Film On Pithora Tribal Art Of MP Appreciated At International Film Festival: ‘पिथौरा’ कला पर बनी फिल्म की अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सराहना
अलीराजपुर जैसे छोटे आदिवासी कस्बे में बनी इस फिल्म की धूम
Alirajpur : ‘पिथौरा’ कला एक प्रकार की लोक चित्रकला है, जो भील जनजाति के सबसे बड़े त्यौहार पर घर की दीवारों पर बनाई जाती है। इस कला पर केंद्रित लघु फिल्म ‘पिथौरा’ को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिल रही है। ‘चाइना फिल्म फेस्टिवल’ में इस फिल्म को स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। इसके अलावा भी यह फिल्म कई विदेशी फिल्म फेस्टिवल में अपनी पकड़ बना रही है। मध्य प्रदेश के छोटे से कस्बे आदिवासी बहुल क्षेत्र आलीराजपुर में बनी यह फिल्म का बनना और इसे ख्याति मिलना किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। फिल्म के निर्माता अनिल तंवर स्वयं ख्यातिप्राप्त अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फोटोग्राफर हैं।
मध्य प्रदेश के पिथौरा क्षेत्र को इस कला का उद्गम स्थल माना जाता है। इस कला के विकास में भील जनजाति के लोगों का योगदान उल्लेखनीय है। इस कला में पारम्परिक रंगों का प्रयोग किया जाता था। प्रायः घरों की दीवारों पर यह चित्रकारी की जाती थी, परन्तु अद्यतन समय में यह कागजों, कैनवास, कपड़ों आदि पर की जाने लगी है। इस कला पर केंद्रित फिल्म ‘पिथोरा’ देश-विदेश के विभिन्न लघु फिल्म फेस्टिवल में चयनित होकर आगे आई है।
पिथौरा चित्रकला Pithora Tribal Art धार्मिक अनुष्ठानों से अधिक प्रभावित रहती है। इस जनजाति के धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन ईश्वर को धन्यवाद स्वरूप या किसी की इच्छापूर्ति आदि प्रदान करने के किए जाते हैं। इस प्रक्रिया में बडवा या शीर्ष पुजारी को ही बुलाया जाता है, जो उनकी समस्याओं का निराकरण इन अनुष्ठानों द्वारा करवाते हैं। यह समस्याएं चाहे किसी पशु-गाय, घोड़ा, हिरण, बैल, हाथी आदि की अप्राकृतिक मृत्यु अथवा घर के बच्चों की बीमारी से सम्बन्धित हो सकती हैं जिसका समाधान बड़वा द्वारा दे दिया जाता है। पूजा पाठ व पिथौरा चित्रकला ( Pithora Tribal Art) बनाने का परामर्श उन्हें बडवा द्वारा दे दिया जाता है। पिथौरा चित्रकला सदैव घर के प्रवेश या ओसरी जो कि प्रथम कक्ष के सामने की दीवार या उसकी भीतरी दीवार पर की जाती है। इन दीवारों को विभिन्न आकृतियों द्वारा पूरी तरह चित्रित कर दिया जाता है।
इस फिल्म को ‘चाइना फिल्म फेस्टिवल’ में स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। ‘पिथौरा’ फिल्म के निर्माता अनिल तंवर के मुताबिक फिल्म की सफलता में टीम का सबसे बड़ा सहयोग है। चन्द्रभान सिंह भदौरिया, उनके सहयोगी दिनेश वर्मा (वीडियोग्राफर) और फोटोग्राफर रितेश गुप्ता का सबसे ज्यादा सहयोग रहा। फिल्म में सजीव चित्रण सुरेश भयडिया का रहा, जिन्होंने राक्सला गांव के परिवार में आयोजित पिथौरा पूजा का बेहतरीन चित्रण किया। अविनाश वाघेला की आवाज तथा शरद क्षीरसागर की वाइस रिकार्डिंग ने फिल्म को पूर्णता दी है। उभरती पिथौरा कलाकार साक्षी भयडिया के साक्षात्कार और सहयोग ने फिल्म को पूर्णता प्रदान की, जिसे अलीराजपुर के विजय सोनी ने रिकॉर्ड किया।
