समझ में नहीं आता है कि धर्म, राजनीति, सेकुलर, अंधभक्त, सच्चे भक्त, वामपंथियों-दक्षिणपंथियों, मुसलमानों-हिंदुओं, संघियों-लीगियों, समाजवादियों-साम्यवादियों पुजारियों-नमाज़ियों,इज़रायल समर्थक-फिलिस्तीन समर्थक, मोदी-भक्त, मोदी-विरोधी, सत्ता-समर्थक, सत्ता-विरोधी, योजकों-विभाजकों आदि-आदि लोग कैसे एक हृदयविदारक घटना के बाद एक दूसरे पर घृणा थूकते-थूकते, ये दुखी लोग अगली ही पोस्ट में अपनी एक मुस्कान भरी तस्वीर, अपनी कविताएँ, लोकार्पण-विमोचन, जन्मोत्सव, वैवाहिक वर्षगांठ पर आशीर्वाद माँगते आदि की पोस्ट व तस्वीरें लगाते हैं।बेशर्मी से रील लगा रहे हैं।ये धूर्त ग़ज़ब है भई! विकृति लगती है यह तो।
केवल एक दिन की पोस्ट देख लीजिए।कितने चेहरे सामने आ जाएँगे।दरअसल, यही समाज संदिग्ध है।दोगले नकली लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है।यह एक क़िस्म की निर्लज्जता, मूल्यहीनता और निर्ममता नहीं है? तथाकथित संवेदनशील और बौद्धिक-आतंकियों से देश को कम ख़तरा है ? ऐसे समाजों में पुलवामा, संभल, मुर्शिदाबाद, पूर्वोत्तर की घटनाएँ और अबोध बच्चियों के साथ कुकृत्य जैसी घटनाएँ धीरे-धीरे स्थायी भाव में बदल जाती हैं।और बदल ही गईं हैं।
पहलगाम नरसंहार घटना की समीक्षा कर रहे लोग इतना तक तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे किसके पक्ष में हैं या किसके विरुद्ध-अपनी विचारधारा, प्रति-विचारों के या मनुष्यता के? कि उन्हें विरोध किसका करना चाहिए ?
चलिए मान लेते हैं कि आतंकियों ने धर्म पूछकर मारा या नहीं, कलमा पढ़ाया कि नहीं पढ़ाया (जबकि पूछा था), यह मुद्दा नहीं है, आतंकियों की इस क्रिया के पीछे कुछ न कुछ मंशा जरूर रही होगी।मुद्दा यह है कि आतंकियों ने देश के नागरिकों की हत्या की है।नरसंहार किया।उन्हें इसकी सजा हर हाल में मिलनी ही चाहिए।इसकी कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े।यदि सरकार यह नहीं करती है तो उस पर यह दबाव सबको मिलकर करना चाहिए।बस, इतनी-सी बात समझने की ज़रूरत है।यह देश की सुरक्षा और भविष्य का मामला है।
क्षमा के साथ कहूँगा कि यह सच है कि कुछ कश्मीरियों को पूरी भारतीयता में बदलना कठिन काम है।और यही “कुछ” आतंकियों के पनाहगाह हैं।जो इसे नहीं जानते या मानते उन्हें क्या कहें !
पंद्रह साल पहले (अप्रैल, 2015) श्रीनगर में “क्लाइमेट चेंज“ एक पर मीडिया वर्कशॉप के सिलसिले में गया था।श्रीनगर देखने में तो अनुपम है ही, लेकिन दहशत तारी रहता है वहाँ।जिस समय हम पहुँचे थे, उसी समय श्रीनगर एअर पोर्ट से डल झील के रास्ते में सेना ने तीन आतंकियों को मार गिराया गया था।
फ़िलहाल, वहाँ वर्कशॉप में आये एक विशेषज्ञ की निजी बात सुनकर सन्न रह गया-“कश्मीर को भारत कलेजा काट कर दे दे लेकिन वे मन से भारत के नहीं होंगे।” और यह विशेषज्ञ स्वयं कश्मीरी थे।देश के प्रति उनकी आस्था असंदिग्ध थी।सोचिए, कुछ कश्मीरियों के मन में यह बात बैठाने में विरोधियों को कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी।और ब्रेनवॉश करने वाले कब से लगे हैं।यह बेहद चिंताजनक बात है।पिछले दस सालों में वहाँ का मानस कितना बदला होगा, कह नहीं सकता।
