अंधेरी सुरंग में फंसी है पाकिस्तान की राजनीति

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अंधेरी सुरंग में फंसी है पाकिस्तान की राजनीति

   पाकिस्तान की राजनीति एक ऐसी सुरंग में फंसी हुई है जिसके एक मुहाने पर सत्तारूढ़ पार्टी तो दूसरे मुहाने पर इमरान की पार्टी और उनके समर्थक खड़े हैं।  इन दोनों मुहानों से आने वाली रोशनी अवरुद्ध हो गई है और अनिश्चितता के बीच खड़ी पाकिस्तान की आवाम रोशनी से मरहूम होती जा रही है। वैसे तो यह सुरंग बहुत ज्यादा लम्बी नहीं है, लेकिन इसमें इतने सारे मोड़ हैं कि हवा का कतरा तक मयस्सर नहीं हो पा रहा। पड़ौसी राष्ट्र में भले ही सत्तारूढ दल मौजूदा हालात के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराने का प्रलाप कर रहे हैं। भारत ने इस मौके पर कुछ न कहो, कुछ भी ना कहो गीत का अनुसरण करते हुए मौन साधना ही बेहतर समझा। लेकिन, पाकिस्तान की पोल दिन पर दिन खुलती जी जा रही है। कहा जाता है कि मरते समय इंसान हमेशा सच बोलता है। अब जब इमरान के गले में फांसी का फंदा कसने की कवायद की जा रही है, उसके मुंह से सत्य वचन निकलने लगे है।

अंधेरी सुरंग में फंसी है पाकिस्तान की राजनीति

पचास साल से बांग्लादेश के जन्म के लिए भारत को दोषी मानने वाले पाकिस्तान के ही पूर्व प्रधानमंत्री ने यह सच स्वीकार कर भारत को क्लीन चिट दे दी कि बांग्लादेश के जन्म के लिए सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान की फौज ही जिम्मेदार है। जिसने पश्चिमी पाकिस्तान की चुनी हुई पार्टी को सत्ता न सौंप कर अत्याचार करने की गलती कि इसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ। इसके साथ ही इमरान यह चेताने से भी नहीं चूके कि आजकल पंजाब और सिंध के हालात भी ठीक वैसे ही हैं। पाकिस्तान की फौज वहां की सबसे बड़ी और लोकप्रिय पार्टी को हलाल करने पर आमादा है। लेकिन, यहां एक बार फिर इमरान अपनी क्रिकेट की शैली का इस्तेमाल करना नहीं भूले। उन्होने सिंध और पंजाब का बाउंसर तो फेंक दिया लेकिन बलूच और पश्तून के लिए बॉलिंग करते हुए वह पॉपिंग क्रिज लांघकर नो बॉल कर बैठे। इस पर उनकी चुप्पी उनके राजनीतिक घाघपन को दर्शाती है।

फिलहाल पाकिस्तान में जो राजनीतिक टवेंटी-टवेंटी हो रहा है, उसकी गति इस खेल की मानिंद ही तेज जरूर है लेकिन कोई भी टीम ऐसा स्कोर खड़ा नहीं कर पा रही है, जिसे पाकर वह अपने आपको सुरक्षित कर सके। पहले पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने बदमाशी करते हुए  राजनीति का सिक्का इस कदर उछाला कि वह टॉस जीतकर बल्लेबाजी पर उतर आए। आज के क्रिकेट की तरह इस इस मैच में इमरान को आउट करने का फैसला मैदान पर मौजूद अंपायरों ने नहीं बल्कि इंग्लैंड में बैठे थर्ड अम्पायर नवाज शरीफ ने किया था। पाकिस्तान मुस्लिम लीग तो चाहती थी कि पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ फॉलोऑन खेलने के लिए मजबूर हो जाए। लेकिन, पीपीई के कप्तान ने पाकिस्तान के सियासी मैदान में कुछ इस तरह से फिल्डिंग जमाई कि तरीक ए इंसाफ अपने पसंदीदा अम्पायर के बावजूद अपनी हार बचाने के लिए संघर्ष कर रही है।

