नवरात्र पर विशेष
निमाड़ का कन्याओं का नरवत व्रत
नरवत निमाड़ मध्यप्रदेश का एक लोक अनुष्ठानिक व्रत पर्व है। शंकर-पार्वती की आराधना का लोक पर्व है। नरवत नर-व्रत या नर-वरत का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है नर या पति की प्राप्ति का व्रत। वस्तुतः यह व्रत योग्य वर की प्राप्ति और अपने मैके तथा ससुराल में सुख-समृद्धि की कामना का कुँआरी कन्याओं द्वारा किया जाने वाला अनुष्ठान है। यह नरवत नौ दिनों तक चलने वाला कामना पर्व है। यह शारदीय नवरात्र में अर्थात् कुआर सुदी पड़वाँ से कुआर सुदी नवमीं तक चलता है।
नरवत का अनुष्ठान कुँआरी कन्याओं द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है। गाँव में कन्याओं द्वारा अपनी-अपनी टोलियाँ बना ली जाती हैं। कुआर की अमावस, श्राद्धपक्ष की अंतिम तिथि के दिन कन्याएँ नदी या जलाशय पर पितरों की धूप के साथ साँझा फूली का विसर्जन करने जाती हैं। वे वहीं से टोकनियों में काली चिकनी मिट्टी भरकर ले आती हैं। वे इस मिट्टी से घर के किसी सुरक्षित स्थान पर नरवत का निर्माण करती हैं। यह स्थान घर का आँगन, स्वतंत्र बाड़ा, गोठान या सुरक्षित बरामदा होता है क्योंकि इस व्रत पर्व पर कन्याओं का उन्मुक्त रूप से नृत्य, गायन, पूजन अर्चन चलता है।
नरवत निर्माण की विधि बड़ी जटिल होती है; किन्तु कन्याएँ कुशलता पूर्वक उसको सम्पादित कर लेती हैं। पहले मिट्टी को भिगोकर, उसके कंकर, पत्थर आदि कचरा निकालकर मिट्टी के समस्त दोष दूर करती हैं। फिर कुम्हार की शैली में मिट्टी को पीट-पीटकर मसल-मसल कर बिल्कुल मुलायम, मक्खन जैसे कर लेती हैं। उस मिट्टी से दो अण्डाकार पिंड बनाती हैं। अब इसमें सिर का आकार देती हैं। उसमें आर-पार दो छेद करती हैं। ये छेद कान के स्थान होते हैं। फिर एक छेद नाक और एक मुँह का बना देती हैं। इसके बाद एक छेद सिर पर बनाती हैं। नाक के ऊपर दो कौड़ी लगाकर आँख बना देती हैं। आँख लगते ही वे पिण्ड जीवन्त हो जाते हैं। दोनों पिण्डों में से एक पिण्ड नर और दूसरा नारी होता है। इसके बाद इनका शृँगार किया जाता है। अब ये शिव और गौरी का स्वरूप-धारण कर लेते हैं, ये ही नरवत के विग्रह होते हैं।
उसी परिशुद्ध मिट्टी से एक छोटा सा -एक फुट चौड़ा और एक फुट लम्बा तथा जमीन से एक इंच ऊँचा वर्गाकार चबूतरा बनाया जाता है। इस पर इन पिण्ड रूप नरवत को स्थापित किया जाता है। छेद जो सिर पर बनाया गया था, वहाँ मिट्टी की पाँच गोलियाँ, लगभग बेर के आकार की, बनाकर रखी जाती हैं। ध्यान रखा जाता है कि चार-चार गोलियाँ दो-दो की जोड़ी बनाकर जमा दी जाती हैं और पाँचवीं चार के ऊपर स्थापित कर दी जाती है। अब ये गोलियाँ, गोलियाँ न रहकर गौर कहलाने लगती हैं। दोनों नरवत पिण्डों पर गौर रखकर उसे वन्नी ओढ़ा दी जाती हैं। वन्नी भी महज छोटी-छोटी चिन्दयों को हल्दी में डुबोकर पीली कर गौर को ओढ़ा दी जाती है। इसके अतिरिक्त पूरे चबूतरे पर या मिट्टी के बाजुट पर बहुत सारी- लगभग पचास-इक्कावन गौर बिठा दी जाती हैं और इन पर भी वन्नी ओढ़ाई जाती है। यह सब प्रक्रिया अमावस की संध्या तक पूरी कर ली जाती है।
