बूढ़ा {कहानी}

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कहानी

बूढ़ा

आज बूढ़ा थोड़ी परेशान हाल है। नब्बे पार कर चुकी  बूढ़ा को बच्चे-बड़े सब इसी नाम से पुकारते हैं। आश्चर्य  ये कि इतनी उमर में भी वो पूरा मोहल्ला आबाद रखती है। शादी है तो बन्ना-बन्नी गा रही है। बच्चा हुआ है तो हरीरा चढ़ाये हुए है। जन्मदिन है तो वह खुद बच्ची हुई पड़ी है, अच्छे कपड़े पहन, प्लेट पर प्लेट उड़ाती हुई और मौत पर तो वह उस परिवार के बीच खंभा बन तन जाती है। इसी से उसकी एक आवाज पर मरियल, पहलवान सब दौड़ लगाते हैं।

पति जवानी में चल बसे। दोनों बेटे भी दस साल पहले ही अपनी उमर पूरी कर गये। दो छोरियां थीं वे कब तलक जीं, कब मरीं, कुछ खबर नहीं। वो तो बूढ़ा स्वभाव से ऐसी रसभरी थी कि समय निकल पड़ा।

आजकल कभी-कभी शाम  से रात होने तक, बूढ़ा का जी घबराने लगा है। सबने सलाह करी, बूढ़ा ये ऊपर का कमरा साफ कर किसी को रख लेते हैं। आवक-जावक रहेगी तो तुम्हारा दिल लगा रहेगा।

बूढ़ा खुद से ज्यादा उन पर विश्वास  करती है। सबने इधर-उधर खबर दौड़ाई और ठोक-परख एक शहर में पढ़ने आये, सभ्य परिवार के बच्चे को किराये पर रख दिया। बूढ़ा अब उसको सुविधा जुटाने में व्यस्त हो गई।

– मेरे पास दो कोठी है एक ले जा।

फिर थालियों का एक सेट उसे भेजा गया। गद्दा, रजाई, पलंग, यहां तक कि बाबा आदम के जमाने के झिर-झिरे परदे भी बूढ़ा ने कमरे में लगवा दिए। बेटों के बाद अटाले सा पड़ा कमरा सज गया। प्रदीप होस्टल में रह रहे थे, आते-जाते अपना मग्गा-बाल्टी जरुर उठा लाये।

बूढ़ा की तो जिन्दगी रच गई।

आसपास, पहुंचती उसकी आवाज और रसीली हो गई। पहले बूढ़ा एक टाईम साग या दाल चढ़ाती, तो कहीं से रोटी-चावल आ लगता। कभी-कभी तो आठ-आठ दिन चूल्हा आंच ना देखता। कभी कोई दोना पकड़ा जाता तो कभी कहीं से डिब्बा आ जाता, और खाती भी वो कितना है? हां खाने के बाद मीठा उसे आज भी बहुत पसंद है। स्टील के डिब्बे से गुड़ की भेली निकाल जब वो पोपले मुंह से चूसती है, तो पूरा कथकली साक्षात कर देती है।

आजकल बूढ़ा कुछ ना कुछ बना प्रदीप को भिजवा देती है।

– छोरा घर से दूर है, रोज बाहर खावे, कभी तो घर का मिले।

छुट्टी वाले दिन अब जब प्रदीप भी कुछ ना कुछ बना बूढ़ा के लिए लाने लगा तो बूढ़ा ने वहीं रसोई में एक चौकी उसकी भी लगा दी।

सबने देखा बूढ़ा की उदासी थोड़ा कम हुई तो हाड़ दिखना भी कम हो गया, नहीं तो सांस छोड़ने, लेने से आगे-पीछे होती।

देखते-देखते बरस निकल गया। घर की कमी महसूस ना हो इससे ही बूढ़ा छोरे की सुविधाऐं बढ़ाती गई।

उधर प्रदीप के पिता को व्यवसाय में बहुत घाटा लग गया, महीनों फीस और किराये-खाने की सुध ना ली उन्होंने। तबसे बूढ़ा ने किराया, बिजली की आवाज तक ना की, उल्टे किसी तरह दो रोटी उसकी भी निकाल देती।

