बमों की खोल से पीतल और एल्युमिनियम बीनने में पिछले 60 सालों में करीब 200 लोगों की हुई मौत!

577

बमों की खोल से पीतल और एल्युमिनियम बीनने में पिछले 60 सालों में करीब 200 लोगों की हुई मौत!

दिनेश सोलंकी की खास रिपोर्ट

महूं (इंदौर): महू तहसील के तिंछा क्षेत्र में बकरी चरा रहे दो बालक सेना के जिंदा बम के साथ खेल बैठे.. उन्हें नहीं मालूम था कि ये उनकी जान भी ले सकता था। दुर्भाग्य से बम फट गया और एक बालक की मौत हो गई जबकि दूसरे का पैर जख्मी हो गया। बच गया बालक अभी भी इलाजरत है और डॉक्टर हर्ष तिवारी के अनुसार संशय की स्थिति बनी हुई है,यदि हालात काबू में नहीं आते हैं तो बालक का पैर भी काटना पड़ सकता है।

IMG 20240617 WA0138
जनसत्ता -27 मई 1989 की रिपोर्ट 👆

*खेल खेल में उठा लिया हाथ में बम*
घटना रविवार को दोपहर में हुई जब ग्राम तिंछा जो कि सेना के बेरछा फायरिंग रेंज में आता है, दस और बारह साल के दो बालक श्रीराम उर्फ कान्हा पिता भवानसिंह उम्र १० साल और विशाल पिता राजेन्द्र उम्र १२ साल बकरी चराने गए हुए थे तब उन्हें एक बम मिला, जिसे विशाल द्वारा उठाने और हिलाने डुलाने पर वह फट गया और विशाल की मौके पर ही मौत हो गई। जबकि श्रीराम के पैर में गम्भीर चोट आई। बताया जाता है कि श्रीराम को जब महू के एमएनएच हास्पिटल में इलाज के लिये लाए तो अस्पताल द्वारा पुलिस को सूचना दी गई। पुलिस को घायल बालक ने पूरा किस्सा बताया। इधर साथ आए गांव के लोगों ने यह भी बता दिया कि मृतक बालक विशाल का तो अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। अब पुलिस मृतक परिवार से बयान ले रही है।
इधर श्रीराम का इलाज करने वाले डॉ हर्ष तिवारी ने बताया कि उसके पैर में घुसे बारुद और छर्रे तो निकाल लिये हैं लेकिन कुछ कण अभी भी पैर में घुसे हुए हैं। बालक का हिमोग्लोबिन कम है तथा खून भी बहुत जा चुका है। इसलिये यदि बालक के इलाज के दौरान हालात नहीं सुधरे तो उसे बचाने के लिये पैर भी काटा जा सकता है।

लम्बा इतिहास है सेना बमों को लेकर
महू में सेना जब तब भी टैंकों, मोटार्र, लांचर आदि हथियारों से बमों के साथ सैन्य अभ्यास करती है तो उसकी मारक 6 किमी से लेकर 15 किमी तक होती है। गुलामी के दौर में अंग्रेज सेना ने जब से महू को अपनी छावनी बनाया है तब ही से जंगलों में सैन्य अभ्यास चलता आ रहा है। देश की आजादी के बाद से महू में सेना ने आधुनिक साधनों के साथ बम मारक क्षमता का विस्तार किया है इस कारण तब अनेक गांवों की जमीनों का अधिग्रहण भी किया है। इसके तहत दो प्रमुख अभ्यास रेंज- “बेरछा और हेमा” नाम से बनाए गए हैं जिसमें दर्जनों गांव की जमीन को कब्जे में लेकर ग्रामीण आदिवासियों के आवासों को हटाया गया था तो कहीं आज भी ग्रामीण मुआवजे के इंतजार में अपनी जमीनों पर खेती भी करते आ रहे हैं। इसी के साथ सैन्य अभ्यास के दौरान बड़ी संख्या में होने वाली बमबारी में कुछ बम छूटने से रह जाते हैं या फटकर बिखर जाते हैं। इन बमों में बड़ी मात्रा में पीतल और एल्युमिनियम धातु का उपयोग होता है। इसे पाने के लिये रेंज के समीप रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों में कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी जान की परवाह किये बगैर ही बम फटते ही उसके टुकड़े बीनने पहुँच जाते हैं। ऐसे में अनेक हादसे हुए जिसमें बम की खोल बीनने वालों की मौत हो गई तो कई अपंग हो गए। लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी इस जोखिम भरे कार्य को बंद नहीं किया गया।

*आज भी याद हैं वह ह्दयविदारक घटना*
ग्राम करोंदिया की वह ह्दयविदारक घटना आज भी याद है, जब बम से 5 के चीथड़े उड़े थे …..
27 मई 1989… महू तहसील के गांव करौंदिया में रात सवा 9 बजे भीषण धमाका होता है। एक मकान के भीतर हुए इस हादसे से मकान बिखरकर हवा में उछल जाता है। घर में मौजूद परिवार के पांच सदस्यों के शरीर के चीथड़े हवा में उड़ जाते हैं… दो बकरियों समेत मुर्गियों की भी मौत हो जाती है। गांव में कोहराम मच जाता है। सुबह पुलिस कंकाल बन चुके चीथड़ों को पोस्ट मार्टम के लिए एक बोरी में भर रखती है। बाद में पता चलता है की परिवार के तीन भाइयों की खेती की जमीन हेमा रेंज जो कि सेना की अभ्यास रेंज कहलाती है, में हैं। एक दिन खेती करते समय उन्हें सेना का जीवित बम 84 एम एम हिट 651 एचएमएक्स टीएंटी रॉकेट लांचर पड़ा हुआ मिलता है। उल्लेखनीय की सेना द्वारा छोड़े गए इन बमों में पीतल और एल्यूमीनियम की मात्रा बड़ी संख्या में निकलती है, इसे बाजार में चंद सुनारों को बेचने की लालच में यह लोग जिंदा बम भी उठा लेते हैं, तब इन्हें नहीं पता रहता है कि इस पर हथौड़े का वार होते ही यह कितने प्रचंड धमाके के साथ फट जाएगा। जबकि जानकर लोग जो पीतल और अल्युमिनियम की लालच में बम की खोल बटोरते हैं वह उन बमों को उपयोग करते हैं जो फट चुके होते हैं। वे जिंदा बम को हाथ नहीं लगाते हैं, उन्हें मालूम होता है कि उसको फोड़ना याने मौत को बुलावा देना है।