अंग्रेजी में सब टाइटल का सहयोग इतिहासकार विनायक साकल्ले का रहा। दृश्य संयोजन में सबसे अधिक सहयोग प्रसिद्ध फोटोग्राफर तथा लघु फिल्म निर्माता दिनेश शुक्ला (अहमदाबाद) का रहा। उन्होंने फिल्म निर्देशक दायित्व निभाने के साथ इस फिल्म को विदेशों के लघु फिल्म फेस्टिवल में भेजा। फिल्म की एडिटिंग में मीत शाह (भावनगर) का सहयोग रहा।
*क्या होती है ‘पिथौरा पेंटिंग’*
भील जनजाति की कला ‘पिथौरा पेंटिंग’Pithora Tribal Art के उस्ताद और अंतर्राष्ट्रीय कलाकार पेमा फत्या का पिछले साल निधन हो गया। मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के रहने वाले पेमा फत्या को देश के बड़े कलाकारों में गिना जाता था। कोरोना वायरस की खबरों के बीच उनके इस दुनिया से चले जाने की खबर दबी रह गई। उन्होंने पिथौरा बनाने का कार्य वंशानुगत परम्परा से सीखा। पिथौरा पेंटिंग जिसे ‘पिठोरा’ भी कहा जाता है, भील जनजाति की एक विशिष्ट कला है। इसमें ध्वनि सुनना एवं उसे आकृति के रूप में उकेरने की अद्भुत कला का प्रदर्शन किया जाता है।
*अपने आप में अनोखी कला*
यह भारत की एकमात्र ऐसी कला है, जिसमें विशिष्ट ध्वनि सुनना, उसे समझना और लेखन से चित्र रूप प्रदान करना प्रमुख है। भीलों का विश्व प्रसिद्ध चित्र ‘पिथौरा’ है और पेमा फत्या उसके श्रेष्ठ कलाकार थे। भील मृत्युपरांत जीवन में भी विश्वास करते हैं। वे कोरकू जनजाति के राजपूतों को अपना पूर्वज मानते हैं और शिव एवं चंद्रमा की पूजा करते हैं। पेमा फत्या ने अपने पिता से चित्र बनाना सीखा था। पेमा के दोनों बेटे पंकज और दिलीप मजदूरी करते हैं। दो बार फालिज का शिकार होने के बाद भी पेमा ने अपनी इच्छा शक्ति के बूते ख़ुद को इस लायक बनाया कि चित्र बनाते रह सकें। चित्रों ने उन्हें खूब शोहरत दिलाई।
*यह विशिष्ट धार्मिक अनुष्ठान*
भील आदिवासियों के समाज में पिठोरा (पिथौरा) सजावट के चित्र नहीं हैं, यह विशिष्ट धार्मिक अनुष्ठान है, जिसमें चित्रकार अपने मन से कोई रूपांकन नहीं करता। यह उर्वरता और समृद्धि के देवों के आह्वान और उनको समर्पित छवियां हैं जिनमें सौंदर्य का उतना महत्व नहीं, जितना विधान का है। गांव के पुजारी (बड़वा) के चित्रांकन देखकर संतुष्ट होने के बाद ही इसे पूरा माना जाता है।
जे स्वामीनाथन ने पेमा फत्या के हवाले ‘पिठोरा’ में शामिल रूपों की पहचान इस तरह की है बाबा गणेश, काठिया घोड़ा, चंदा बाबा, सूरज बाबा, तारे, सरग (आकाश), जामी माता, ग्राम्य देवता, पिठोरा बाप जी, रानी काजल, हघ राजा कुंवर, मेघनी घोड़ी, नाहर, हाथी, पानी वाली, बावड़ी, सांप, बिच्छू, भिश्ती, बंदर और पोपट के साथ ही चिन्नाला, एकटांग्या और सुपर कन्या। आयताकार रेखाओं के घेरे में बायें हाथ पर सबसे नीचे हुक्का पीते हुए काले रंग की जो छवि बनाते हैं, वह बाबा गणेश हैं, इनकी और गणेश की प्रचलित छवि में कोई समानता नहीं होती, हां, भील आख्यानों में ज्यादा जगह पाने वाला घोड़ा पिठोरा (पिथौरा) के केंद्र में होता है।
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