राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का स्वागत करना चाहिये

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राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का स्वागत करना चाहिये

अपने दो दशक के राजनीतिक जीवन में जमीनी सचाइयों से बेखबर राहुल गांधी यदि पांव-पांव चलकर भारत की यात्रा कर रहे हैं तो इसका स्वागत तो बनता है। लोकतंत्र की बेहतरी के लिये,मजबूत विपक्ष के लिये। भाषा-बोली,पहनावा,परंपरा,आबोहवा से लेकर तो विभिन्न राजनीतिक वर्चस्व के राज्यों वाले देश की कहां,कैसी तस्वीर है, तदबीर है, ये 24 अकबर रोड की चारदीवारी में बैठकर तो नहीं समझी जा सकती। यह बात राहुल गांधी की समझ में आई यह बड़ी बात है। भले ही वे ऐसा किसी चुनावी रणनीतिकार के सुझाव पर कर रहे हों, लेकिन अपनी जमीन को तलाशना और उसे मजबूती देने की मंशा भी रखना भी आपको कुछ देकर ही जाता है। भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस का भला हो न हो , लेकिन इस रास्ते पर चलकर राहुल का यदि कुछ भी भला हो सका तो यह भारतीय राजनीति के भी भले के लिये ही होगा।

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     इस तरह की यात्राओं का मकसद दिखाया कुछ और जाता है, किंतु होता कुछ और है। इसमें कुछ गलत नहीं। ऐसा तो है नहीं कि इससे पहले इस तरह की यात्रायें नहीं हुईं और राहुल सर्वथा पहली बार वैसा कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत में राजनीतिक तौर पर चार प्रमुख यात्रायें हुईं। जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर ने 1983 में पहली प्रुमख यात्रा की, जो 6 जनवरी 1983 को कन्याकुमारी से प्रारंभ हुई और मध्य जून में दिल्ली के राजघाट पर समाप्त की गई। करीब 4260 किलोमीटर के सफऱ् को भारत यात्रा नाम दिया गया। तब वे 56 वर्ष के थे। दूसरी यात्रा फिल्म कलाकार से राजनेता बने सुनील दत्त ने मुंबई से अमृतसर तक करीब 2 हजार कि.मी. की महाशांति यात्रा की, जो 30 अप्रैल 1987 को अमृतसर पहुंची थी। एक खालिस्तानी आतंकवादी द्वारा एक अपंग बालिका की निर्मम हत्या से उपजी पीड़ा से दत्त ने यह यात्रा की थी,तब वे 58 वर्ष के थे। तीसरी बहुचर्चिच यात्रा भाजपा अध्यक्ष रहते लालकृष्ण आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ से प्रारंभ की, जो 30 अक्टूबर को करीब 10  हजार कि.मी. का सफर पूरा कर अयोध्या में पूरी होना थी, लेकिन इसे पटना में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव ने रोककर आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया था। इस रथ यात्रा ने भाजपा को लोकसभा में 303 सीट पर पहुंचा दिया है। यात्रा के वक्त वे 63 वर्ष के थे। राहुल अभी 52 वर्ष के हैं। याने चारों प्रमुख यात्रियों में आडवाणी सबसे उम्रदराज थे और राहुल सबसे कम उम्र के हैं। यह संयोग है कि सबसे अधिक उम्र वाले आडवाणी और कम उम्र वाले राहुल हमारे बीच है, जबकि चंद्रशेखर और सुनील दत्त नहीं हैं। बहरहाल।

    इन पूर्व यात्राओं का जिक्र इसलिये जरूरी है कि इससे राजनीतिक उद्देश्य स्पष्ट हो जाते हैं। ऐसे में राहुल गांधी की यात्रा को भारत जोड़ो के पवित्र भाव से देखना, न देखना तय किया जा सकता है। वैसे राजनीतिक लाभ भी अपवित्र उद्देश्य तो कतई नहीं है। अब सवाल यह है कि राहुल को इस समय ऐसा क्यों लगा या किसी ने अभी ही यह क्यों जंचाया ? 2023 में करीब आठ राज्यों में  विधानसभा चुनाव हैं और 2024 में लोकसभा चुनाव। भारतीय राजनीति के केंद्र से लगातार दूर होती जा रही कांग्रेस के लिये यह समय बेहद संकटपूर्ण हो चला है। और कांग्रेस का संकटकाल याने गांधी परिवार का । किसी बड़ी चुनावी सफलता से कोसो दूर हो चुके गांधी परिवार का जादूई असर क्षीण हो चला था। दल के नेतृत्व परिवर्तन की आवाज कभी दबे तौर पर तो कभी खुले् तौर पर उठती रहती थी। ऐसे में एक और गलत फैसला गांधी परिवार की रही-सही प्रतिष्ठा का मटियामेट कर सकता था। इसलिये कुछ ऐसे फैसले लेने आ‌वश्यक थे, जो दिखाई भी दे, प्रभावी भी हों और दल के भीतर तथा देश में भी यह संदेश जाये कि गांधी परिवार पद के पीछे नहीं हैं।