*ग्राम बेरछा में तो झगड़ा होने पर ही बम फेंका, दो की हुई थी मौत*
बम बीनने वालों में ऐसे ऐसे शूरवीर भी हैं जो जिंदा बम भी उठा लाते हैं और घर में सहेजकर रखते हैं। महू में बेरछा रेंज में बेरछा गांव, तो हेमा रेंज में गायकवाड़ बस्ती के लोग खासकर जिंदा और फूटे बमों की खोल बीनकर लाने में महारथ हासिल लिये हुए रहे हैं। कुछ तो घर में ही बम रखते हैं इसका खुलासा 14 अगस्त 2022 रात की घटना से हुआ जब महू के बेरछा गांव में दो कौशल परिवारों के बीच आपसी तनातनी बढ़ गई थी। दोनों परिवारों में आपसी रंजिश लम्बे समय से चली आ रही थी। उस रात तनाव बढ़ने पर यहाँ एक परिवार के सदस्य विशाल घर में रखे सेना के तीन बम निकाल लाया और सामने वाले परिवार पर फेंक दिये। इनमें से दो बम तो नहीं फटे लेकिन तीसरा बम विशाल के हाथ में ही फट गया, जबकि उसकी चपेट में आने से एक बालक की भी मौत हो गई। घटना में कुल १२ लोग घायल हुए थे।
क्षेत्र के सरपंच कुलदीप ठाकुर ने बताया कि तब घर घर जांच में 10 बम बरामद हुए थे। इस घटना के बाद से लगभग सभी लोगों ने बम की खोल बीनने का धंदा बंद कर दिया। कुलदीप के अनुसार गांव की आबादी 1600 के लगभग है पहले की घटनाओं में तो 40 – 50 लोग भी मरे भी हैं और कई अपंग भी हुए हैं।

दूसरा प्रभावित इलाका महूगांव नगर परिषद के क्षेत्र में आने वाली गायकवाड़ बस्ती है जहाँ अब तक 150 से ज्यादा लोग बमों की खोल बीनने में ही मर गए तो कई अपंग हुए, जिनमें से भी कइयों की मौत हो गई। क्षेत्र के भाजपा नेता जीतमल वर्मा बताते हैं कि अब बस्ती के लोग बमों की खोल बीनने नहीं जाते क्योंकि इस धंधे में शामिल कुछ लोगों ने अब सैन्य अभ्यास रेंज के इलाके ही ठेके में बांट लिये हैं और बीनने के काम में आदिवासियों को लगा दिया है।

*अनिष्क्रीय बमों की खोज जरुरी है*
थाना बड़गोंदा प्रभारी लोकेन्द्रसिंह हिहोरे इस घटना को दुखद बताते हुए कहते हैं कि सेना के पास भी अनिष्क्रीय बमों का रेकार्ड होना चाहिये जिस प्रकार पुलिस गोलीचालन के बाद उसके खोकों से पता लगाती है कि कौन सी गोली चली या नहीं चली, वैसे ही सक्रिय ज़िंदा बमों का भी हिसाब रखना चाहिए। हिहोरे ने कहा सेना के बमों का हिसाब भी यदि रखा जाए तो पता चल सकता है कि कितने बम नहीं फूट सके थे। साथ ही सेना अभ्यास रेंज के लिये अपनी सीमा दीवार भी बनाना चाहिये।

IMG 20240617 WA0141

मामलों के जानकार सेवानिवृत कर्नल सरुप बताते हैं कि बमों की मारक क्षमता 6 से 15 किमी तक होती है और बम अभ्यास के दौरान कई संख्या में छोड़े जाते हैं। ऐसे में उनकी गिनती होना मुश्किल होता है। फिर भी सेना अभ्यास के बाद सक्रीय बमों की खोज कर उन्हें निष्क्रीय करती है लेकिन कई बम झाड़ या झाड़ी में गिरकर ओझल बन जाते हैं तो कुछ खोह में या जमीन धँस जाते हैं जिनका ततसमय पता नहीं चल पाता है।

महू इंदौर में ऐसे कुछ सुनार हैं जो बमों की खोल बीनने वालों से पीतल और एल्युमिनियम सस्ते दामों पर खरीद लेते हैं। बरसों पहले ऐसे ही महू के एक सुनार की दुकान में रखा जिंदा बम फट गया था जिससे उसकी एक टांग उड़ गई थी। ऐसे कई हादसे आज भी महू क्षेत्र के सेना अभ्यास रेंज के इर्द गिर्द बसे गाँवों के लोग कर रहे हैं। राज्य सरकार को भी ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए।