कविता –
शिउली
शिव के मस्तक पर विराजित,
चंद्र की धवलता,
गौरा के माथे की सिंदूरी आभा
लिए शिउली,
किसी विरहणी के आंसू की तरह,
निशि के अंधकार में
निशब्द झरती शिउली
मानो, अंधेरे में तारों का
श्रृंगार है,
धरा पर गिर कर भी
शिव को स्वीकार है शिउली,
हर का सिंगार,
चांद के ढ़लने के साथ
ढ़ल जाती शिउली,
अनुपम रूप और
अलौकिक महक में रची-बसी,
वैकुंठ से धरा पर,
उतर आई है,
सबको अपने रंग में
रंगती शिउली ।
– निरुपमा खरे,भोपाल