जमाना बदल रहा है लेकिन कांग्रेस नहीं बदल रही. लगातार पराभव के बाद भी नहीं बदल रही. पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद भी नहीं बदल रही .क्यों नहीं बदल रही ,या क्यों नहीं बदलना चाह रही ,इसका उत्तर खोजने की जुर्रत भी कोई नहीं कर रहा ,जबकि मौजूदा हालात में कांग्रेस टूटकर गिर जाना चाहिए थी.
देशव्यापी संगठन होने के बावजूद कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में दीमक लग गयी है .दीमक लगी ही नहीं बल्कि दीमक पूरे ढांचे को चट कर चुकी है. कांग्रेस का तना बूढ़े बरगद जैसा है .बाहर से स्थूल लेकिन अंदर से खोखला .किसी भी दिन भरभराकर गिर सकता है .कांग्रेस की मौजूदा हालत की वजह खुद कांग्रेस है .कांग्रेस ने बीते कई दशकों में अपने यहां अच्छे संगठक पैदा ही नहीं किये जो कैडर आधारित पार्टियों के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की तरह संगठन की जड़ों को जमा सकें,विस्तार दे सकें .
अब कांग्रेस में जी-23 नाम का एक गुट है ,जो कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती दे रहा है लेकिन इस गुट में भी इतना साहस नहीं है कि वो कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व को अस्वीकार कर एक नई कांग्रेस जनता के सामने पेश कर दे. इस असंतुस्ट गुट के पास नेता ही नेता हैं ,संगठक कोई नहीं है. बिना संगठकों के यदि कांग्रेस टूट भी जाए तो नयी कांग्रेस तृमूकां या एनसीपी जैसी क्षेत्रीय पार्टी से ज्यादा कुछ नहीं बन सकती,जबकि देश को एक नई लेकिन राष्ट्रीय कांग्रेस की जरूरत है .
सवाल ये है कि आखिर कांग्रेस अब तक टूटने से बची क्यों है ?कांग्रेस का अतीत देखिये तो आप जान जायेंगे कि कांग्रेस को तोड़ने की जितनी भी कोशिशें हुईं वे अंतत:धराशायी हो गयीं. नयी कांग्रेसे या तो क्षेत्रीय दल बनकर रह गयीं या फिर वे वापस आकर कांग्रेस में शामिल हो गयीं .कांग्रेस की कलम किसी दूसरे गमले में लगकर पनपती ही नहीं है .उसे दुर्भाग्य से दिल्ली वाला नेता ही चाहिए .नयी कांग्रेस खड़ी करने के लिए जिस नए चेहरे और संसाधनों की जरूरत है वो जी-23 के पास है ही नहीं .ये गुट ज्यादा से ज्यादा मौजूदा नेतृत्व को हड़का सकता है ,या फिर हताश होकर भाजपा की शरण में जा सकता है,नई कांग्रेस अपने बूते किसी भी सूरत में नहीं बना सकता .
कांग्रेस के पास जो नेतृत्व है वो तमाम कारणों से न कांग्रेस संगठन में प्राण नहीं फूंक पा रहा है. यूपी में प्रियंका का डंका भी नहीं बज सका जबकि उन्होंने बहुत गंभीर कोशिश की .राहुल गांधी पहले ही असफल हो चुके हैं और श्रीमती सोनिया गांधी में भी उतनी ऊर्जा नहीं बची है कि वे जीर्ण-शीर्ण कांग्रेस को नवजीवन दे पाएं वे कांग्रेस के लिए जितना कर सकतीं थीं,कर चुकीं .सोनिया गांधी से अब और ज्यादा अपेक्षा करना उचित नहीं है .
कांग्रेस की दुर्दशा से आजिज होकर मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ बगावत का झंडा उठाने वाले कांग्रेस नेताओं के गुट में एक भी नेता ऐसा नहीं है जो अपनी दम पर कांग्रेस को पुनर्जीवन दे सके .गुलाम नबी आजाद उम्रदराज नेता हैं,आनंद शर्मा के पास कोई जादुई नेतृत्व नहीं है ,वे केवल अपनी आवाज के बूते खड़े हैं.भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कोई राष्ट्रीय नेता मानेगा ,इसमें संदेह है. मिलिंद देवड़ा,मुकुल वासनिक और मनीष तिवारी में से एक के पास भी इतनी ताकत नहीं है जो सबको साथ लेकर चल सकें .