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     ऐसे नाजुक समय में गांधी परिवार ने पहला हिम्मत भरा फैसला तो यह लिया कि वे अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ेंगे और इस पर टिके रहे। अब मल्लिकाजुर्न खरगे कितने नाम को हैं,कितने काम के, यह कांग्रेस जाने। दिग्विजय सिंह अध्यक्ष होते तो शायद खोल से बाहर निकलकर काम करने की संभावना बनी रहती। गैर गांधी के अध्यक्ष होने से गांधी परिवार को सीधा और बड़ा फायदा यह है कि 2023 और 2024 के चुनाव परिणामों में अपेक्षित सफलता न मिलने का ठीकरा उन पर नहीं फूटेगा। इसके विपरीत यदि कुछ भी लाभ-शुभ होता है तो उसका श्रेय भारत जोड़ो यात्रा को दिया जा सकता है। दूसरा सही फैसला भारत जोड़ो यात्रा का रहा। इसके अनेक सीधे और अप्रत्यक्ष फायदे हैं। चूंकि संगठन में राहुल क् पास कोई जिम्मेदारी ही नहीं है तो वहां क्या हो रहा है, यह देखने और सुनने से बच गये। कोई यह नहीं कह सकता कि गांधी परिवार का हस्तक्षेप बरकरार है। दूसरा, फालतू बैठने से तो कुछ होना-जाना भी नहीं था। ऐसे में कहीं से भी आया यह विचार स्वर्णिम अवसर था अपने को परिमार्जित करने का और अपने देश को देखने-समझने का।

     लोकतंत्र की बेहतरी इसमें है कि मजबूत और जिम्मेदार विपक्ष मौजूद रहे। कांग्रेस आज भी गांधी परिवार के बिना आगे बढ़ने को तैयार नहीं है। सोनिया गांधी अपनी उम्र,मूल विदेशी होने और लगातार अस्वस्थ रहने से सक्रिय सहभाग करने की स्थिति में नहीं है। प्रियंका के वाड्रा हो जाने से उन के दल में ही सर्वमान्य स्वीकार्य नहीं हैं। राहुल के बारे में उनके नजदीकी ही बताते हैं कि वे राजनीतिक तिकड़म नहीं जानते और न ही भारत के मूल चरित्र,इसके सरोकारो से उतने अवगत हैं। ऐसे में उनकी भारत जोड़ो यात्रा उन्हें अपने देश,यहां के लोगों के बारे में औसत जानकारी से तो परिचित करायेगी ही ,ऐसी आशा की जा रही है।

     दूसरा यह है कि कांग्रेस में लंबे समय से किसी ने सड़क नहीं नापी थी। दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमा की,उसके मकसद भी साधे ही, लेकिन वह सीमित दायरे में रही। ऐसे में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह और उम्मीद का संचार किया है। कांग्रेसी कार्यकर्ता उत्सव,आंदोलन प्रिय है। प्रदर्शन और जिंदाबाद,मुर्दाबाद में माहिर हैं। उसकी इस उर्जा को सही दिशा देने में जो,जब भी कामयाब होगा, वह कांग्रेस को कल्याण की दिशा में ले जायेगा। राहुल की यात्रा यह  कार्य कर सकती है, बशर्ते वे इसके निष्कर्ष को समझ पायें और आगे उस तरह के लगातार कार्यक्रम और प्रकल्प कार्यकर्ताओं को सुपुर्द करते जायें, जो उन्हें सक्रिय रख सके तो।

     राहुल गांधी यदि इस  यात्रा से देश की नब्ज को पहचान पाये तो वे अपनी राजनीतिक यात्रा भी सुगम बना सकेंगे। हालांकि अभी उनकी संसदीय सक्रियता और चेतना का परिपक्व होना शेष है। अब सबसे प्रमुख बात। इस यात्रा के बहाने कांग्रेस खास तौर से 2024 के लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करना चाहती है। उसे ऐसा सोचने का अधिकार भी है, लेकिन उसे इस सच से राहुल को अवगत कराना चाहिये कि जिस तरह से मदारी के तमाशे में राह चलते लोग रुक जाते हैं, ,वैसा ही काफी कुछ इस तरह की राजनीतिक यात्राओं में भी होता है। वे लोगों के उमड़ने को वोटों में परिवर्तित कर देखेंगे तो झूठे सपने ही देखेंगे। हां, एक पुराने राजनीतिक राजघऱाने के चिराग को देश की पैदल खाक छानने के प्रति सहानुभूति जरूर मिल सकती है। उस सहानुभूति को समर्थन में बदलना राहुल और कांग्रेस के लिये बड़ी चुनौती है और अवसर भी। 2024 के आम चुनाव में तो कांग्रेस या संयुक्त विपक्ष के लिये सत्ता पाना का मुश्किल का मैदान है, लेकिन कांग्रेस से कोई गठबंधन सलीके से पेश आ सके,उसमें यह यात्रा मददगार हो सकती है। न सही 2024, 2029 तो है ही।