लोग समझाते, बूढ़ा इतना मत खटो।

वो पलटती, अरे जिंदा शरीर , चलेगा नहीं तो मरेगा।

दस-बीस मील की दूरी पर बसे बूढ़ा के कुछ खून के रिश्ते भी हैं, जो आते-जाते बूढ़ा की पूछ परख रखते। मकान को लेकर बूढ़ा बहुत पहले साफ कर चुकी है, इसी से उनमें आपस में उसकी जायदाद को लेकर कोई गांठ-गठान नहीं, पर प्रदीप की इतनी दखलंदाजी उनको भी ना पचती –

-‘‘एक महिने को कमरा खाली करा लो बूढ़ा, हक बन जाएगा, फिर तुमने किराया चिट्टी करना भी बंद कर दिया है’’ वे कहते।

-‘‘उनका ईमान जाने, बूढ़ा कहती।‘’

लोग चुप कर जाते।

– औरतें बतियातीं, बूढ़ा पता है, कहां का है, वहां के छोरे सोते में मंुहे दाब देते हैं।

– तो यहां कौन सा खजाना गड़ा पड़ा है? सोना चांदी मैं तुम सब में बांट चुकी वह हंसती, बस अब यह घर ही है और पेंशन ।

– सोते में अंगूठा लगवा लेगा, नई वसीयत बनाकर, आजकल मरे के अंगूठे लगवा लेते हैं, जवान लड़के-लड़कियां डराते।

अरे उसका पक्का इंतजाम है। मेरे मरने के बाद यहां स्कूल खुलेगा। कागज-पत्तर सब तैयार है। हेडमास्टर पांडे, पाल वकील और छज्जू के नाती, जिसको पुलिस में बिल्ला मिला है, के लिखे बिना कोई वसीयत ना चलेगी।

बूढ़ा की चतुराई पर सब हंसे, निश्चिन्त  भी हुए।

उसके एक शरीर में हमारे कितने रिश्ते अटे पड़े थे।

देखते ही देखते तीन साल निकल गये। बूढ़ा की कमर को कमान पड़ गई।

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सुबह होने को है, मुंह अंधेरे ही आज बूढ़ा, नहा-धो पीली साड़ी डाल मंदिर तरफ निकली है। वापसी तक उजाला हुआ तो उसने प्रसाद बांटा।

मनुआ, प्रदीपवा की शादी पक्की हो गई है।

अरे अभी तो नौकरी भी नहीं लगी, तुमको किराया तक तो देते नहीं।

नहीं-नहीं, कुछ ना कुछ फल-फ्रूट लाए रहते हैं। पिछले महिने आंटा भी भरवाया था। अकेलेपन की आशंका से घबराकर  बूढ़ा तुरंत उसका पक्ष लेती।

सब देखते सब्जी आती, कुछ अलग ही, कुकुरमुत्ते सी सफेद-सफेद कुछ। ये सब तो बूढ़ा ने कभी खाया नहीं।

वे देखते घर से मसालों की खुशबु उठी है, पर बूढ़ा तो सादा खाना खाती है। उसकी उमर को हजम ही कहां होता है यह सब?

उसे तो हरी भाजी पसंद है। गाय भी ना सूंघे-ऐसी भाजी बूढ़ा बना खा लेती है। तला-गला नहीं मोटा-झोटा पसंद है उसे, तभी इतना चल गई।

ये अंडो की थैली क्यों? बूढ़ा तुम तो हाथ नहीं लगाती।

तुमसे का छिपाऐं, लल्लन तुम्हारे दद्दा को अंडों का बड़ा शोक लगा। इसी बहाने बाहर बैठक करने लगे। हमने कहा घर लाओ, हम बनाऐंगी, बूढ़ा शरमाई चार बर्तन अलग, बस एक बात है, हमने गोला अपने हाथ कभी नहीं फोड़ा, मुर्गी शापती है। बच्चा बने है ना, जिससे ही जब जरुरत पड़ी पड़ोस से ईट्टन, चिट्टन को आवाज लगाई और काम हुआ।

अंडा पहली बार घर नहीं आया है, मानो बूढ़ा ने चेताया।

जनानिया चिढ़ी, ‘‘खिलाई ना दे एक दिन?’’

उन्हें क्या मालुम बूढ़ा ने स्नेह की लगाम एक हाथ खींचकर रखी थी। कहीं चले गए तो? वह आंशकित रहेती। इसी से दूसरा हाथ दाम ना देखता।

बूढ़ा के घर ईंट-गारा गिर रहा है। छगनवा का छोरा सर पर फेंटा दे, कमर पर हाथ बांधे खड़ा है।

क्या हो रहा है बे? मोहल्ले ने पूछा।

बूढ़ा ऊपर कमरा बढ़ाय रही है।

क्यों, रसोई, गुसल सबकुछ तो है।

अरे हमारा माथा ना खाओ दादा, बूढ़ा से पूछो। चार पैसे का काम मिला है उसे भी नजर बाए बैठे हैं, वो धीरे से बड़बड़ाया।

बूढ़ा ये इत्ता फैल-फैलारा क्यूं कर लिया तुमने?

