लोकमंगल के लिए सच्चा साहित्य सृजित करते रहे रामचंद्र…

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लोकमंगल के लिए सच्चा साहित्य सृजित करते रहे रामचंद्र…

लोक कल्याण के लिए त्रेता युग में दशरथ पुत्र रामचंद्र ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया था, तो बीसवीं सदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल लोकमंगल के लिए साहित्य सृजन करने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। किसी भी समाज की बुनियाद परिवार की नींव पर ही टिकी होती है। अत: शुक्ल जी ने पारिवारिक जीवन को सुदृढ़ करने पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि “मैं उन लोगों के लिये लिखता हूँ जो अपना जीवन उपयोगी बनाना चाहते हों, जो ईश्वर के दिये हुये गुणों और शक्तियों से भरपूर लाभ उठाना चाहते हों, जो संसार से अपने दिन पूरे करने के उपरान्त अपने कर्मक्षेत्र के बीच चाहे वह छोटा हो या बड़ा अपनी स्थिति के द्वारा कुछ भलाई छोड़ जाना चाहते हों।”

‘आदर्श जीवन’ के लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल के यह भाव बताते हैं कि साहित्य जगत में संत की भूमिका के वही निर्वाहक थे। ‘आदर्श जीवन’ उनके द्वारा लिखित पारिवारिक और सामाजिक जीवन से सम्बद्ध रचना है। शुक्ल जी ने पुस्तकीय वक्तव्य में लिखा है कि इस पुस्तक को लिखने का आधार अंग्रेजी की एक पुस्तक ‘प्लेन लिविंग एंड हाई थिंकिंग’ को बनाया गया है। अंग्रेजी पुस्तक की तरह इस पुस्तक का उद्देश्य भी युवाओं में सद्व्यवहार और आचरण का संयोग करना है। किसी भी समाज, देश-काल में व्यक्ति का निर्माण, उस समाज के सभ्यतिक और सांस्कृतिक निर्माण में योगदान देने की प्रारंभिक पहल है। इसलिये यह प्रारंभिक पहल काफी सचेत और सतर्क ढंग से होनी चाहिये। शुक्ल जी ने इस पुस्तक को कुल छ: भागों में बांटा है। 1. पारिवारिक जीवन 2. सांसारिक जीवन 3. आत्मबल 4. आचरण 5. अध्ययन 6. स्वास्थ्य विधान। इस तरह इस पुस्तक के माध्यम से युवाओं के साथ समाज के सभी वर्ग और सभी क्षेत्र के लिये सीख और अनुशरण की शिक्षा मिलती है। तो लोकमंगल के लिए इससे बड़ा साहित्यिक योगदान और क्या हो सकता है। जिसमें परिवार, समाज, स्वास्थ्य, आचरण, आत्मबल और अध्ययन के बारे में एक साहित्यकार संत की तरह समाज से सीधा आह्वान कर रहा हो।

आज रामचंद्र शुक्ल की चर्चा इसलिए, क्योंकि वह 4 अक्टूबर को ही जन्म लिए थे। आचार्य राम चंद्र शुक्ल (4 अक्टूबर 1884 – 2 फरवरी 1941), हिंदी साहित्यकार थे। उन्हें सीमित संसाधनों के साथ व्यापक, अनुभवजन्य शोध का उपयोग करके वैज्ञानिक प्रणाली में हिंदी साहित्य के इतिहास का पहला संहिताकार माना जाता है। एक लेखक के रूप में उन्हें ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1928-29) के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है। शुक्ल का कार्य छठी शताब्दी से हिंदी कविता और गद्य की उत्पत्ति और बौद्ध और नाथ विद्यालयों के माध्यम से इसके विकास और अमीर खुसरो, कबीरदास, रविदास, तुलसीदास के मध्ययुगीन योगदान से लेकर निराला और प्रेमचंद के आधुनिक यथार्थवाद तक का पता लगाता है। शुक्ल जी के बारे में अपने मूल्यांकन (आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना) में प्रख्यात आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा इस तथ्य पर बल देते हैं कि महान लेखक ने सामंती और दरबारी साहित्य का विरोध किया क्योंकि यह आम लोगों के जीवन और समकालीन समाज की सच्ची तस्वीर पेश नहीं करता था।

