प्रभात झा: एक आत्मीय को खो देने का धक्का
प्रभात झा जी के निधन का समाचार मेरे लिए मात्र समाचार नहीं था, बल्कि एक आत्मीय को खो देने का धक्का था।
पिछले चार महीनों में दो बार प्रभात झा जी का फ़ोन आया। दोनों बार उन्होंने कहा कि वे मुझसे मेरे घर पर आकर मिलना चाहते हैं और क्या मैं भोपाल में हूँ। मेरे हाँ कहने पर भी वे दोनों बार आ नहीं सके। संभवतः किसी पूर्वाभास के कारण वे मुझसे मिलने की इच्छा तो रखते थे परंतु किसी कारणवश वे आ नहीं सके।
1990 में जब मैं एसपी बन कर ग्वालियर गया था तब कुछ ही दिनों के बाद एक पत्रकार के नाते उनसे जान पहचान हो गई। उनका समाचार पत्र स्वदेश सर्कुलेशन की दृष्टि से पुलिस के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं था। परन्तु अन्य पत्रकारों से हटकर उनकी मौलिक सोच के कारण मुझे उनके प्रति एक आकर्षण हो गया था। उनकी अपराध और क़ानून व्यवस्था की रिपोर्टिंग की शैली अलग थी। वे जब समक्ष में मिलते थे तो अपराध और पुलिस से हटकर अन्य विषयों पर भी उनसे चर्चा होती थी। वे अपने बारे में बहुत कम बातें करते थे परन्तु दूसरों से पता चला कि वे अत्यंत साधारण स्थिति में बिहार से ग्वालियर आए थे और यहीं पर उन्होंने शिक्षा प्राप्त की।महाराज बाड़ा स्थित मुखर्जी भवन में एक साधारण कार्यकर्ता की तरह रहते थे और आरएसएस की विचारधारा के प्रति समर्पित थे। उनकी जीवनशैली एक फक्कड़ विचारक की तरह थी।
1999 में आइजी बनकर दुबारा ग्वालियर ग्वालियर आया तब तक पार्टी में उनका क़द ऊँचा हो चुका था और प्रादेशिक स्तर पर उनकी जगह स्वयं बन रही थी। वे स्थानीय पत्रकार और कार्यकर्ता नहीं रह गये थे। हम दोनों की व्यस्तताओं के बीच कभी कभी मुलाक़ात हो जाती थी। ग्वालियर चम्बल दस्यु विरोधी प्रभारी होने के नाते 2004 में ( तथा फिर परिवहन आयुक्त के रूप में) जब मैं ग्वालियर आया तब तक वे दिल्ली जा चुके थे और जेटली जी के बंगले के एक भाग में रहा करते थे। मैं एक बार उनसे वहाँ मिला भी था। अब उनका राजनेता का रूप आ चुका था। 2007 में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव बनाए गए तथा तुरंत अगले वर्ष ही लगातार दो अवधि के लिए राज्य सभा के सदस्य बनें। अपनी कश्मीर और दिल्ली की पदस्थापना के समय मुझे उनसे दिल्ली में मिलने का सौभाग्य मिलता रहा। एक बार अचानक उनकी तबीयत बिगड़ जाने से वे राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती हुए और मैं वहाँ जाकर उनसे मिला। वे प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बने परन्तु उनमें राजनेता बनने का कोई अहंकार नहीं था। उनका व्यक्तित्व सदैव एक सा बना रहा। वे मोबाइल से कभी कभी मुझे फ़ोन लगा दिया करते थे और आत्मीय बातचीत हो जाती थी। अभी हाल के दो फ़ोन हमेशा स्मृति में बने रहेंगे।
प्रभात झा जी के असमय चले जाने से मुझे व्यक्तिगत क्षति हुई है।