राहुल की मुहब्बत की दुकान ?

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राहुल की मुहब्बत की दुकान ?

कांग्रेस पार्टी के सर्वेसर्वा राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा का आज समापन हो रहा है। केरल से कश्मीर तक की यह यात्रा शंकराचार्य के अलावा भारत में अब तक राहुल के सिवाय शायद किसी और ने कभी नहीं की। यह यात्रा इस अर्थ में एतिहासिक है। लेकिन भारत कहां से टूट रहा है, जिसे जोड़ने के लिए राहुल ने यह बीड़ा उठाया है?

इस यात्रा का नाम यदि ‘कांग्रेस जोड़ो’ होता तो कहीं बेहतर होता। कांग्रेस टूट ही नहीं रही है, वह दिवंगत होती जा रही है। भारत का विपक्ष अपना अंकुश खोता जा रहा है। राहुल ने श्रीनगर में जाकर कहा कि इस यात्रा ने देश के सामने शासन का वैकल्पिक नक्शा पेश किया है। यदि ऐसा होता तो चमत्कार हो जाता। वह तो बिना यात्रा किए हुए भी पेश किया जा सकता था।

यात्रा के दौरान राहुल ने कई ऐसे बयान दे डाले, जो कांग्रेस की ही नीतियों के विरुद्ध थे। जैसे सावरकर की निंदा, जातीय जनगणना का समर्थन, कश्मीर की ज़मीन पर चीन का कब्जा आदि! इसमें मैं राहुल का कोई दोष नहीं मानता हूं। यह दोष है, राहुल के आस-पास घिरे हुए खुशामदियों का! वे लकड़ी के गुड्डे में जैसी और जितनी चाबी भर देते हैं, वह भोला भंडारी वैसा ही नाच दिखा देता है। राहुल को एक मूल मंत्र किसी ने पकड़ा दिया। वह है- ‘नफरत के बाजार में, मैं मुहब्बत की दुकान खोलने आया हूं।’ सारे देश में मुहब्बत की दुकान खोलने से बेहतर होता कि वह अपने लिए ही मुहब्बत की कोई दुकान खोल लेता। शादी कर लेता।

राहुल अपनी बहन प्रियंका वाड्रा से ही कुछ सीख ले लेता। जो खुद के लिए अब तक मुहब्बत की दुकान नहीं खोल सका, वह देश के लिए मुहब्बत की दुकान कैसे खोलेगा? राहुल सुंदर है, स्वस्थ है, सदाचारी है। संपन्न और जाने-माने घर का युवक है। वह साधुओं और मौलानाओं का भेस बनाकर क्यों घूम रहा है? क्या वह मोदी की नकल कर रहा है? वह गांधी की नकल करता तो कहीं बेहतर होता! उसे फिरोजगांधी का वंशज नहीं, महात्मा गांधी का उत्तराधिकारी माना जाता! गांधी उपनाम को वह सार्थक कर देता। उसकी दादी इंदिराजी यदि अपने नाम के आगे गांधी उपनाम नहीं लगातीं तो भी उनका नाम काफी बड़ा हो गया था।

इस भारत जोड़ो का लाभ कांग्रेस को कितना मिलेगा, इस पर कांग्रेसी नेताओं को ही बड़ा शक है लेकिन राहुल गांधी को इसका जबर्दस्त लाभ मिल रहा है। देश का हर नेता अपने प्रचार का मोहताज होता है। वे आत्म-प्रचार पर करोड़ों रु. खर्च कर डालते हैं लेकिन राहुल को एक कौड़ी भी खर्च नहीं करनी पड़ रही है। टीवी चैनलों और अखबारों में पिछले साढ़े चार महिने में राहुल और मोदी लगभग बराबर-बराबर दिखाई पड़ रहे हैं। राहुल का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि साढ़े चार महिने में उसका जनता से सीधा संपर्क हुआ है, जो 45 साल के राजमहलिया संपर्क से ज्यादा कीमती है।