क्वार सुदी पड़वा के दिन, उषाकाल के पूर्व, रात्रि के अंतिम प्रहर में जागकर ये कन्याएँ खेत, खलिहान, बाड़ी-बागुड़, मण्डवा-बेल आदि स्थानों से रंग-बिरंगे फूल चुनकर लाती हैं, बाँस की छोटी-छोटी टोकनियों जिनको कुरकई कहते हैं, को विविध रंगी फूलों से भर लाती हैं। फिर रात्रि में बने नरवत विग्रहों को किन्हीं समझदार और समर्थ कन्याओं के हाथों में और गौर को घास पर रखकर चबूतरे को गाय के गोबर से लीपती हैं। फिर पूरे चबूतरे पर नकल्या बनाती हैं। नकल्या यानी नाखून के आकार की आकृतियाँ। इसे बनाने के लिए ज्वार का आटा, कुंकुम, हल्दी आदि का प्रयोग किया जाता है। उँगली पर सूखा आटा रख कर अँगूठे से चबूतरे पर उतारा जाता है। इस प्रकार वे नाखून या अर्द्धचन्द्राकार का स्वरूप प्रदान करती हैं। पूरे चबूतरे पर आटे से सुन्दर अर्द्धचन्द्राकार आकृतियों का चित्रण होता है। इनके बीच-बीच में कुंकुम एवं हल्दी का नकल्या भी बनाती हैं। चबूतरे की अनुपम छटा देखने लायक होती है। फिर उन नकल्या पर नरवत पिण्डों: शिवपार्वती को साथ में जोड़ी से बिठाकर पूरे चबूतरे पर गौरें बिठा दी जाती हैं। इनमें हर गौर को पीली वन्नी ओढ़ाई जाती है। नरवत की कौड़ी (नेत्रों को) को जल से धुलाया जाता है। कान वाले छेदों में अभई के फूल, जो कान की आकृति के होते हैं, लगा दिए जाते हैं। अब नरवत का पूजन शुरू होता है। इसके पूर्व एक परीक्षण होता है कन्या के निराहार निर्जला होने का। यदि किसी कन्या ने व्रत को भंग किया है, तो वह नरवत की पूजा से वंचित कर दी जाती है।
नरवत की पूजन के लिए कन्या का निराकण्ठ होना जरूरी है। अतः इसी समूह से कोई समझदार या अनुभवी कन्या यह परीक्षण करती है। नरवत के सम्मुख जल से भरा कलश रखा जाता है। जिस कन्या का परीक्षण होना है, उसका नाम लेकर लाल कन्हेर का फूल कलश में डालकर कहती हैं – ‘‘नरवत म्हाराज या छोरी निन्दा पेट होयऽ तो फूल तीरी जाय, नई तो फूल पर पानी आई जाय।’’ और आस्था के साथ यह परीक्षा पास करने वाली कन्या पूजन में सम्मिलित हो जाती है।
नरवत पूजन की सामग्री मात्र सहज सुलभ फूल-बेल-पत्र ही होते हैं। न तो कुंकुम, हल्दी, चन्दन, चाँवल और न ही मेवा मिष्ठान और न ही धूप-दीप। मात्र फूल और अनेकानेक प्रकारों व अनेकानेक जाति के फूलों से गीत गाकर पूजन होता है। मात्र गाय का कच्चा दूध, जिसे नरवत को पिलाया जाता है, एक मिट्टी के दीपक में रख दिया जाता है।