अरे नई छोरी आएगी। उठने-बैठने की जगह तो हो।

‘‘जबरन पैसा उड़ा रही हो, छगन दादा को बूढ़ा की चिंता हो आई, बीमारी-अजारी को रखो।’’

‘‘हमारी गांठ का है, जो चाहे करें, बूढ़ा ने चांटा मारा।’’

छगन बूढ़ा के बेटों के सबसे करीबी थे। बूढ़ा की देखभाल करते तो उस पर पुत्रवत् हक भी रखते थे। ये चार साल आये छोरे ने बूढ़ा का दिमाग पलट दिया है।

अबतक की सारी सार-संभाल बूढ़ा ने पल भर में निपटा दी।

घर जाकर देर तक बढ़बड़ाते रहे छगन। बूढ़ा को मोह का कांटा लग गया है, उन्होंने पत्नी से कहा। बढ़ती उमर के भय ने अपने-पराये की सब समझ मेट दी है।

कमरे की सीमेंट सूखी भी ना थी, कि प्रदीप लूना ले आए। फूल-हार कर ही रहे थे कि मोहल्ले ने पूछा, ‘‘दहेज में लाए क्या भैया’’?

अरे नहीं प्रदीप खिसिआये, ये तो बूढ़ा ने दिलाए दी है। सेकंड हैंड है।

सबने एक दूसरे को देखा। उठने-बैठने में भी सलाह-मशविरा करने वाली बूढ़ा, अकेले ही सब निपटाने लगी। मोहल्ले को झटका लगा।

बूढ़ा का मोहल्ले में बहता स्नेह अंजुरी में सिमट गया।

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आज बूढ़ा, चुप्पी साधे, ओटले पर टिकी पड़ी थी। कुछ उदास सी।

“क्या हुंआ बूढ़ा?” मोहल्ला चिंतित हो गया।

“तबियत तो ठीक है? अरे कौनऊ हमारी गाड़ी उठाए के डेढ़ गली वाले डॉक्टर को बिठाए लाओ”, लल्लन चिल्लाए।

“नहीं-नहीं बिल्कुल ठीक हैं। वो परदीप शादी को गये हैं, अकेले सुखा रही हैं।”

” कब निकले? कुछ बताया नहीं, मिलके तो जाते।”

“ना पैर छुए, ना आशीर्वाद  लिया”

” ऐसे तो रोज गपियातते बैठते थे। सब एक साथ बोल पड़े।’

“हमेई कौन सा न्यौत गये”, बूढ़ा के मुंह से निकला। “पाल-पोस हम रहे, दबाव घरई का है। ना कोई खोज ना खबर।”

ब्याह के नौंवे दिन तो प्रदीप वापस आ टिके। बूढ़ा के घर से घी में आंटा सिकने की खुशबु बाहर  गई। बूढ़ा फिर खुश । मोहल्ले ने भी मीठा चखा।

बूढ़ा पोपले मुंह हंसी थी, “बहू आई है।”

औरतें हंसती, “बूढ़ा को बहू हुई है। पड़पोती की उम्र की छोरी को बहू कहती है, सठियाय गई है।”

लल्लन हड़कते, आवाज नहीं, तुम सबकी सार-संभाल की अब बूढ़ा बचिआय गई है।

बूढ़ा सुनती अनसुनी करती। उसे तो अपनी वर्षों पहले उजड़ी कोख आजकल हरी हुई लगती, नहीं तो उसके अपने रिशतों  की तो नसबंदी हुई पड़ी थी। बाकी बची-खुची, खुद बूढ़ा ने रिश्तों में छांछ डाल दी थी। एक पोती थी दूर सम्पन परिवार में ब्याही। एकबार जब दामाद मिलने आये तो जिद कर बूढ़ा को गाड़ी में बिठा ले गए। अब हमारे साथ ही रहना आप। मालगुजारी थी, नौकर आते-जाते ढ़ोक लगाते। हाथ में खाना, पूरा मान-सम्मान सब। तकलीफ थी तो एक, सबकुछ नियम से चलता। उठना, सोना, खाना, घूमना सबका टेम तय। बूढ़ा को कौन बांधे? कहीं उठी, कहीं बैठी, कभी खाया, कभी नहीं खाया, कभी ज्वार में छांछ डाली तो कभी बाजरी में गुड़। बूढ़ा ने वापसी की जिद की, और मोहल्ला फिर गुलजार। ……

