
अब संयुक्त राष्ट्र अप्रासंगिक हो चुका है…
कौशल किशोर चतुर्वेदी
इजरायल और ईरान के बीच सीजफायर हो चुका है। दोनों ही देशों ने एक-दूसरे पर हमले रोक दिए हैं। जंग में इजरायल और ईरान दोनों को ही काफी नुकसान हुआ है। भले ही इजरायल और ईरान के बीच जंग थम गई हो लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध जारी है। इस बीच रूसी सेना ने भयंकर हमला करते हुए यूक्रेन में तबाही मचा दी है। रूस ने इन हमलों में भारी हथियारों का भी प्रयोग किया है।
उधर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को 2025 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है। यह नामांकन उनकी ‘असाधारण और ऐतिहासिक भूमिका’ के लिए है, जिसके तहत उन्होंने इजरायल और ईरान के बीच सीजफायर करवाया। फॉक्स न्यूज की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अब अमेरिकी संसद सदस्य बडी कार्टर ने ट्रंप को इस पुरस्कार के लिए चुना है। कार्टर ने नोबेल शांति पुरस्कार समिति को लिखे अपने पत्र में कहा, ‘राष्ट्रपति ट्रंप की अगुवाई ने इजरायल और ईरान के बीच 12 दिन तक चले युद्ध को खत्म करने में मदद की। उनकी कोशिशों ने एक बड़े क्षेत्रीय संघर्ष को टाला और दुनिया के सबसे बड़े आतंकवाद प्रायोजक देश (ईरान) को परमाणु हथियार हासिल करने से रोका।’
तो यूक्रेनी सांसद ओलेक्सांद्र मेरेज़्को ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकन वापस ले लिया है। रूस-यूक्रेन युद्ध में ट्रंप की भूमिका पर निराशा व्यक्त करते हुए मेरेज़्को ने कहा कि ट्रंप की तुष्टिकरण की नीति और यूक्रेनी राजधानी पर हमलों पर उनकी चुप्पी ने उनका विश्वास खो दिया है। ट्रंप के 24 घंटे में युद्ध खत्म करने के दावे भी निराधार साबित हुए हैं।
आज यह बात इसलिए क्योंकि युद्धों में उलझी दुनिया में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका अप्रासंगिक सी लगने लगी है। एक ओर ट्रंप की भूमिका ऐसी है कि युद्ध रोकने के लिए वह खुद युद्ध में कूद जाते हैं और युद्ध रुकने पर नोबेल के शांति पुरस्कार का उनका दावा और तेज होने लगता है। और ट्रंप की भूमिका पर भी संयुक्त राष्ट्र कोई टिप्पणी करने का साहस नहीं कर पाता। उधर ब्लादिमीर पुतिन यूक्रेन में हिंसा का खुला खेल खेल रहे हैं और यूक्रेन ने भी ट्रंप की भूमिका को कटघरे में खड़ा कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र का वैश्विक महत्व ही यही है कि युद्ध को टालने में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है, कमजोर देशों को दी जाने वाली सहायता और शांति स्थापना में योगदान ही उसके अस्तित्व का आधार है। यह अन्तरराष्ट्रीय संगठन औपचारिक रूप से 24 अक्टूबर 1945 को वजूद में आया, लेकिन इसके घोषणापत्र को उसी वर्ष 26 जून को स्वीकार कर लिया गया था और इस पर 50 देशों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए थे। आने वाली पीढ़ियों को युद्ध की आग से बचाना और हर परिस्थिति में मानव अधिकारों की रक्षा करना इस संगठन के प्रारंभिक दायित्वों में शामिल थे। पर आज संयुक्त राष्ट्र अपने इन सभी महत्वपूर्ण उद्देश्यों में विफल होता नजर आ रहा है।
सद्दाम हुसैन शासन के अन्तर्गत इराकी उकसावे के प्रति संयुक्त राष्ट्र की अनिश्चितता का जिक्र करते हुए फरवरी 2003 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू. बुश ने कहा था कि “स्वतन्त्र राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र को एक अप्रभावी, अप्रासंगिक बहस करने वाले समाज के रूप में इतिहास में मिटने नहीं देंगे।”
2020 में, राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने संस्मरण ए प्रॉमिस्ड लैण्ड में उल्लेख किया, “शीत युद्ध के बीच में, किसी भी आम सहमति तक पहुँचने की संभावना कम थी, यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र बेकार खड़ा था क्योंकि सोवियत टैंक हंगरी या अमेरिकी विमानों वियतनामी ग्रामीण इलाकों में नैपलम गिरा रहे थे। शीत युद्ध के बाद भी, सुरक्षा परिषद के भीतर विभाजन ने संयुक्त राष्ट्र की समस्याओं से निपटने की क्षमता को बाधित करना जारी रखा। इसके सदस्य राज्यों के पास सोमालिया जैसे असफल राज्यों के पुनर्निर्माण के लिए या श्रीलंका जैसी जगहों पर जातीय वध को रोकने के लिए या तो साधन या सामूहिक इच्छाशक्ति की कमी थी।”
इसकी स्थापना के बाद से, संयुक्त राष्ट्र में सुधार के लिए कई आह्वान किए गए हैं लेकिन इसे कैसे किया जाए, इस पर बहुत कम सहमति है। कुछ चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र विश्व मामलों में अधिक या अधिक प्रभावी भूमिका निभाए, जबकि अन्य चाहते हैं कि इसकी भूमिका मानवीय कार्यों में कम हो।
तो संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर 26 जून 1945 को सैन फ्रांसिस्को में अंतर्राष्ट्रीय संगठन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के समापन पर हस्ताक्षर किए गए थे और यह 24 अक्टूबर 1945 को लागू हुआ। और 80 साल पूरा होते-होते 26 जून 2025 तक संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुका है। बेहतर है कि इसे सम्मान सहित विदा लेकर नए रूप में अस्तित्व में आ जाना चाहिए…।