पूजन सब कन्याओं द्वारा साथ-साथ की जाती है। एक बात और विशेष है, वह यह कि पूजन में स्नान कर के आना ज़रूरी नहीं है। स्नान करके आना बाध्यकारी नहीं है। बाध्यकारी है समय पर पूजन होना। सूर्योदय के पूर्व ही यह पूजन सम्पन्न होना चाहिए। पूजन विधि के अनुसार सर्वप्रथम नरवत को दातून कराई जाती है, दातून होती है बागुड़ पर चलने वाली बेल की कलियाँ, जिनमें दण्डी के दोनों ओर गठानें जैसे होती हैं। मध्य में बैठी कन्या दो अँगुल लम्बी डण्डी पकड़ती है और शेष सभी सम्मिलित कन्याएँ उसके हाथ को हाथ लगाती हैं। इस प्रकार गीत गाते गाते नरवत की दातून करवा कर जल से स्नान व दुग्ध पान कराया जाता है। वस्त्रों के लिए फूलों का नाम ले-लेकर गीत गाते हुए उन्हें साड़ा पहनाती हैं। पूजा पूरे विधान से सम्पन्न होती चलती है। प्रत्येक फूल को एक साथ कई कन्याएँ पकड़ती हैं और हाथ हिला-हिलाकर नरवत के ऊपर से वारती रहती हैं। गीत समाप्त होते ही हर फूल को एक कोने में फेंक देती हैं। आरती में भी टोकनी में सभी रंग के फूल भरकर एक कन्या पकड़ती है और सब उसके हाथ को हाथ लगाकर गीत गाते-गाते टोकनी को घुमाते-घुमाते अन्त में एक झटके में टोकनी को नरवत के पीछे फेंक देती हैं।
नरवत की पूरी पूजा में लगभग दो घण्टे तो लग ही जाते हैं। दो घण्टे का समय आनन्द में कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। फिर एक बांस के टोकने से नरवत विग्रहों को ढँक दिया जाता है। अब अगली पूजा के पूर्व इनके दर्शन करना निषेध होता है। ऐसी मान्यता है कि एक पूजन से दूसरी पूजन के बीच यदि कोई नरवत का टोकना उठाकर देख ले तो नरवत पर छावळई (छाया) पड़ जायगी अर्थात् नरवत बीमार हो जायँगे। श्रद्धा आस्था से पूजन के पश्चात् मनोरंजन का आयोजन होता है। कन्याएँ खेल खेलती हैं। इस खेल में एक पर एक टोकना रखकर ऊँचा टीला सा बना लिया जाता है। इस पर से हर कन्या को सात बार कूदना होता है। इसमें एक नियम होता हैः न टोकनी गिरे, न कूदने वाली कन्या के पैर या वस्त्र से उस टोकनी का स्पर्श हो। ऐसी मान्यता है कि टोकनी कूदते समय अगर किसी की चूक हो जाय तो वह अपने गृहस्थ जीवन में सफल नहीं होती।
फिर एक और हास-विनोद का दौर चलता है। जिस कन्या का टोकनी से स्पर्श हो जाता है, उसे अपने होने वाले पति का नाम लेना पड़ता है। तब वह कहावत में अपने पति का नाम लेती है। हाँ, जिसकी सगाई नहीं हुई होती है, वह पति के नाम की जगह हाड़ा (कौवा) कहती है। पहले गाँवों में तो बचपन में ही माँगणी (सगाई) कर दी जाती थी, फिर ऐसे किस्से कहावतों में वे पति का नाम उच्चारित करती हैं। इस प्रकार नौ दिन तक नरवत खेलती हैं, आनन्द मंगल मनाती हैं।
नौ दिन के पश्चात् नरवत का पूजन कर उन्हें संध्या से काफी पहले ही नदी (जलाशय) में विसर्जन करने गाते-बजाते ले जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि गाँव के देव-बड़वा के पानी लेने से पहले नरवत का विसर्जन हो जाना चाहिए। विसर्जन करने के पश्चात् कन्याएँ लौटकर जिस स्थान पर नरवत बने थे, वहाँ गोबर से लीपकर चैक पूर कर, नाच गाना करती हैं।
नरवत पूजा पद्धति को कहीं नरवत खेलना, तो कहीं गौर खेलना, तो कहीं फूल खेलना कहते हैं। निमाड़ का यह नरवत पर्व जैव विविधता का अनुपम उदाहरण है। भांति-भांति की वनस्पतियों और विविध रंगी फूलों, के साथ नौ दिन व्यतीत करना और उनके नाम व गुण से सबका परिचित होना, प्राकृतिक प्रेम का अद्वितीय नमूना है।
उपर्युक्त नरवत पूजन पद्धति का परिचय लोक गीतों में भी मिलता है। नरवत खेलने में हर कर्म, हर अवसर का गीत है। इन गीतों का सूक्ष्म अध्ययन करें तो हमें यही जानकारी मिलती है कि खेल ही खेल में ये कृषक कन्याएँ अपने कृषि संबंधी कार्यों से परिचित हो जाती हैं, अपने परिवेश से घुलमिल जाती हैं।
नरवत की मिट्टी लाते समय जो गीत गाया जाता है, उसका भाव है कि यह मिट्टी का टोकना बहुत भारी हो गया है, अगर उठाकर घर तक नहीं ले जाऊँगी तो मुझे सास गाली देगी, मेरी ननद मेरे गाल मरोड़ेगी। अतः हे कान्हा तू चोमली बना दे, जिसको मैं सिर पर रखकर, उस पर भारी टोकना रखूँगी, तो उस मिट्टी का भार मेरे सिर पर कम लगेगा।
हाँऊँ भरी लाऊँ रेऽ नरवतऽ की माटी
म्हारो खीड़ोऽ हुई गयो भारऽ
कान्हा चोमळड़ीऽ गुथीऽ दीजेऽ
म्हारीऽ सैऽ नऽ करऽ खिलवाड़ऽ
म्हारी सासु दीसे गाळऽ
म्हारी ननद मरोड़ऽ गालऽ
कान्हा चोमळड़ीऽ गुथी दीजेऽ
म्हारा घरऽ नरवतऽ की छे ठाँणऽ
कान्हा चोमळड़ीऽ गुथी दीजेऽ
इस गीत में उन्हीं मनोभावों का दर्शन मिलता है, जो ग्रामीण जीवन में आम व्यवहार होता है। मिट्टी लाकर नरवत निर्माण की प्रक्रिया के दूसरे दिन जब पड़वा को यह पर्व प्रारंभ होता है, तो नरवत का ओटला चबूतरा लीपते वक्त, उस पर साज सज्जा करते समय, जो गीत गाया जाता है उसमें यह भाव है कि ये क्वारी कन्याओं के खेलने कूदने व आनंद मनाने के दिन हैं। हे जोगिन! ये कन्याएँ तुम्हारे से अगर फूल माँगे या चुराकर ले जायँ, तो उन्हें चुरा लेने दो। अगर ये तुम्हारे बाग बगीचों में खेल रही हैं तो उन्हें खेलने से मत रोको। ये छोटे-छोटे फूल चुन रही हैं, जिन्हें नरवत को चढ़ाएँगी। कन्या कहती है कि ‘‘हे योगिनी! हम हाट गये थे, वहाँ से नरवत के लिये सुंदर वस्त्र लाये हैं। और वहीं से नरवत के बैठने के लिये पाट बाजुट लाये हैं, उन्हीं पाट को नरवत के आसन को सजाने के लिये तुम से फूल माँग रहे हैं।
नकल्या हो कुँईंऽऽ….. नकल्या हो कुँईंऽऽ…
नकल्या खेली-खेली आईऽ छे बाईऽ छेऽ
बाईऽ हारऽ छेऽ जगन को हारऽ छेऽ
दऽ ओ जोगेणऽ नकल्या दऽ
नकल्याऽ दऽ ……..!
गीतों के स्वर लहरी के बीच कन्याओं के हाथ फटाफट चबूतरे पर सुंदर अर्धचन्द्राकृति की सैकड़ों आकृतियाँ बना डालती हैं। ज्वार का आटा, हल्दी-कुंकुम से सजी सुंदर चित्राकृतियों पर नरवत व गौर को विराजमान करते हुए फिर गीत गाती जाती हैं। अब नरवत को वó पहनाये जाते हैं। इन्हें साड़ा या साड़ी कहा जाता है। जिन फूलों की साड़ी बनाई जाती है, उनका नाम लेकर गाया जाता है। जैसे कद्दू के पीले फूल पर लाल चमेली टाक दी जाती है, लाल चमेली पर सफेद फिरकी फूल टाक दिया जाता है। बड़ी मनोहारी साड़ी बन जाती है। रंग विधान से बनाई साड़ी का नाम लेकर गीत गाया जाता है- हे नरवत! तुझे कद्दू और चमेली के फूलों की साड़ी पहना रहे हैं। इन फूलों को हम खलिहान की बागुड़, बाड़ी की पाल, घर व आँगन में लगे बेलों के मण्डपों से चुरा-चुरा कर तोड़कर, माँगकर लाए हैं।
काई साड़ूंऽ ओ बाईऽ, कहाँ मिलऽ वोऽ बाईऽ
कोळा हो साड़ूँऽ हो बाईऽ, चमेली साड़ूँऽ ओ बाईऽ,
अगासणी ओ बाईऽ, पगासणी ओ बाईऽ,
सरियो सोडळ माँडळियोऽ माँडळियोऽ
थाराऽ मँडळ मँऽ दामऽ छेऽ दामऽ छेऽ
दामऽ दामऽ दोसिड़ाऽ दोसिड़ाऽ
तोरया सरखाऽ कापूड़ाऽ कापूड़ाऽ
दोसऽ पड़या परऽ बाळूड़ाऽ बालूड़ाऽ
खेलऽ जेखऽ खेळणऽ दिजेऽ
चोरऽ जेखऽ चोरणऽ दिजोऽ
कूचऽ ओ कूचऽ कूचीऽ आई माळवऽ माळवऽ
माळवऽ सी लाई माटी माटीऽ
माटी का बणायाऽ हथ्थीऽ हथ्थीऽ
लऽ रेऽ नरवत आरसीऽ आरसीऽ
थारी दाड़ीऽ खऽ लागी पारसीऽ पारसीऽ
धवळयो बैल्यो धूरऽ धूरऽ
नद्दी आई पूरऽ-पूरऽ
नरवत खऽ चैढ़या फूलऽ फूलऽ
नरवत को फूल चढ़ाने के इन गीतों में झकोले खाते स्वर, हिलोल लेते हुए स्वर लहरियाँ, ऐसा आभास दिलाती हैं मानो जल में तरंगे उठ रही हों। गीत का पूरा शब्दार्थ तो नहीं होता, कारण लय धुन के साथ कई शब्द सिर्फ़ राग के लिए ही बैठाये जाते हैं, जो गीत में लय को जीवन्त बल देते हैं। फूल चढ़ाकर कन्याएँ नरवत से आग्रह करती हैं कि ‘हे नरवत! तुम आरसी में अपना मुख निहारो, तुम्हारी दाड़ी तो पारस रत्न जैसी है। तुम हमारे द्वारा प्रस्तुत भेंट, फूलों के अंगवस्त्र स्वीकार करो। इस प्रकार गीत की पंक्तियों में सब फूलों के नाम ले-लेकर बड़े आनन्द उत्साह से गीत गाकर नरवत को फूल रूपी वस्त्र पहनाए जाते हैं और कहा जाता है ‘हे नरवत, सफेद बैल गाड़ी में जोत दिये हैं; किन्तु आप श्रृंगार करके जायँगे कैसे, नदी में तो बाढ़ आ गई है।’