उनकी साहित्यिक आलोचना कृतियों में ‘कविता क्या है’ शामिल है, जो उनके उत्कृष्ट संग्रह चिंतामणि में कविता और काव्यशास्त्र को समझाने वाला सबसे व्यापक रूप से पढ़ा जाने वाला निबंध है, जिसे शुरू में क्रोध और घृणा जैसी भावनाओं पर निबंधों के संग्रह के रूप में दो खंडों में प्रकाशित किया गया था।

हिंदी भाषियों की विश्वदृष्टि को समृद्ध करने के लिए आचार्य शुक्ल ने एडविन अर्नाल्ड की पुस्तक ‘द लाइट ऑफ एशिया’ का बुद्ध चरित (बृजभाषा पद्य में गौतम बुद्ध की जीवनी) में अनुवाद किया तथा जर्मन विद्वान अर्नस्ट हेकेल की प्रसिद्ध कृति ‘द रिडल्स ऑफ यूनिवर्स’ का विश्व प्रपंच में अनुवाद किया, जिसमें उन्होंने भारतीय दार्शनिक प्रणालियों के साथ इसके निष्कर्षों की तुलना करते हुए अपनी विचारोत्तेजक प्रस्तावना जोड़ी। ये रचनाएँ इस बात का संकेत हैं कि उन्होंने खुद को हिंदी भाषा, साहित्य और विचार के सबसे बड़े आधुनिकीकरणकर्ता तक सीमित नहीं रखा। वे विज्ञान और इतिहास की रचनाओं का अनुवाद और अद्यतन करके वैज्ञानिक सोच के निर्माण में लगे रहे। कई शताब्दियों के साहित्यिक कार्यों को संबंधित युग की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों की रचनाओं के रूप में जांचने के लिए एक वैज्ञानिक पद्धति विकसित करने में आचार्य शुक्ल एक पथप्रदर्शक बने।

ऐसे साहित्यिक संत आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 4 अक्टूबर 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के एक छोटे से गांव अगोना में चंद्रबली शुक्ल के घर हुआ था। उस समय भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी। उन्होंने साहित्य की दुनिया में अपना काम एक कविता और एक लेख ‘प्राचीन भारतीयों का परिचय’ से शुरू किया था। 17 साल की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी में अपना पहला निबंध ‘भारत को क्या करना है’ लिखकर प्रकाशित किया था । साम्राज्यवाद विरोधी भावना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 1921 में ‘नॉन-कोऑपरेशन एंड नॉन-मर्केंटाइल क्लासेस ऑफ इंडिया’ लिखा था । यह औपनिवेशिक और अर्ध-सामंती अर्थव्यवस्था के ढांचे में भारतीय वर्गों के संघर्ष को देखने का एक प्रयास था।

आचार्य शुक्ल ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में अध्यापन किया और पंडित मदन मोहन मालवीय के कार्यकाल के दौरान 1937 से लेकर अपनी मृत्यु 1941 तक इसके हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे । हालांकि वे नियमित कहानीकार नहीं थे, लेकिन उन्होंने मौलिक लेखन को प्रेरित करने के लिए एक लंबी हिंदी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” लिखी। उनके मौलिक कविताओं के संग्रह ‘मधुश्रोत’ में पहाड़ियों, चट्टानों, झरनों, फसलों और पक्षियों के प्रति उनकी किशोरावस्था की भूख और उनके बचपन के परिवेश की छवियां शामिल हैं।

तो लोकमंगल के लिए सच्चा साहित्य सृजित करते-करते रामचंद्र शुक्ल मात्र 56 साल की आयु में इस दुनिया को छोड़ गए।आचार्य शुक्ल के विचार में सच्चा साहित्य केवल मानव चेतना की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि लोकमंगल की अवधारणा है, जो समाज की प्रगति को परिभाषित करती है, जहां आम लोग सर्वोच्च हैं और उनके दुखों को सुधार के उद्देश्य के रूप में समझा जाता है। साहित्य को सौंदर्यशास्त्र के माध्यम से दलितों और वंचितों के दर्द और दुख को संबोधित करना चाहिए और सभी प्रकार के शोषण से मानव मुक्ति के लिए काम करना चाहिए।