अंधेरी सुरंग में फंसी है पाकिस्तान की राजनीति

पाकिस्तान की राजनीति में हमेशा पंजाब और सिंध का वर्चस्व रहा है। जब जिसका पलडा भारी होता है वह बल्लेबाजी पर उतर आता है। लेकिन, देखा यह गया है कि वहां के राजनीतिक अखाड़े में आरंभ से ही पंजाब का पलड़ा भारी रहा है। जब जब सिंध ने अपना वर्चस्व साबित कर सत्ता को चलाने का प्रयास किया है, पंजाब समर्थक सियासतदारों या सिपहसालारों ने उसे सत्ता से बेदखल करने की चाल चली है। इस प्रयास में झूठे मुकदमों से लेकर सजा-ए- मौत तक फरमान की गई है। 4 अप्रैल 1779 को  जब भुट्टो को फांसी दी गई केंद्र में मोरारजी प्रधानमंत्री थे। तब दुनियाभर के सियासतदारों ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की फांसी को माफ करने के लिए गुजारिश की थी, लेकिन मोरारजी यह कहकर मौन साध गए कि यह उनका अंदरूनी मामला है।

इसके बाद 27 दिसंबर 2007 को रावलपिंडी में बेनजीर भुट्टो की हत्या हुई, केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी। संयोग की बात है कि मनमोहन और मोरारजी दोनों की राशि एक ही है। वैसे तो इस बार भी मनमोहन और मोरारजी की तर्ज पर इस बार भी भारत में म से शुरू होने वाली मोदी सरकार ही है लेकिन इस बार पांसा पलट गया। इस बार कटघरे में सिंध नहीं बल्कि पंजाब का सियासतदार है जिसे फांसी पर लटकाने के लिए सिंध का सियासतदार और भुट्टो परिवार का चश्मे चिराग बिलावल भुट्टो ही प्रयासरत है।

ऐसा नहीं कि पड़ोस में घटते इस राजनीतिक घटनाक्रम पर भारत में सन्नाटा है। भारत में इतना सामर्थ्य है कि वह न केवल ऐसी राजनीतिक स्थिति को संभाल सकता है, बल्कि शांति और युद्ध दोनों ही स्थिति में अपनी कूटनीति का इस्तेमाल कर राजनीतिक समाधान निकाल सकता है। बांग्लादेश ,श्रीलंका और म्यांमार में भारत दोनों तरह के फार्मेट में अपना सफल प्रदर्शन कर चुका है। लेकिन, यह पाकिस्तान के लिए सिर फोड़ने की घडी है। क्योंकि, उसने खुद होकर भारत जैसे सामर्थ्यवान पड़ौसी से संबंध बिगाडे हैं। लिहाजा वह भले ही दुनिया से अपने यहां राजनीतिक स्थिरता की गुहार करे, लेकिन भारत के सामने हाथ पसारने का मौका उसने गंवा दिया। केन्द्र में जिस तरह की सरकार बैठी है, वह खुद आगे आकर पाकिस्तान को मदद करने से तो रही।

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दुःख की बात तो यह है कि दो सांडों की लड़ाई में पाकिस्तान की आवाम की फजीहत हो रही है। आर्थिक मोर्चे पर घुटने टेक चुके पाकिस्तान में लोगों के पास दो वक्त रोटी का इंतजाम नहीं है। ऐसे में यह राजनीतिक बदले की क्रिया और प्रतिक्रिया उन्हें जीते जी नर्क जैसी स्थिति में रहने को मजबूर कर रही है। दुनियाभर के राजनीतिक विश्लेषक इस समस्या के दो हल देख रहे है। कभी वह चुनाव की बातें करते हैं तो कभी मार्शल लॉ की सोच को आगे बढा रहे है। दोनों ही स्थिति में पाकिस्तान की हालत बद से बदतर होने का डर है।

यदि चुनाव का विकल्प अपनाया जाता है, तो बहुत संभावना है कि इमरान के गले पर लटका फांसी का फंदा हट जाए और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ फिर से सत्ता पर काबिज हो जाए। लेकिन, तब क्या होगा। जो फंदा आज इमरान के गले में लटका नजर आ रहा है, वह शरीफ परिवार के गले में लटकने लगेगा और इस खींचतान में बिलावल भुट्टो की स्थिति दो पाटन में पीसने जैसी ही होगी। इस समय पाकिस्तान का राजनीतिक घटनाक्रम जिस तेजी से घट रहा है। कभी भी किसी भी तरह की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता , लेकिन यह तो तय है कि हर हाल में बंटाढार तो पाकिस्तान का ही होगा।