गीत गाकर फूलों द्वारा नरवत का श्रृंगार कर डलियाओं के शेष फूलों से नरवत की आरती उतारी जाती है। पूजक कन्याओं की डलियाओं में बचे शेष फूलों को ‘छाबड़ी’ यानी बाँस की बनी बड़ी थालीनुमा डलिया में डालकर उसे सभी लोग चारों ओर से पकड़कर घुमाती हैं, गीत की लय के साथ हाथों की गति भी तीव्र मन्द होती है। इस गीत में बड़ी सुन्दर उपमाएँ हैं – हे चिड़ीबाई तू चाचूँ चाचूँ करती है। हमें नहीं मालूम कि तू हँस रही है कि रो रही है। तेरे माँ बाप कौन हैं, हम नहीं जानते। तो सुन हम इतनी बहनें हैं, उसी में से तेरे माँ-बाप बन जाती हैं। पर तू दुःखी मत होना। तुझे गुड़ घी भात खिलायँगे और महँगे रेशमी वस्त्र पहनायेंगे।
चिड़ीबाईऽ चिड़ीबाईऽ चाँ चूँ करऽ चाँ चूँ करऽ
रड़ीऽ रहीऽ कि हास्याऽ करऽ हास्याऽ करऽ
चिड़ीबाईऽ का माँयऽ नींऽ बापऽ माँयऽ नींऽ बापऽ
चिड़ीबाईऽ की कान्ता माँयऽ कान्ता माँयऽ
चिड़ीबाईऽ का छज्जूऽ बापऽ छज्जूऽ बापऽ
तुखऽ जिमाड़ाऽ गुड़ऽ घीवऽ भातऽ घीवऽ भातऽ
तुखऽ ओढ़ावाँ चिनऽ खापऽ चिनऽ खापऽ।
चिड़ी बाई का यह गीत बहुत लम्बा चलता है। अब वन-जंगल खेत-खलिहान पंख-पखेरुओं से इतना आत्मीय भाव वही रख सकता है, जो इनके बीच ही पलता बढ़ता है। इस गीत के पश्चात् टोकनी कूदने का मनोरंजक कार्यक्रम चलता है।
जो कन्या पूरे नव दिवसीय अनुष्ठान में भाग लेती हैं, उन्हें कुछ कड़े नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। उनमें से प्रमुख नियम हैं: एक: पूजन में नियमित नियत समय पर उपस्थित होना; दो: अपना गाँव छोड़कर अन्य किसी भी गाँव में नहीं जायँ; तीन: एक नरवत छोड़कर दूसरे नरवत टोले में न जायँ; चार: नरवत पूजन सूर्यादय से पूर्व सम्पन्न हो। ऐसी मान्यता है कि जो इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसे अच्छा योग्य वर प्राप्त नहीं होता।
अपनी जमीन, संस्कृति और प्रकृति से प्रेम व उनके संरक्षण का यह पर्व है ‘नरवत’। फैलते शहर, पसरते गाँव ने आसपास की खेत बाड़ियाँ निगल ली हैं। देखते ही देखते गाँवों से यह पर्व विलुप्त हो रहा है।
डॉ. सुमन चैरे
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डॉ सुमन चौरे
भेराजी सम्मान से सम्मानि निमाड़ी साहित्यकार डॉ. सुमन चौरे ने लोकगीतों सहित लोकसंस्कृति की अध्येता तथा सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के घटकों का विशद विवरण, सोलह संस्कारों एवं समस्त तीज त्यौहारों के गीतों को समृद्ध कर निमाड़ी के उदभव और विकास में निरन्तर कार्य किया है। सुमन चौरे जी की “मोहि ब्रज बिसरत नाही” तथा “निमाड़ का सांस्कृतिक लोक” सुमन जी की मौलिक कृतियाँ हैं, जिनमें आंचलिक लोक जीवन के विराट दर्शन होते है.
डॉ सुमन चौरे
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