जहाँ तक मैं समझता हूँ कि ज्यादातर कश्मीरी लोग दो ही प्रमुख वजहों से वहाँ से निकलते हैं- धन्धा करने या वहाँ के युवा पढ़ने।अगर तीसरी बड़ी वजह है तो वहाँ के पंडितों का पलायन।चौथी वजह मुझे खोजना होगा अभी।
एक सच यह भी है कि कश्मीरियों के लिए शेष भारत कस्टमर है।वे वहाँ भी आप से कमाते हैं और वहाँ से बाहर निकलते हैं तो भी कमाई करने के लिए ही निकलते हैं -दुशाले और मेवे लेकर।वे आनंद के लिए नहीं आते।शेष दुनिया वहाँ “स्वर्गीय आनंद” के लिए जाती है।यह बुरी बात नहीं है। धारा 356 हटने के बाद से वहाँ कितना बदला, कह नहीं सकता।लेकिन ताज़ी घटना से यह तो लग ही रहा है कि वहाँ अभी बहुत कुछ दुरुस्त करने की ज़रूरत है।
लेकिन यह है कि जब तक कश्मीरी अवाम पूरी इच्छाशक्ति के साथ कश्मीर-आतंकमुक्त-संघर्ष में देश का साथ नहीं देता है, तब तक वहाँ से आतंकी घटनाएँ रोक पाना ज़रा मुश्किल है।यह सत्ता तय करे कि उसे क्या, कब और कैसे करना है।
जो लोग ज्ञान दे रहे हैं कि यह करना चाहिए, वह करना चाहिए, उन्हें समझना होगा कि कश्मीर जितना खूबसूरत है, उतना ही दुर्गम भी है।वहाँ चौकसी आसान नहीं है।कुछ लोग कहते हैं कि राजस्थान की सीमा से पाकिस्तानी सीमा लम्बाई में अधिक जुड़ी है लेकिन वहाँ तो आतंकी नहीं आते। देखिए कि घटना स्थल पाकिस्तानी सीमा से नहीं, लद्दाख सरहद के क़रीब है।ऐसे में क्या कहेंगे ?
घर में चूहा और मच्छर रोकना भी बहुत कठिन होता है।आमने-सामने बहादुरों से लड़ा जा सकता है, कायर चूहों नहीं।हाँ, उनके उन्मूलन का सटीक तरीक़ा सरकार को निकालना ही होगा। वह निश्चित ही निकाल सकती है।यदि यह पिद्दी पड़ोसी देश से प्रायोजित है तो निर्णायक रूप से दबाइए उसे।भीतर बाद में देखा जाएगा।
बाकी ज़िंदा मिले आतंकियों के साथ क्या करना है, यह ठीक से तय किया जाना चाहिए।जिन्होंने मारा है, उन्हें ही नहीं, जो आतंक के आका हैं, उन्हें भी ठीक से रेलने की योजना बनाना सरकार का दायित्व है।
सरकार जी ! सड़क-वड़क, बिजली-पानी, जहाज-वहाज,रेल-सेल कुछ समय के लिए सब छोड़िए।रोक दीजिए।पहले निपटाइए इन्हें।रैटॉल लगाइए, पिंजड़ा लगाइए, फाँस लगाइए, चूहामार दवा रखिए, कुछ भी करिए, परन्तु इन्हें नेस्तनाबूद करिए।सड़े सेबों को दफ़्न करिए।वादियों में फिर से दुर्गंध आने लगी है।वहाँ हवा साफ़ करिए।पहले शांति और स्थिरता चाहिए, विकास उसके बाद।
और बुद्धिमान जी ! आप भी फ़ोटू-फाटू चेंपते रहिए, कुछ तो करते रहिए !!
9 .मैंने कलमा पढ़ा—संस्मरण याद आ गया –शंभूनाथ शुक्ल
वैसे मुझे कलमा याद है। और इसकी वजह हैं डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या। डॉ. चाटुर्ज्या ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि मिस्र पहुँच कर उन्हें पिरामिड देखने के लिए एक परमिट लेना था। परमिट इशू करने वाला बाबू टिपिकल क्लर्क था। उसकी दाढ़ी और वेश से मैं समझ गया, यह बेहद धर्मभीरु है। उसने पूछा, आर यू मुस्लिम! मैंने कलमा पढ़ा,
“ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मदुर रसूल अल्लाह
अल्लाह हो अकबर”
यह संस्मरण मैंने आज से ६० वर्ष पहले पढ़ा था। फिर याद कर लिया कि यदि कभी मिस्र जाना हुआ तो काम आयेगा।
पर अभी तक मिस्र जाना हुआ नहीं और गत दिसम्बर में पासपोर्ट भी एक्सपायर हो गया। पासपोर्ट के दफ्तर में तारीख मई लास्ट की मिल रही है।
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