देखी जाएगी। जनता आर्थिक बारीकियों को नहीं समझती है और उसे लुभावने नारों से भटकाया जा सकता है।

क्या हम अपने देश के राजनीतिक वर्ग से यह अपेक्षा करें कि वे ईमानदारी से देश की ग़रीबी हटाने के लिए सर्व सम्मति से कोई प्रयास करेंगे ?