कांग्रेस के दमदार नेताओं में शशि थरूर,राजिंदर कौर भट्ठल और वीरप्पा मोइली में से भी किसी की छवि राष्ट्रीय नेता की नहीं है ,हालाँकि तीनों खांटी के क्षत्रप माने जाते हैं .पृथ्वीराज चौहान,कपिल सिब्बल और विवेक तन्खा के पास वक्तव्य कला है तो किन्तु संगठन खड़ा करने की क्षमता नहीं .रेणुका चौधरी ,पीजे कुरियन और राज बब्बर कभी राष्ट्रीय नेता नहीं रहे.ये सब ध्रुव तारे जैसे हैं .कुलदीप शर्मा,अखिलेश प्रताप कीहैसियत क्षेत्रीय नेताओं जैसी है .अरविंद सिंह लवली,कौल सिंह ठक्कर और अजय सिंह बुझे गए दीपक हैं .संदीप दीक्षित की हैसियत अपनी मां के कद की आधी भी नहीं है.
कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व से नाखुश और हताश ज्योतिरादित्य सिंधिया,जितेन प्रसाद जैसे युवा नेता पहले ही कांग्रेस छोड़ चुके हैं. सचिन पायलट हैं लेकिन वे ज्यादा से ज्यादा राजस्थान के नेता हो सकते हैं देश के नहीं .शंकर सिंह बाघेला,परनीत कौर और मुहम्मद अली खान की अपनी सीमाएं हैं .मणिशंकर अय्यर बदजुबानी में भाजपा के किसी भी नेता से टक्कर ले सकते हैं लेकिन वे भी संगठक तो कहीं से नहीं है .बावजूद इसके जी-23 के नेताओं की चिंताओं में कांग्रेस है और वे सब चाहते हैं की कांग्रेस को 2024 से पहले भाजपा का विकल्प बनाने के लिए संगठन का कोई नया मॉडल तैयार किया जाये
कांग्रेस को लेकर कोई कुछ भी कहे किन्तु मेरा अपना अनुमान है की यदि यही परिस्थिति 1984 के कांग्रेस नेतृत्व के सामने होती तो कांग्रेस को कब का तोड़ दिया गया होता .सोनिया या राहुल कांग्रेस को तोड़कर नया भी नहीं बना पा रहे हैं और पुराणों को भी साथ लेकर नहीं चल पा रहे हैं .मौजूदा नेतृत्व की यही दुविधा कांग्रेस पर भारी पड़ रही है .कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के प्रति असंतोष की वजह कांग्रेस के हिस्से में लगातार आ रही पराजय है. कांग्रेस 2014 से लेकर अब तक हुए चुनावों में से 36 चुनाव हार चुकी है .आखिर हारने की भी तो कोई सीमा होती है ? कांग्रेस का आम कार्यकर्ता आखिर कब तक सब्र करेगा ?
आपको याद होगा कि आज से करीब 23 साल पहले भी ऐसा ही महुअल था। वर्ष 1999 में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस के एक धड़े ने सोनिया गांधी के नेतृत्व को अस्वीकार करते हुए पार्टी से नाता तोड़ लिया था। उस समय शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए पार्टी छोड़ दी थी। उस वक्त पीए संगमा और तारिक अनवर ने भी सोनिया गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए शरद पवार का साथ दिया था।
उससे पहले 1998 में ममता बनर्जी ने भी कांग्रेस का साथ छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का गठन किया था। हालांकि उन्होंने सोनिया गांधी के नेतृत्व की वजह से पार्टी नहीं छोड़ी थी। उनकी नाराजगी सोनिया गांधी से पहले, कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रह चुके सीता राम केसरी से थी। जो उन्हें पश्चिम बंगाल में आगे बढ़ने का मौका नहीं दे रहे थे। और बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष सोमेन मित्रा से उनकी दूरियां बढ़ती जा रहीं थी। इसी विरोध के चलते उन्होंने बाद में तृणमूल कांग्रेस का गठन कर लिया।
अब देश को नयी कांग्रेस का इन्तजार करना होगा ,ये इन्तजार लंबा भी हो सकता है और मुमकिन है कि कांग्रेस एक बार फिर टूटने से बच जाये .जो भी हो सबकी नजरें बीमार कांग्रेस पर टिकी हुई हैं .