बहू सलीके की करी थी, घरवालों ने। थोड़ी पढ़ी, थोड़ी दुनियादार। अब खाना ऊपर बनता। बहू को दाल-बाटी पसंद , बूढ़ा से चबती नहीं। बहू को पराठा-पूड़ी पसंद बूढ़ा को वो पचता नहीं।

बहू को पति के साथ एक थाली में खाने का शोक रहता, बहू बहुत चाहती, पति एक कौर अपने हाथ से खिला दे कभी, बूढ़ा के सामने मुमकिन नहीं। बहू का मन होता पति की कमर में हाथ डाल अकेले में मंदिर हो आए, बूढ़ा लाठी टेक साथ, दोनों के बीच अटीपड़ी। बहू का मन करता पति की आंखों में देखते हुए गोलगप्पे खाये और वापसी में पान रचा आए।

नई ब्याही बूढ़ा ने दिन में पति का मुंह ना देख था, वो भला बहू की सिहरन को क्या समझे?

आसपास की बहुरियों से बहू ने अपना मन सांझा किया। नौकरी और बूढ़ा में ही पचे रहते हैं पति, हमसे हंसी-ठिठोली का समय कहां।

बहू सात भाईयों की अकेली बहन, सबके बाल-बच्चे। घर में रोज त्यौहार मचता। यहां सुविधा थी तो सूनापन भी बहूत था। प्रदीप के रिश्तों के कमजोर पड़े धागों को बहू अपनी मिठास से जमाने लग पड़ी।

‘’खून का रिश्ता छुटता थोड़ी है, वह प्रदीप को समझाती। अम्मा-बाबू सब आपको कितना चाहते हैं। उनके प्रेम से बंजर प्रदीप के मन में रसताल बना, खुद भी उसमें उतरा लेना चाहती।

अभी तीन महिने की तनख्वाह भी नहीं हुई थी, कि बहू के बच्चा ठहर गया। बहू ऊपर-नीचे होती, उतरा मुंह लिए, अकेले ही आस-पड़ोस निपटा आती।

बूढ़ा खुश, अरे चिंता ना करो, सब अच्छा होगा। चारपाई पर पड़े-पड़े ही वह गुनगुनाती।

सखी नंदबाबा जी के द्वारा

नाईन मचल रही,

बाल गोपाल के दर्शन  मांगे, चन्द्रकला बलिहार

माता यशोदा के गहने मांगे, नथ बेसर और हार,

नाईन मचल रही ……..

बहू इस दबाव से घबरा जाती। वह जानती है बूढ़ा जितना करेगी उसकी अपनी स्वतंत्रता पर उतना ही बड़ा ताला लगेगा।

आठवां लगे उसके पहले बहू को छोड़ जाना, प्ररदीप के घर का आदेश था।

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प्रदीप धीरे-धीरे समझ गए हैं, बूढ़ा की छांह में पनप नहीं पाऐंगे। उसकी खिदमत से अब कुछ और नहीं मिलना। अब तो अपने प्रचार-प्रसार का समय है। आसपास, नाते-रिश्तों से खुद को बेहतर साबित करने का समय है।

आजकल प्रदीप आस-पड़ोस भैया-दादा करने लगे है। जो पहले आंख की किरकिरी थे अब उनके ही आगे-पीछे डोलते हैं वो। धीरे से समझा भी देते हैं, आप लोग चिंता ना करें, बूढ़ा की पूरी देखभाल है, ‘’बहू उनकी सेवा में है। इधर काम बोला उधर हुआ।‘’ जबकि बूढ़ा पर कम ध्यान दे, मोहल्ला पटाने में लगे हैं प्रदीप। कुछ मतलब तो सधे। बूढ़ा का क्या, पके आम सी, टपक गई तो? मोहल्ला भला है, कुछ आसरा तो रहेगा। लल्लन, जगन, मदन आसपड़ोस के बड़े-बूढ़े सब समझते हैं। अपना खंभा गाड़ना चाहते हैं प्रदीप। करते क्या हैं? अनाज बूढ़ा भरवाती है, पेट्रोल बूढ़ा भरवा देती है, कमरा बूढ़ा ने दिया हुआ है। तो क्या झूला झुलाते हैं? वे सामने हौ भैया, पीछे उसकी नीयत पर चर्चा करते।

