रामचरित मानस रचकर गोस्वामी तुलसीदास ने किया लोकभाषा को प्रतिष्ठित 

552

रामचरित मानस रचकर गोस्वामी तुलसीदास ने किया लोकभाषा को प्रतिष्ठित 

भारत में एक समय अनीति, भेदभाव और सामाजिक कुरीतियां अपने चरम पर थीं। धर्म और पंथ के पैरोकारों के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता चल रही थी । वर्णभेद और छुआछूत हर जगह व्याप्त था। शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच श्रेष्ठता की होड़ चल रही थी। अनेक तरह की रूढ़ियों से ग्रसित समाज में अंधविश्वास का बोलबाला था। ऐसे कठिन दौर में एक ओजस्वी प्रतिभा संपन्न विभूति का आविर्भाव हुआ। इनका नाम है= गोस्वामी श्री तुलसीदास। गोस्वामी जी ने अनेक काव्य रचनाएं लिखीं। इनमें प्रमुख है= श्री रामचरित मानस। पूर्वी भाषा में रामायण रचकर उन्होंने लोक भाषा को प्रतिष्ठित और समृद्ध किया। भक्तिरस से ओतप्रोत सरल भाषा में चौपाइयां और दोहे इतने लोकप्रिय हुए कि रामायण घर-घर में प्रतिष्ठित हो गई। रामकथा की लोकप्रियता देश विदेश से लेकर नगरीय क्षेत्रों के साथ-साथ गांव की चौपालों तक अमरबेल की तरह फैल गई।

 

गोस्वामी जी ने रामायण के माध्यम से समाज में सकारात्मक वातावरण निर्मित किया। रामराज्य की विशेषताओं को जन-जन तक पहुंचाया। राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व तथा प्रजा का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य परायणता का संदेश लोगों तक पहुंचा। पिता की प्रतिज्ञा सत्य करने के लिए भगवान राम ने राजपद त्यागकर सहर्ष वनवास ग्रहण कर एक उच्च आदर्श स्थापित किया। इधर, भरत को राजपद मिला, परंतु उन्होंने राज्य की सुविधाओं का उपयोग नहीं किया। अयोध्या से बाहर कुटी बनाकर वे तपस्वी के वेश में 14 वर्ष तक रहे। उन्होंने राम की आज्ञा से राजधर्म निभाया, परंतु वैराग्य जीवन जीते हुए। इससे यह शिक्षा मिलती है कि राजा को जन आकांक्षाओं के अनुरूप चलते हुए न्यायप्रिय होना चाहिए। राम जब 14 वर्ष बाद वापस आए तो उन्हें सहर्ष राज्य सौंप दिया। यह प्रसंग नैतिक मूल्यों की पराकाष्ठा है।

 

रामराज्य में प्रजा सभी प्रकार से सुखी रहती है। उन्हें किसी प्रकार का दैहिक दैविक ताप का सामना नहीं करना पड़ता। आदर्श राज्य का संचालन, मर्यादा और सदाचरण से जीवन यापन करने की सीख तथा राजा का प्रजा को संतानों की तरह पालन करने का मार्गदर्शन हमें रामायण से मिलता है। काम, क्रोध, लोभ और मोह के प्रति मनुष्य की भावना कैसी हो, सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण से वह कैसे जीवन में समन्वय स्थापित करे, इसकी सीख मानस में मिलती है। तुलसी ने अपने काव्य में शिव और वैष्णव भक्तों के बीच अभेद भक्ति को आवश्यक बताया है। राम और शिव एक दूसरे के आराध्य हैं, इसलिए कोई उन्हें छोटा बड़ा ना देखे। यदि राम की भक्ति चाहिए तो शिव जी से प्रार्थना करें और यदि शिव जी की कृपा चाहिए तो पहले राम भक्त बनें। आस्था के भेदभाव को मानस में समाप्त करने का प्रयास किया गया है। इस तरह हम देखते हैं कि तुलसी के ग्रंथ ने मनुष्य को दुर्गुणों से दूर किया और उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया। इस ग्रंथ ने सनातन संस्कृति के मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाया। साथ ही लोगों में भक्ति की भावना का संचार किया। यह सत्य है कि विप्र, गौ, संत और देवों की रक्षा के लिए भगवान समय-समय पर पृथ्वी पर अवतार लेते हैं और दुष्टों का वध करके उनका कष्ट दूर करते हैं।

 