वे भूल जाते बूढ़ा पर उमर का नशा पड़ा है। उसकी असुरक्षा अब आसपास वालों पर कब्जा चाहती है, जिससे प्रदीप का दम घुटता है। वह खुद संस्कारों से छुट्टा है, नियम उसे तंगाते हैं। आजकल जरा रोक-टोक पर, वह जब-तब बूढ़ा पर भड़क उठता हैं। बूढ़ा को चमकाते समय उसकी चीनी आंखे और सिकुड़कर लकीर बनकर रह जाती हैं। घर का खाना छोड़ दोस्तों की बैठक में निकल पड़ता है। वह सोचता बूढ़ा ने दाना ना डाला होता तो आज कहीं सरकारी में लगा होता। बूढ़ा सोचती क्या नहीं किया? दाना-पानी, फीस ना करती तब कौन सी पढ़ाई और नौकरी करते। बीमारी-अजारी सब निपटी, रिष्तेदार झांके तक नहीं इतने बरस। महिनों खबर ना ली छोरे की। अब गबराए गए हैं, तो सभई पंखा झुलाये तैयार।

प्रदीप सोचते इतने दिनों अकेलेपन से बचा जिलाए रखा, वो क्या कम? दोनों की अपनी अड़ाअड़ी, मोहल्ले ने देखा, गुड़ में कीड़ा पड़ ही गया।

अब बूढ़ा ज्यादातर ओटले पर अकेले टिकी दिखती। बेजान सी। ना मिलने की हौस, ना जीने की तलब।

प्रदीप के यहां बच्चा हुआ जान भी, बूढ़ा की चमड़ी हिली नहीं। कोई और समय होता तो मोहल्ला नाचती। बच्चों में उसकी जान बसती है।

समय के साथ जब रिश्ते बदलते हैं, भावनाऐं बदलती हैं तो बदलाव की यह गंध सब सोख लेती है। प्यार, स्नेह, मोह सब।

बूढ़ा को यही गंध लग गई है। बूढ़ा की आंखे सूनी-सट्ट, भावविहीन। खून का हो या पराया, रिश्ते  के तोते में जान रख देने से क्या? पिंजरा नहीं सोहता उसे। मन आजाद अब उड़ा, तब उड़ा।

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बूढ़ा आज बहुत परेशान है।

उसने छगन, जगन, लल्लन को बुलवा भेजा है।

क्या हुआ बूढ़ा, सब दौड़े आए।

छगनवा हम का बताऐं। परदीप आजकल शाम होते ही टपटप आंसू बहाते हैं भैया, कुछ पूछो तो बताते भी नहीं।

उनके परिवार में तो सब ठीक है, जगन की बहू ने पूछा।

हां सब ठीकई है। रोज बच्चा दिखाते है, वीडिया में। उसे हंसता-खेलता देख, परदीप भी खुश होते हैं।

तो फिर रोना काहे का?

ईमानदार है, नौकरी का घपला नहीं हो सकता, मोहल्ला बोला।

हमें लगता है खून दौड़ मारता है। जब-जब बच्चा इनको देखता है आवाज करता है। इनके शरीर में भी ज्वार-भाटा पड़ता है, तभी अपने आप बूंदे पड़ती हैं, बूढ़ा ने मानो खुद को समझाया।

मोहल्ले को प्रदीप पर दया हो आई। सच है परिवार है, और नहीं भी।

कुछ देर को हवा भी ठहर गई। सब चुप। बूढ़ा क्या चाहती है? बूढ़ा ने उन सबको देखा, भैया ट्रेन चालू हो गई हैं, उनका टिकट करा दो, कहकर बूढ़ा ने रुपये लल्लन के हाथ में रख दिए। एक क्षण सब हड़बड़ाए।

मोहल्ले को बूढ़ा का चांटा, बूढ़ा का तिरस्कार, धिक्कार सब ध्यान आ गया, तो जनानियों ने बूढ़ा की प्यार, संभार, व्यवहार की आंखों से ही याद दिलाई।

मोहल्ला, इतने में बूढ़ा पर फिर छतरी बन खुल गया।

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डॉ. नीहार गीते

पूर्व प्राचार्य, गुजराती कन्या महाविद्यालय

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