गोस्वामी जी का जन्म बांदा जिले में राजापुर गांव में संवत् 1554 श्रावण शुक्ल सप्तमी को हुआ। पिता का नाम श्री आत्माराम दुबे और माता का नाम श्रीमती हुलसी था। जन्म होते ही उन्होंने राम शब्द बोला। बचपन में उनका नाम राम बोला था। बाद में उनके गुरु ने उनका नाम तुलसीदास रखा। श्री सदानंद के निर्देश पर उनके शिष्य श्री नरहरि तुलसी को लेकर अयोध्या आ गए। संवत 1561 माघ शुक्ल पंचमी को उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। गुरु ने उन्हें राम मंत्र की दीक्षा दी। बाद में मैं काशी आ गए। यहां 15 वर्षों तक उन्होंने वेदों का अध्ययन किया। अध्ययन के बाद वे जन्मभूमि लौटे। यहां संवत 1583 जेष्ठ शुक्ल 13 गुरुवार को एक सुंदर कन्या के साथ उनका विवाह हुआ। पत्नी के प्रति उनका अत्यधिक प्रेम था। एक दिन पत्नी ने उन पर क्रोध किया और कहा कि जितना आप हमसे प्रेम करते हो, यदि इतना राम जी से करते तो कल्याण हो जाता। यह सुनकर उन्होंने कहा, ऐसा ही होगा। घर छोड़कर वे काशी आ गए। यहां भगवान विश्वेश्वर नाथ से उन्होंने राम भक्ति के लिए प्रार्थना की। इसके बाद वे सत्संग में जाने लगे। जहां रामकथा होती, वहां वह उपस्थित होते। हनुमान जी की कृपा से उन्हें चित्रकूट में भगवान श्री रामचंद्र के लक्ष्मण सहित दर्शन हुये।

 

काशी में गोस्वामी जी ने संवत् 1631 चैत्र मास में रामनवमी के दिन रामायण लिखना शुरू की। 2 वर्ष, 7 माह, 26 दिन में ग्रंथ पूरा हो गया। रामायण में 27 श्लोक, 4506 चौपाई, 207 छंद, 1167 दोहे तथा 86 सोरठा हैं। विनय पत्रिका, गीतावली, हनुमान बाहुक, हनुमान चालीसा तथा अन्य रचनाएं भी उन्होंने लिखीं। संवत 1680 श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को काशी के अस्सी घाट पर उन्होंने राम-राम कहते हुए देह त्याग दी।

 

रामायण से हमें धार्मिक शिक्षा, गुरु, माता पिता के साथ आदर्श व्यवहार, मर्यादित जीवन, संयम, शील तथा सद्गुणों को अपनाने की प्रेरणा मिलती है, संस्कृति की रक्षा और नैतिक मूल्यों के प्रति मनुष्य का आचरण जैसे प्रसंग भी इसमें हैं। गुरु का आदर और सेवा, पितृ भक्ति, माताओं का त्याग, पति के प्रति पत्नी का कर्तव्य, भाइयों के बीच आपसी प्रेम, समर्पण की भावना, भरत का तपस्वी वेष में 14 वर्ष तक रहने जैसे प्रसंग रामायण की उपादेयता को बढ़ाते हैं। हनुमान जी का राम जी के प्रति सेवाधर्म स्वामी सेवक की पूर्णता है। समुद्र को लांघना, सीता जी को धैर्य देना तथा लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर रात में ही संजीवनी लाने जैसे उनके अलौकिक और साहसिक कार्य हैं। क्रोध में आकर स्त्री कैसे अपने कुटुंब को गर्त में धकेल सकती है, यह कैकयी प्रसंग में है। विभीषण और सुग्रीव को राज्य देना, सुग्रीव से मित्रता, दुष्टों का साथ छोड़ना, सत्संग करना, जो अनीति करे, उसका त्याग करना, चाहे भाई ही क्यों ना हो, जैसे प्रसंग समूची मानव जाति को सजग रहने का संदेश देते हैं। श्री तुलसीदास का व्यक्तित्व और कृतित्व हर युग में प्रासंगिक रहेगा।

 

गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने रामायण जैसा ग्रंथ लिख कर हमें इस भवसागर से पार जाने के लिए एक सशक्त सोपान दे दिया है। रामायण में वह सब कुछ है, जिससे मनुष्य यह लोक और परलोक दोनों को सुधार सकता है। आवश्यकता है कि वह सत्संग से जुड़े, सदाचरण अपनाए और निष्काम भाव से भक्ति करे। ऐसा करके निश्चित ही वह अपना मनोरथ पा सकता है ।